शब्दों का घाल – मेल और उसकी परिणति

डाक्टर भीमशंकर मनुबंश
यह लघु कथा वृक्षमंदिर पर आज पोस्ट किये गये श्री आर• के• नागर की कहानी ” नेपकिन ” से प्रेरित है l

बात उन दिनों की है जब मैं बरौनी दुग्ध संघ का प्रबंध निदेशक हुआ करता था ।

एक रात, कोई बारह बजे के बाद की बात है, अचानक फोन की घंटी बज उठी। उस जमाने मे सिर्फ लैंड – लाइन ही हुआ करता था ।हम लोग कुछ ही समय पहले सोये थे । मेरी पत्नी उठीं l हम लोग घबरा गये कि इतनी रात गये पता नही किसने फोन किया l मन मे कुछ अनहोनी की आशंका हो रही थी l फिर भी, पत्नी ने फोन रिसीव किया l
पत्नी के ही एक कजन ने , जो बरौनी कॉलेज मे ही प्रोफेसर थे, फोन किया था l फोन पर बात कर पत्नी कुछ घबराई हुई लगीं l उन्होंने फोन मुझे पकडा दिया । मेरी बात प्रोफेसर साहब और उनकी पत्नी से भी हुई l
पता लगा की उनकी ‘ बचिया ‘ अचानक बीमार हो गई है ।

उन्होंने मेडिकल हेल्प के लिये हमे फोन किया था l यहाँ बता देना ठीक रहेगा कि बोल – चाल की भाषा मे छोटी लडकी को ‘ बचिया ‘ बोला जाता है ।


उनका आवास डेयरी परिसर से लगभग पांच किलो मीटर की दूरी पर रही होगी l लेकिन वह ग्रामीण परिवेश मे था और रास्ते भी सुनसान थे । फिर भी वहाँ जाना तो था ही । पत्नी भी तैयार हो गई साथ मे चलने को l
मैंने सेक्युरिटी को फोन से बताया कि वह मेरे ड्राईवर को गाडी लेकर मेरे आवास पर भेजे । मैंने एक और स्टाफ जो उस क्षेत्र मे डाक्टर के रूप मे जाने जाते थे, को भी नींद से उठाकर बुलवाया l बात यहीं समाप्त नही हुई l मैंने फोन से PHC के डॉक्टर जो पास मे ही रहते थे, उनको भी इस बात की जानकारी दी और उनसे अनुरोध किया कि आप तैयार रहें मैं आपको साथ ले चलूँगा ।

खैर, मै, मेरी पत्नी, एक स्टाफ और ड्राईवर चल पडे l फिर रुक कर एक बंदूकधारी सेक्युरिटी को भी साथ मे ले लिया और लाव – लश्कर के साथ चल पडे l रास्ते मे रुक कर डॉक्टर साहब को भी पिक – अप किया ।

तैयारी फिर भी समाप्त नही हुई ।डॉक्टर साहब ने बताया कि कुछ जरूरी दवा बाजार से लेनी पडेगी l लेकिन दिक्कत यह कि बाजार पूरी तरह बंद थी l मेरे साथ आये हुए स्टाफ ने एक दवाई वाले दुकानदार के घर पर जा कर उन्हें नींद से उठा कर लाया ।फिर जरूरी दवाईयां ली गई l फाइनली, इतना कुछ करने के बाद हम लोग प्रोफेसर साहब के आवास की ओर चले पडे ।

लेकिन सामने एक और बाधा खड़ी थी l वह बाधा आज, 25 वर्षों के बाद भी, बरौनी वासियों के सामने उसी रूप मे खड़ी है l और वह है ‘ रेलवे फाटक ‘ ।वहाँ कुछ देर के लिये हमे रुकना पडा l फिर, जितना जल्दी हो सके, इतने बाधाओं को पार कर अंततोगत्वा हम लोग प्रोफेसर साहब के आवास पर पहुँच गये l

अब चलिये इस कहानी के क्लाईमैक्स की ओर …….
वहाँ पहुँच कर, हम सभी तो घबराये थे ही, प्रोफेसर साहब और उनकी पत्नी भी घबराई हुई दिखीं । हमारे पूछने पर कि कहाँ है ‘ बचिया,’ उन लोगों ने घर के अन्दर नहीं बल्कि बाहर दूसरा शेडनुमा जगह पर ले गये । उनके इस तरह के व्यवहार से कुछ अजीब सा लग रहा था l फिर भी, हमलोग शिष्टाचारवश कुछ बोल नही पा रहे थे l

और लो, वहाँ पहुँच कर हमलोगों ने देखा की उनकी एक गाय बंधी है और पास मे गाय का बच्चा, जो एक बाछी थी, पडी हुई है l

बात चली तो उन लोगों ने बताया कि उन्होंने ‘ बचिया ‘ नही बल्कि ‘ बछिया ‘ बोला था l

तो मित्रों बात कहाँ से कहां पहुँच गई ! ब और या तो टस से मस न हुये बस “चि” और “छि” के हेर-फेर से बयान बदल गया !

अब चूक कहाँ और किससे हुई यह बात पाठकों पर छोडता हूं ।



श्री (प्रो•) एमकेसिन्हा जी और उनकी अर्द्धांगिनी को सादर समर्पित


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