
15 और 16 फरवरी, 2020 को राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) के लगभग 150 पूर्व कर्मचारियों के स्नेह मिलन का किया गया आयोजन था ।
सितंबर 2020 में इस आयोजन पर एक ब्लाग प्रकाशित किया गया था। यहाँ क्लिक कर आप उस पेज पर पहुँच सकते हैं
वह दो दिन उत्सव बन गये एनडीडीबी में बिताए गए जीवन और बीते दिनों को सामूहिक रूप से पुन: याद करने के ।
मैं उन डेढ़ सौ लोगों में से से एक था।
फ़रवरी 2020 के उन दो दिनों के दौरान हम सब ने बहुत से संस्मरण और एनेकडोट ( उपाख्यान) साझा किये गये। जो पुरानी एनडीडीबी की संगठनात्मक संस्कृति ( आर्गेनाइजेशनल कल्चर) की विशेषताओं पर प्रकाश डालती हैं ।
विगत जीवन की हास्य विनोद भरी स्नेहिल स्मृतियों के अतिरिक्त, उन संस्मरणों और उपाख्यानों द्वारा पुरानी एनडीडीबी की संगठनात्मक संस्कृति की वह विशेषताएँ जो तब के कर्मचारियों को “अभाव” में भी और “अधिक” काम करने के लिए प्रेरित करती थीं, कार्य संपादन का वह एनडीडीबी छाप “नैतिक मानदंड” जो हममे से बहुतायत के लिये एनडीडीबी छोड़ने के बाद भी जीवन का एक हिस्सा बन गईं …और भी बहुत कुछ उजागर हुआ ।
यह हमारी दूसरी ऐसी बैठक थी ।पहली बैठक 2015 में आयोजित की गई थी।
एक साल बीत गया ….
सन 2020 अजब साल था। जीवन में ऊपर, नीचे, ख़ुशी, ग़म, सफलता, असफलता आदि का दौर तो चला ही करता है पर मेरे विगत जीवन की स्मृतियों में शायद ही कोई ऐसा साल रहा हो जो वैश्विक मानवी त्रासदी देने के मामले कोरोना साल 2020 की बराबरी कर सकता हो । बीमारी, महामारी, लाकडाउन, गृहबंदी, आने जाने पर मिलने जुलने पर रोक ..क्या क्या न किया कोरोना 2020 ने ।
सन 2000 के बाद हर साल कुछ दिन अपने गाँव जा कर बिताता था । कोरोना 2020 में पहली बार ऐसा हुआ कि मै गाँव न जा सका।
फ़रवरी 2020 मे आणंद में आयोजित यह स्नेह मिलन एक अपवाद था। इतने सारे पूर्व सहकर्मियों से इतने सालो बाद मिलना बहुत सुखद अनुभव रहा ।
धन्यवाद “कोरोना श्री 2020” साल का ! आपने कम से कम इस आयोजन में व्यवधान तो न डाला ।
मेरे लिए यह सौभाग्य की बात है कि मुझे दोनों आयोजनों को फेसिलिटेट करने का अवसर मिला ।
आप सब को यह जान कर हर्ष होगा कि आणंद मे नवंबर 2021 के अंतिम सप्ताह में एनडीडीबी के पूर्व कर्मचारियों के तीसरे स्नेह मिलन का आयोजन होगा ।
डा० कुरियन के जन्म शताब्दी वर्ष में होने वाला यह समारोह हम सब के लिये महत्वपूर्ण एवं विशेष होगा ।आयोजन समिति इस संबंध में नियत दिवसों के बारे में जल्द ही सूचित करेगी ।
मुझे आशा है कि नीचे की पिक्चर गैलरी से फरवरी 2020 में आयोजित उस कार्यक्रम की यादें उन लोगों मे फिर से जागृत होंगी जिन्होंने इसमें भाग लिया था और उन लोगों मे भी जो किसी भी कारणवश इस अवसर पर अनुपस्थित थे।
दुर्भाग्यवश इस कार्यक्रम की संपूर्ण विडियोग्राफ़ी उपलब्ध नहीं है। कुछ हिस्से ज़रूर है । पर फ़ोटो काफ़ी संख्या में मिले जो मैंने पिक्चर गैलरी में डाल दिये हैं ।
निहित स्वार्थों, नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों के प्रखर विरोध के बीच हमारी एनडीडीबी के पूर्व कर्मचारियों के द्वारा लिखे गये सामूहिक संघर्ष और सफलता असफलता के बहुत से संस्मरण और एनेकडोटस इस बेब साइट पर उपलब्ध हैं ।
कृपया मेनू पट्टी का अथवा खोज फ़ंक्शन का उपयोग कर उन ब्लागस तक पहुँचें ।
पर यह बेव साइट अभी अपूर्ण है । काम प्रगति पर है ।
आगे आने वाले दिनों में खट्टे, मीठे , गुदगुदाते, हँसाते बीते दिनों की सफलताओं और असफलताओं की याद दिलाते और भी संस्मरण एनेकडोटस लिखे जायेंगे और यहाँ प्रकाशित होंगें !
लाल सुरा की धार लपट सी
कह न देना इसे ज्वाला
फेनिल मदिरा है, मत इसको
कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का
विगत स्मृतियाँ साकी हैं
पीड़ा में आनंद जिसे हो
आए मेरी मधुशाला ।
~ हरिवंश राय बच्चन
बदले लोग
बदले तौर तरीक़े
काम करने के सलीके
बहुत कुछ बदला
पर कुछ रिवाज ना बदले
अब भी पढ़ते हैं
पहले की तरह
गद्दीनशीनों के पियादे
अपने मेहरबाँ की
शान में वैसे ही क़सीदे
~ अज्ञात
कृपया अपने सुझाव, मूल्यांकन, सराहना आदि से संबंधित विचार नीचे के “लीव अ रिप्लाई” वाले बाक्स में लिखें!
शैल बाबू,
आप ने संस्मरणों को अकिंत कर अतीत में जाने का एक सुनहरा अवसर प्रदान किया हैं । फोटो देखकर लगता है कि रेत के थरातल से काफी पानी बह चुका है…. निशां सब कुछ ब्यां कर रहे हैं ।।
धन्यवाद ।।
डा॰ एस सी मल्होत्रा
पत्थर पर लिखे शब्द धुंधले तो ज़रूर होते हैं पर बहुत मुश्किल से मिटते है ।
हा यह बात दीगर है कि यदि कुछ लोग पत्थर को ही तोड़ डाले तो अक्षरों के मिटने में पत्थर का दोष नहीं है।
पत्थर संस्था, उन पर अंकित शब्द संस्था के मूल्य,पानी काल है बहता ही रहता है !
मूल्यों को जीवित रखने के लिये समय समय से बदलती परिस्थितियों को ध्यान में रख के संस्था के पुनर्जीवन का प्रयास आवश्यक है । नहीं तो उन्हीं पत्थरों का प्रयोग कर दूसरा निर्माण किया जाता सकता है और तब उन पत्थरों पर लिखे शब्द अपना मूल अर्थ खो देते हैं ।सवाल है उन मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता का । अगर हम प्रतिबद्ध है तो नये निर्माण में भी वह पुराने मूल्य बरकारार रहेंगे ।
अच्छा सुझाव पर…..
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.बहुत कठिन है डगर पनघट की 🤗
नमस्कार 🙏