
श्री अनुपम मिश्रा मेरे पिता के प्रशंसकों में से एक थे । बाबूजी के साथ गांधी पीस फ़ाउंडेशन में उनसे कई बार मिला भी था । अंतिम बार उनसे मुलाक़ात तब हुई जब वह बाबूजी की तेरहवीं पर २००८ सितंबर में गुड़गाँव में आयोजित प्रार्थना सभा में आये थे।

अनुपम जी सभा के अंत तक बैठे रहे और बड़े स्नेह से हम सब से मिले । आयोजन ही ऐसा था कि ज़्यादा बातचीत तो नहीं हो सकती थी पर एक दूसरे के संपर्क में रहने और उनकी पुस्तक “तालाब आज भी खरे हैं” के बारे में थोड़ी चर्चा के बाद फिर हम न मिले । २०१६ में उनका देहांत हो गया ।
आज बाबूजी के एक और प्रशंसक श्री विजय महाजन ने अनुपम जी के २००८ में लिखे लेख “तैरने वाला समाज डूब रहा है” की कड़ी भेजी जब विजय भाई का मेसेज मिला तब बाबूजी के साथ हुई अनुपम जी से मुलाक़ात की कुछ बातें याद आईं
अनुपम जी भारतीय सोच पर आधारित पर्यावरण, विशेषकर पानी के संकट, संबंधित शोध, लेखन के प्रति समर्पित और सक्रिय कार्यकर्ता और जाने पहचाने नाम थे ।
सन २००८ में अनुपम जी के लिखे लेख में वर्णित त्रासदी आज भी जस की तस हर वर्ष आती है । ऐसे समाचार टीआरपी के भूखे टीवी चैनलों की क्षुधा तृप्ति कुछ दिन कर देते है । समाचार पत्रों की सुर्ख़ियाँ भी बन जाते है । पर आज तक रोकथाम का कोई कारगर उपाय नहीं नहीं ढूँढा जा सका है ।
मैंने यह लेख पहले नहीं पढ़ा जा। कल से दो बार पढ़ चुका हूँ। हर बार कुछ नया सोचने को मिल जाता है। पुराने दिनों की याद आती है। जब बाढ़ आती थी और लगभग हर साल आती थी, हम सब बाढ़ देखने जाते थे ।
पाठकों से अनुरोध है कि अनुपम जी का यह टेड लेक्चर आप आद्योपांत सुने ।
क्या आधुनिक वैज्ञानिक सोच पर आधारित “विकास” ही एकमात्र उपाय है आज पर्यावरण की समस्याओं से जूझने के लिये ?
पारंपरिक सामाजिक सोच और ज्ञान पर आधारित व्यवस्थाये जो सदियों से प्रयोग में रही हैं क्या वह “विकास” की आकांक्षाओं की पूर्ति करने में समर्थवान न रहीं ? मन में इसी प्रकार के बहुत से प्रश्न उठते हैं ।
बचपन में बाढ़ के साथ जीने का अवसर तो न मिला पर बाढ़ प्रभावित लोगों के जीवन को नज़दीक से देखने का अवसर तो ज़रूर मिला । बाढ़ हमारे गाँव के छोर तक ही आती थी। बाढ़ के दिनों में यदि बाढ़ का स्वरूप विकराल रहा तो पास के कछार के गाँवों की काफ़ी आबादी और पशु धन हमारे जैसे गाँवों पर यानि डांडे ( ऊँचाई पर वाले) पर के गाँवों में आ जाती था।अब तो हमारे यहाँ हर साल बाढ़ नहीं आती है पर जब आती है तब जम कर आती है ।
बाढ़ तब भी आती थी अब भी आती है। इतना विकास तब न हुआ था । आबादी भी इतनी नहीं थी।
ताल तलैया भठे नहीं थे। साल भर पानी रहता था, सूखा पड़ जाये तो बात दूसरी । गाँव में तीन पोखरा थे। “पुरनका” सबसे बड़ा, पुन्नर बाबा के दुआरे पर । “बरपरवा” हमारे गाांव और पास के गांव के सिवान से लगा हुआ था। उसी के साथ था “तेलिया के” ( गाँव के तेली लोगों की ज़मीनें इस पोखरा के पास थीं)। एक पोखरी हमारे घर के पीछे और एक रेहारे पर । घर के पीछे वाली पोखरी का एक तट साथ के दूसरे गाँव से लगता था । एक छोटा सा ताल भी था जिसके आस-पास के खेतों में धान की खेती रोपनी कर के होती थी (जडहन ) । यह फसल देर से होती थी । गाँव के पास के खेतों में धान के बीज छींट दिये जाते थे और जल्दी तैयार हो जाते थे ।
अब पुरनका ही बचा है, बरपरवा और तेलिआ के लगभग भठ चुके है, ताल वाली जगह पर अब बाढ़ का ही पानी आता है। रेहारे पर की पोखरी लुप्तप्राय है। ट्यूब वेल भरमार है। हमारे घर के सदस्यों के ही छ हैं।
पहले पांच कुओं से ही गाँव भर के पीने के पानी की व्यवस्था हो जाती थी। अब घर घर चाँपा कल हैं। कुछ दिनों में विकसवा पाइप वाला पानी घर घर पहुंचायेगा ऐसा नेता लोग कह रहे हैं।
जल स्तर तीस फुट से बढ़ कर १५०-२०० फ़ीट हो चुका है। रेहारे पर बाबूजी बताते थे कि पानी चुल्लू से निकाल कर पिया जा सकता था। मेरे समय में आठ दस फुट पर था।
कहाँ गया वह पानी? क्यों हमें छोड़ कर भागा जा रहा है। बिजली तो थी ही नहीं । डीज़ल का उपयोग जो पहले नगण्य था अब जीवन यापन के लिये आवश्यक बन चुका है। बिजली और रसोई गैस दोनों उपलब्ध है और चुनाव जितवा सकते हैं।
विकास का ध्येय और लक्ष्य क्या था, है और क्या होना चाहिये ?
इस संदर्भ में अनुपम जी की सोच और उनकी लेखनी एक महत्वपूर्ण और गंभीर विषय का वह विस्मृत दृष्टिकोण जो समसामयिक सामाजिक विमर्श के हाशिये पर चला गया उसे है उसे केंद्र में लाने का प्रयास है।
अनुपम जी के लेख “तैरने वाला समाज डूब रहा है” से कुछ अंश
“बाढ़ अतिथि नहीं है। यह कभी अचानक नहीं आती। दो–चार दिन का अंतर पड़ जाए तो बात अलग है। इसके आने की तिथियां बिल्कुल तय हैं। लेकिन जब बाढ़ आती है तो हम कुछ ऐसा व्यवहार करते हैं कि यह अचानक आई विपत्ति है। इसके पहले जो तैयारियां करनी चाहिए, वे बिल्कुल नहीं हो पाती हैं। इसलिए अब बाढ़ की मारक क्षमता पहले से अधिक बढ़ चली है। पहले शायद हमारा समाज बिना इतने बड़े प्रशासन के या बिना इतने बड़े निकम्मे प्रशासन के अपना इंतजाम बखूबी करना जानता था। इसलिए बाढ़ आने पर वह इतना परेशान नहीं दिखता था।”
“जब हिमालय बना तब कहते हैं कि उसके तीन पुड़े थे। तीन तहें थीं। जैसे मध्यप्रदेश के हिस्से में सतपुड़ा है वैसे यहां तीन पुड़े थे- आंतरिक, मध्य और बाह्य। बाह्य हिस्सा शिवालिक सबसे कमजोर माना जाता है। वैसे भी भूगोल की परिभाषा में हिमालय के लिए कहा जाता है कि यह अरावली, विंध्य और सतपुड़ा के मुकाबले बच्चा है। महीनों के बारह पन्ने पलटने से हमारे सभी तरह के कैलेंडर दीवार पर से उतर आते हैं। लेकिन प्रकृति के कैलेंडर में लाखों वर्षों का एक पन्ना होता है। उस कैलेंडर से देखें तो शायद अरावली की उम्र नब्बे वर्ष होगी और हिमालय, अभी चार-पांच बरस का शैतान बच्चा है। वह अभी उलछता-कूदता है, खेलता-डोलता है। टूट-फूट उसमें बहुत होती रहती है। अभी उसमें प्रौढ़ता या वयस्क वाला संयम नहीं है। शांत, धीरज जैसे गुण नहीं आए हैं। इसलिए हिमालय की ये नदियां सिर्फ पानी नहीं बहाती हैं वे साद, मिट्टी, पत्थर और बड़ी-बड़ी चट्टानें भी साथ लाती हैं। उत्तर बिहार का समाज अपनी स्मृति में इन बातों को दर्ज कर चुका था।”
“उत्तर बिहार में हिमालय से उतरने वाली नदियों की संख्या अनगिनत है। कोई गिनती नहीं है, फिर भी कुछ लोगों ने उनकी गिनती की है। आज लोग यह मानते हैं कि यहां पर इन नदियों ने दुख के अलावा कुछ नहीं दिया है। पर इनके नाम देखेंगे तो इनमें से किसी भी नदी के नाम में, विशेषण में दुख का कोई पर्यायवाची देखने को नहीं मिलेगा। लोगों ने नदियों को हमेशा की तरह देवियों के रूप में देखा है।”
“इन्हीं नदियों की बाढ़ के पानी को रोक कर समाज बड़े-बड़े तालाबों में डालता था और इससे इनकी बाढ़ का वेग कम करता था। एक पुराना पद मिलता है- ‘चार कोसी झाड़ी।’ इसके बारे में नए लोगों को अब ज्यादा कुछ पता नहीं है। पुराने लोगों से ऐसी जानकारी एकत्र कर यहां के इलाके का स्वभाव समझना चाहिए। चार कोसी झाड़ी का कुछ हिस्सा शायद चम्पारण में बचा है। ऐसा कहते हैं कि पूरे हिमालय की तराई में चार कोस की चौड़ाई का एक घना जंगल बचा कर रखा गया था। इसकी लंबाई पूरे बिहार में ग्यारह- बारह सौ किलोमीटर तक चलती थी। यह पूर्वी उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र तक जाता था। चार कोस चौड़ाई और उसकी लंबाई हिमालय की पूरी तलहटी में थी। आज के खर्चीले, अव्यावहारिक तटबंधों के बदले यह विशाल वन-बंध बाढ़ लाने वाली नदियों को छानने का काम करता था। तब भी बाढ़ आती रही होगी, लेकिन उसकी मारक क्षमता ऐसी नहीं होगी।”
“ढाई हजार साल पहले एक संवाद में बाढ़ का कुछ वर्णन मिलता है। संवाद भगवान बुद्ध और एक ग्वाले के बीच है। ग्वाले के घर में किसी दिन भगवान बुद्ध पहुंचे हैं। काली घटाएं छाई हुई हैं। ग्वाला बुद्ध से कह रहा है कि उसने अपना छप्पर कस लिया है, गाय को मजबूती से खूंटे में बांध दिया है, फसल काट ली है। अब बाढ़ का कोई डर नहीं बचा है। आराम से चाहे जितना पानी बरसे। नदी देवी दर्शन देकर चली जाएगी। इसके बाद भगवान बुद्ध ग्वाले से कह रहे हैं कि मैंने तृष्णा की नावों को खोल दिया है। अब मुझे बाढ़ का कोई डर नहीं है। युगपुरुष साधारण ग्वाले की झोपड़ी में नदी किनारे रात बिताएंगे। उस नदी के किनारे, जिसमें रात को कभी भी बाढ़ आ जाएगी? पर दोनों निश्चिंत हैं। आज क्या ऐसा संवाद बाढ़ से ठीक पहले हो पाएगा?”
सन २००८ में लिखे एक और लेख “बाढ़ के साथ बढ़ने की कला से यह अंश आज के संदर्भ में उतना ही सटीक है जितना आज से बारह साल पहले
“लेकिन धीरे-धीरे कोसी झाड़ी (संरक्षित वन) चले गये, हृद और चौर खत्म हो गये, इनको बचानेवाले सामाजिक नियम और कायदे भी चले गये. नये तरह के कानून और नये तरह का प्रशासन आ गया है जो नदियों को सहेजने की बजाय जोर-जबर्दस्ती की नीति से उन्हें रोकता टोकता है. तटबंधों का इतिहास है कि इनके कारण बाढ़ में कमी नहीं आयी बल्कि नुकसान बढ़ा है. जो बाढ़ से बचानेवाली सालभर की योजना होती थी अब वह केवल शरणार्थी शिविरों के भरोसे पूरी की जाती है. बाढ़ अगले साल भी आयेगी. इसकी तिथियां तय हैं. लेकिन हम जैसे-जैसे विकसित होते जा रहे हैं इन तिथियों को जानबूझकर भुलाये जा रहे हैं. तीन साल पहले उत्तर बिहार में ऐसी ही बाढ़ आयी थी. उस साल भी सरकारी राहत कार्य को पूरा करने और पीड़ितों को खाना बांटने के लिए जो हेलिकाप्टर किराये पर लिये गये उनका खर्च आया 24 करोड़ रूपया और शायद 2 करोड़ की राहत सामग्री उन हेलिकाप्टरों से गिरायी गयी. ज्यादा अच्छा होता कि इस इलाके में हम बीस हजार नावें तैयार रखते और मछुवारों, नाविकों, मल्लाहों को सम्मान के साथ काम पर लगाते. तब शायद दो करोड़ के खर्चे में ही एक एक पाई की मदद उन लोगों तक पहुंच जाती जिसकी उन्हें दरकार थी. पिछली बार ऐसा कुछ नहीं हुआ. इस बार भी ऐसा कुछ नहीं होगा”
“हम बार-बार यह भूल जाते हैं कि उत्तर बिहार का यह इलाका नदियों की गोदी में पला-बढ़ा समाज है इसे बाढ़ भयानक नहीं दिखती।”
विकास का ध्येय और लक्ष्य क्या है ? आख़िर हम विकास करना क्यों चाहते हैं? आज़ादी के तिहत्तर साल बाद भी विकास के नाम पर वोट माँगे जाते हैं। वोट मिलते हैं ।पर सवाल यह है कि हमें विकास क्यों नहीं मिलता ? जैसे ग़रीबी सालों से हटाई जा रही थी वैसे ही लगता है अब विकास की खोज दशकों तक जारी रहेगी।
क्या विकास ऐसा ध्येय है जो अप्राप्य है ? क्योंकि कुछ विकास हुआ नही कि व्यक्तिगत और सामाजिक आकांक्षायें बढ़ जाती है और विकास का एक नया सोपान जन्म ले लेता है । और यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है।
तो क्या आधुनिकता और विकास की बात छोड़ तथाकथित भारतीय आधुनिक परिप्रेक्ष्य मे विशुद्ध गांधीवादी विचारधारा पर चला जाय। कुछ लोग कहेंगे हाँ?
पर क्या यह रास्ता समाज को मान्य होगा ? इन जैसे जटिल प्रश्नों के उत्तर आसान नही है । आदर्शवाद आज की सोच में दाल में छौंक की ही भाँति हो कर रह गया है आदर्शवाद की दाल नहीं गलती ।
क्यों ? क्या अनुपम जी के शब्दों में “ तैरने वाला समाज डूब रहा है” इसलिये?
पुन:श्च: ब्लाग पोस्ट करने के बाद मैंने गाँव पर दीना बाबू को एक मेसेज भेजा, “बाबू आज मैंने यह ब्लाग वृक्षमंदिर पर डाला है । इसे पढ़ कर बताइये मेरा अपने गाँव पर पानी की स्थिति का वर्णन किस हद तक सही है सुधार कर लूँगा”
दीना बाबू ने उत्तर में यह भेजा, “गाँव के पानी की स्थिति का बिलकुल सही चित्रण किया है आप ने कोई परिवर्तन नही पानी का जल स्तर ऐसा हो गया है कि गर्मी के दिनों में हैंड पाइप पानी छोड देता ह दूसरी तरफ बाढ़ नियति है कभी अत्यधिक बारिश से कभी पहाड़ के बारिश का असर नेपाल के पानी छोडने से बाढ़ अपना तांडव रूप दिखाती रहती है लोग बाग अपना घर बार छोड़कर सडक के किनारे, बागीचे में अपने बाल बच्चों और मवेशियों के साथ डेरा डाल देते हैं सरकार उन्हे तिरपाल और राशन पताई की वयवस्था अपने सिस्टम के अनुसार करती रहती है सब कुछ वैसा ही चल रहा है ।”🤔
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