कोरोनोपरांत किम ?
एको अहं, द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति की अनुभूति, कहा गया है आध्यात्मिकता और ध्यान के उच्च स्तर पर ही शायद संभव है । एको अहं की स्थिति हम साधारण मानवों को कहाँ नसीब ।हममे से बहुतायत तो परिवार और समाज से अभिन्न जीवन की कल्पना नहीं कर सकते । कोरोना पश्चात क्या ? इस विषय पर सब के मन में सोच होगी । होनी भी चाहिये । इस संबंध में यह लंबा लेख पढ़ने को मिला ।
संदर्भ अमरीका का है । पर बदलाव तो हर जगह होगा । हम अछूते न रहेंगे । कोरोना पश्चात क्या ? विमर्श आवश्यक है वास्तविकता के धरातल पर आ जाने के लिये । मूल लेख इस लिंक पर उपलब्ध है । https://longreads.com/2020/05/07/how-covid-19-could-reshape-urban-life/
बदलाव तो अवश्यंभावी है। पर कितना कहा और किस स्तर पर होगा ?
कोरोना त्रासदी में अधिकतम कष्ट सहने वाला वर्ग हैं, दिहाड़ी पर काम करने वाला मजबूर मज़दूर, कम वेतन पर रखे गये अस्थाई अनुबंधित कर्मचारी temporary contract employees on contract taken on rolls directly or through a firm) जो सीधे अथवा किसी अन्य संस्था के द्वारा नौकरी में लिये जाते हैं । गृहबंदी एक, दो ,तीनऔर अब चार के चलते इन की हालत आर्थिक हालत तो बिगड़ी ही है पर अधिकांश के अपने घरों से दूर दराज प्रदेशों में काम की खोज में जाने और वहाँ से कोरोना महामारी के बाद घर लौटने की त्रासदी एक तरह से मजबूरी ही है।
यहाँ मज़दूरी का मतलब सिर्फ़ हाथों से काम करने वाले, दिहाड़ी पर काम खोजने वाले मानव झुंडों के सदस्यों से ही है ।
“मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी” बहुत प्रचलित मुहावरा है जो वास्तव में,कम से कम मेरी दृष्टि में,अर्थहीन है । इसके स्थान पर यदि यह कहे “मजबूरी का नाम मज़दूरी “।
कहा जाता है कि आज कल हम एक वैश्विक गाँव में रहते हैं ।प्रवासी और आप्रवासी (Migrant और Immigrant ) दो शब्द बहुत प्रचलित हैं ।
मानव जाति का इतिहास ही प्राचीन काल से ही एक तरह से प्रवास का इतिहास रहा है। पृथ्वी के हर भूखंड, देश क्षेत्र जहां भी मानव रहा वहाँ से दूसरी जगहों पर जाने का इतिहास हज़ारों साल का है ।
पहले भी महामारी के कारण सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में आमूल परिवर्तन हुये हैं । कोरोनापरांत भी कुछ परिवर्तन तो होंगे ही।
मीडियम नाम की अंग्रेज़ी मैगज़ीन में छपे उपरोक्त लेख के अनुसार चौदहवीं शताब्दी में आर्थिक रूप से सबसे कमजोर वर्ग में आने वाले सर्फ़ (मज़दूर खेतिहर) वर्ग की आर्थिक और सामाजिक स्थिति में बहुत सुधार हुआ। कारण था चौदहवीं शताब्दी में हुई प्लेग की महामारी के जो एक के बाद एक कई बार आई और यूरोपकी लगभग आधी जनसंख्या का सफ़ाया कर गई। काम करने वालों की कमी से न केवल उनकी आमदनी में बढ़ोतरी हुई वरन वह शहरों में ख़ाली पड़े घरों के मालिक बन बैठे क्योंकि जो मालिक थे वह काल कवलित हो चुके थे। समाज में इस वर्ग का सम्मान भी बढ़ा और सामाजिक सोच में बदलाव का नया दौर भी शुरू हुआ जो कालांतर में रेनेसां और इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन का जनक बना।
सवाल है हमारे यहाँ क्या होगा? दिहाड़ी पर काम करने वाले मज़दूरों की संख्या अनुमानत: लगभग १२ करोड़ है। कोरोना का रोना चाहे कितना भी हो, वह किराना ही है और चौदहवीं शताब्दी की प्लेग के सामने कुछ भी नहीं। और अब हम इक्कीसवीं शताब्दी में है। विज्ञान, सूचना माध्यम, स्वास्थ्य सेवाओं, टेक्नोलॉजी आदि में बहुत प्रगति हो चुकी है।
अधिकांशत: मजबूर मज़दूर यूपी बिहार के भैय्या, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, बंगाल के निवासी हैं। वैसे हर प्रदेश के लोग इस वर्ग में आते हैं।
इन लोगों की आर्थिक सामाजिक स्थिति और कमाई में बदलाव की सीमा का अनुमान लगाना कठिन है, पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि अब वह दिन लद गये “जब ख़लील खां फ़ाख्ता उड़ाया करते” थे। मजबूर मज़दूर खरींफ की बुवाई बाद ही शहरों की ओर रुख़ करने का शायद मन बना पायें। मज़दूरों की कमी मालिकों को खलेगी। आशा है सोच में बदलाव भी आयेगा । बड़े उद्योग आटोमेशन पर ध्यान ज़्यादा देंगे । छोटे और मँझले उद्योगों में मज़दूरों का सम्मान बढ़ेगा।
राजनीति खूब होगी । होनी शुरू भी हो गई है । आख़िर क्यों नहीं हम लोकतंत्र जो हैं । यूपी और एमपी मे जहां बीजेपी की सरकारें हैं , मज़दूरों से संबंधित क़ानूनों में ढील की खबर आई। कांग्रेसी तो पहले से ही एक राग मोदी बिलावल गाते रहते हैं । पर ओपन इकानामी और लिबरलाइजेशन के समर्थक ख़ुशी के ढोल पीटना शुरू ही किये थे कि खबर आई कि बीजेपी की ट्रेड यूनियन माँग कर बैठी कि मज़दूरों से संबंधित क़ानूनों में ढील देना ग़लत कदम है । वाह रे राजनीति। सरकार भी मेरी विपक्ष की तरह का विरोध भी मेरा। पर एक बात तो है बीजेपी मार्क्सवादी लोगों को मज़दूर हित की लड़ाई की बात करने में अब की बार पछाड़ गई ।
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