अनुभूति – 8

मै कहां हूँ इन सबके बीच कभी कभी, जब बाहर के झंझावात से दूर एकदम अकेले और अपने को समेट बटोर कर बैठता हूं तो आत्म मंथन, आत्म चिंतन, आत्म विग्रह और न जाने किस किस स्टेज से गुजर जाता हूँ। ऐसे ही एक हालात में ख्याल आया एक अजीब सा प्रश्न, क्या मै अन्दर … Continue reading अनुभूति – 8

अनुभूति -7

मिथिलेश कुमार सिन्हा अनुभूति श्रृंखला की अगली कड़ी ज़िन्दगी किसी की मोहताज़ नही होती। हमारी हर कोशिशों के वावज़ूद, हम जितनी कोशिश करते है, हम ही ज़िन्दगी के मोहताज होते चले जाते है। ज़िन्दगी का विवेक, ज़िन्दगी जीने का शऊर, ज़िन्दगी को समझने का सलीका, ज़िन्दगी के समझने से आती है, समझाने से नही। उसके … Continue reading अनुभूति -7

ज़मीर का सफ़र होता है जनाज़े तक

उम्र के किसी पड़ाव परजब अहसास होता हैकिसकी चली हैजो मेरी चलेगी तब समय थम जाता हैबोलता नहींअनकहे संवादबिनकहे होते हैं ज़मीर से निकलीअनुभूतियाँनि:शब्द शब्दों में ढलजनाज़े तक साथ रहती हैं

अनुभूति-6

किसकी चली है जो मेरी चलेगी ! आज अनायास ही एक बृद्ध महिला मिल गई। पहले न कभी देखा, मिलने की बात तो बहुत दूर। बस गुजर रहा था, और सामने खड़ी दिख गई। बिलकुल सफेद बाल। एक भी दांत नही। पोपला चेहरा। बस देखते ही बोलने लगीं.. मै हरिद्वार मे जहाँ रहता हूं, उसके … Continue reading अनुभूति-6

अंतर्नाद

गिरीश चंद्र यादवआइडियल पब्लिक स्कूलभटवली बाज़ार, गोरखपुर अंतर्नाद अचानक देख कर “ उन्हें”  उठे जो शब्द  अनजान अज्ञात हर्ष मिश्रित  पीड़ा और भय  से बाहर आ न सके  किंचित् कंठ में ही हो अवरुद्ध घुट कर मिट गये होंगे  रह रहे होंगे वहीं  कहीं  ऐसा सोचता था “मैं” बीत गईं सदियाँ  लिखे गये इतिहास  संस्कृति  सभ्यतायें  जन्मी कितनी बार-बार  फिर भी तपन  हुई कहाँ कम जबकि ऐसा नहीं कि  कोई बरसात  बरसी न हो  सोचता था  “मैं” कि पथिक  क्या स्वयं ही  पथ खोज लेता  ?  अचानक  “वे शब्द”  आँखों से बाहर आ गये!  न जाने  कब कैसे ! 

मुक्ति और मुक्त हो जाना

मिथिलेश कुमार सिन्हा कभी अकेले मे बैठ कर सोचा कि आप मुक्ति चाहते हैं, या मुक्त होना चाहते हैं। बहुत कम लोग ही ऐसा पागलपन करेंगे। मुक्ति पाने की लालसा और कोशिश हम सब करते है, मुक्त कितने हो पाते हैं। मुक्त होना नही पड़ता है, मुक्त हो जाते हैं। मुक्त होना ज़िंदगी को जी … Continue reading मुक्ति और मुक्त हो जाना

अनुभूति – 5

मिथिलेश कुमार सिन्हा भला हो इक्कीसवीं सदी का । डाकिया आया, तार वाला आया या पड़ोस में या खुद के घर पर फ़ोन आया वाला जमाना लद गया । अब तो यार, दोस्त, परिवार के लोगों से फ़ोन,इमेल, व्हाटसएप आदि से हम चाहे कहाँ भी हो गाहे-बगाहे ज़रूरत, बे ज़रूरत संपर्क बना रहता है।  भाई “एम … Continue reading अनुभूति – 5

अनुभूति – 4

मिथिलेश कुमार सिन्हा भला हो इक्कीसवीं सदी का । डाकिया आया, तार वाला आया या पड़ोस में या खुद के घर पर फ़ोन आया वाला जमाना लद गया । अब तो यार, दोस्त, परिवार के लोगों से फ़ोन,इमेल, व्हाटसएप आदि से हम चाहे कहाँ भी हो गाहे-बगाहे ज़रूरत, बे ज़रूरत संपर्क बना रहता है।  भाई “एम … Continue reading अनुभूति – 4