
परिचय, पहचान, वाकिफियत, मै जानता हूँ
अच्छी तरह पहचानता हूं,
सब बेकार की बाते है।
इन सब बातों की परिभाषा क्या होती है, नही जानता।
जब कभी हम दो तथाकथित परिचित बड़े दिनो के अंतराल पर मिलते है और दूसरे “तथाकथित” परिचितों की चर्चा होती है तब प्रायः हम यही कहते हैं कि हम फलां, फलां को पहचानते हैं ।
बड़ी विचित्र बात है।
ज़रा शान्त भाव से सोचिए।
हम अपने आप को सही तरीके से नही पहचान पाए है और दूसरों को पहचानने का दावा करने लगते है ।
विवेकानन्द की एक घटना याद आती है।
तब वे नरेन्द्र थे।
रामकृष्ण परमहंह के द्वार पर गये, दरवाजा खटखटाया। अन्दर से आवाज आई “कौन”? ” नरेन्द्र ने जवाब दिया था “ताई तो आमी जानते चाई “
वही तो मै जानना चाहता हूँ ।
रामकृष्ण ने उन्हें अपना शिष्य बना लिया।
और नरेन्द्र ने जिस दिन अपने को जान लिया, विवेकान्द बन गये।
और हम अपने से लेकर पराए सब को पहचानने का दावा करते हैं ।
अजीब है न?
लेकिन है व्यवहारिक सच।
गुस्ताखी माफ़ हुज़ूर मानना या न मानना अपने ऊपर !
कुछ शेर पहचान पर साभार रेख्ता से
अपनी पहचान भीड़ में खो कर
ख़ुद को कमरों में ढूँडते हैं लोग
~शीन साफ़ निज़ाम
“इन्सान के इलावा दूसरे जानदारों में भी नाम रखने का रिवाज क्यों नहीं?”
“दूसरे जानदारों को डर है कि नामों से पहचान में धोका हो जाता है।”
“धोका हो जाता है?”
“हाँ, हमारी पहचान नाम की मुहताज है और उनकी पहचान, किरदार की।” ~ जोगिंदर पाल
पहचान ज़िंदगी की समझ कर मैं चुप रहा
अपने ही फेंकते रहे पत्थर मैं चुप रहा ~ असरार अकबराबादी
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