
समतामूलक (Equitable) समाज का अभिप्राय मेरी समझ से ऐसे आदर्श समाज से है जिसके मूल मे समता हो। दूसरे शब्दों मे ऐसा समाज जिसका अंतर्निहित मूल्य समता हो ।
समता (equity) और समानता (equality) को लेकर काफ़ी भ्रम है । किसी ने कहा है “Equality is impossible, Equity is possible”!
मानव समाज मे सभी एक जैसे न होते हुये भी मानव ही हैं ।
मेरा मानना है समाज मे बस समानता इतनी ही थी, है और रहेगी !
असमानता दूर करने के लिये बहुत से प्रयत्नों की बात करे तो समाजवाद और कम्युनिज्म के द्वारा असमानता दूर करने का विषय जरूर उठेगा।वैसे तो कुछ लोग पूँजीवाद को भी विषमता कम/ दूर करने के कारक के रूप मे मानते हैं ।
पर कितनी सफल रही ऐसी सामाजिक परिवर्तन लाने की क़वायदें ?

प्रकृति मे समानता होते हुये भी भिन्नता है ।एक ही खेत मे बोये सरसों में एक जैसा बीज,एक जैसी खाद, एक जैसे रख रखाव होने के बावजूद भी उस खेत मे सरसों के सभी पौधे एक समान नही होते हैं।

हर एक पौधे से भी सरसों के दाने समान मात्रा मे नही निकलते हैं । पर होते तो सब के सब पौधे सरसों के ही है।
समाज संबंधों पर आधारित होता है ।संबंध आपसी समझ और सर्वजनीन मान्यताओं से बनते हैं (जन्मते है), बढ़ते हैं (गाढ़े होते हैं), कालांतर मे संबंधो मे बदलाव (परिवर्तन) होता है, संबंध क्षीण होते है और समाप्त भी हो जाते हैं । फिर नये संबंध बनते है । फिर वही चक्र । इसीलिये कहा जाता है समाज परिवर्तनशील होता है ।
समानतामूलक समाज सिर्फ मनभावन आदर्श ही है। प्रकृति तो विविधता की जननी है ।एकता मे अनेकता का आदर्श ही नही पर प्रकृति का स्वभाव है । प्रकृति के मूल मे समता है समानता नही ।
सामाजिक संरचना भी प्रकृति के नियमों पर आधारित होती है।
समानतामूलक समाज, समाजवादी और साम्यवादी विचारधाराओं का आदर्श है
पर समता मूलक समाज से भिन्न भी है ।
समतामूलक समाज के मूल में सबके साथ बराबरी का भाव और व्यवहार, सबको समान अवसर, स्वप्रयत्नो से अपने और अपने आसपास बदलाव लाने की भावना और विश्वास आदि मूल्य हैं ।
पर क्या यह दुनिया आदर्शों पर ही चलती है ?

आदर्श
न थी, न है, न होगी
वैसी दुनिया
पर तलाश है
बहुतों को
दुनिया की जो हो, वैसी
आदर्श
बुलबुले है, बहती जीवन धारा के
मानवता के विकास प्रवाह मे
उनका, अस्तित्व
वास्तव में
कुछ देर का ही होता है
आदर्श हैं,आत्मक्रंदन
कभी मरते नहीं, बहते हैं, जन्म ले, कुछ देर रहते है
मानवता के प्रवाह में





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