उम्र की इतनी लम्बी चौड़ी चादर पर जब ज़िन्दगी करवट लेती है, तो हर गलियारे, नुक्कड़, हाइवे, ब्रौडवे, क्रौसरोड पर गुजारे या रुके हुये पल, चेहरे, यादे, और पता नही क्या क्या हरकतें अंगड़ाइयां लेने लगती हैं।
कुछ मचलती है, कुछ इठलाती है, कुछ नोक झोंक करती है, कुछ मुंह चिढ़ाती है, कुछ बस कुरेद कर चली जाती हैं।
कितना सीखा, कितना किसी ने सिखाया, यह गणित समझ में ही नहीं आया।
मेरे जैसे शायद और भी होंगे, नही जानता।
इन सभी उपलब्थियों के वावज़ूद कुछ सवाल अभी भी मुंह बाए सामने खड़े रहते है। कुछ उत्तर नही मिल पाया।
पता नही मिलेगा भी या नहीं।
एक बेचैनी और एक सुकून का कौकटेल लिए अपने को टटोलता हूँ।
आज, न जाने क्यों, ऐसा लगा कि अपनों के बीच इस सवाल को रखूं।
शायद कोइ मरहम मिले।
सवाल है, खुशी की परिभाषा क्या होती है ?
क्या संतो, आम आदमी, सीरियल क्राइम कमीटर, सबों की परिभाषा एक होती है या हो सकती है?