अनुभूति-6

किसकी चली है जो मेरी चलेगी !

मिथिलेश कुमार सिन्हा
मिथिलेश कुमार सिन्हा

भला हो इक्कीसवीं सदी का । डाकिया आया, तार वाला आया या पड़ोस में या खुद के घर पर फ़ोन आया वाला जमाना लद गया । अब तो यार, दोस्त, परिवार के लोगों से फ़ोन,इमेल, व्हाटसएप आदि से हम चाहे कहाँ भी हो गाहे-बगाहे ज़रूरत, बे ज़रूरत संपर्क बना रहता है।  

भाई “एम के” और मेरे साथ भी ऐसा ही है । जब मैं सन् २००० में आणंद छोड़ गुड़गाँव का रहेवासी बना “एम के” आणंद में ही थे। फ़ोन पर संपर्क हो जाता था। कोरोना काल २०२० में एक फ़ोन वार्ता से पता चला कि वह अब हरिद्वार में गंगा तट पर निवास करते हैं। मै केनेडा आ गया था। मैंने एक दिन “एम के” की हिंदी में लिखी एक पोस्ट “लिंक्डइन” पर पढ़ी ।मन को छू गई। पढ़ तो मैं रहा था पर लगता था जैसे उनका लिखा मुझसे बतिया रहा हो।वहीं से शुरू हुई बतकही के फलस्वरूप और उनकी सहमति से इस लेख शृंखला का प्रकाशन संभव हो सका है।

आज अनायास ही एक बृद्ध महिला मिल गई। पहले न कभी देखा, मिलने की बात तो बहुत दूर। बस गुजर रहा था, और सामने खड़ी दिख गई। बिलकुल सफेद बाल। एक भी दांत नही। पोपला चेहरा। बस देखते ही बोलने लगीं..


मै हरिद्वार मे जहाँ रहता हूं, उसके ठीक सामने एक दूसरा धर्मशाला है, उसी से वे बाहर निकल कर आई थी।

कहने लगी “एक समय था, ये सारे धर्मशाले और आश्रमों मे मैं काम कर चुकी हूं, किसके काम नही आई। कोई एहसान नही किया। लेकिन आज कोई पहचानता भी नही। एक प्रसाद देने की बात तो दूर “।

 उन बृद्धा का फोटो, बस याद के लिए !


मैने उम्र पूछी। बताया “यही कोई पचासी या उससे एक दो साल ज्यादा”

मैने कहा , आप मेरे से एक डेढ़ साल बड़ी है, फिर भी आप ऐसा क्यों सोचती हैं?

बोली “पता नही कयो आज मेरे मुह से निकल गया। सच मानिये मुझे किसी से कुछ नही कहना, शिकायत तो बहुत दूर की बात। भगवान ने दोनो हाथ पैर ठीक दिए और अभी तक रक्खा है  इस से ज्यादा और क्या चाहिए। किसी के मोहताज तो नही हूं। किसी ने दिया, उसकी मर्जी, नही दिया उसका फैसला। दुनिया मेरी मर्जी से तो नही चलेगी न। किसकी चली है जो मेरी चलेगी।”

हाथ ऊपर उठा कर बोली, “जिसका चलता आया है, उसी का चलेगा, और किसी का नही! “ और उस पोपले मुह से हंसते हुए चल दी।

मानो इस दुनिया पर और दुनियादारी पर अपना  मुहर लगा कर आखरी फैसला सुना दिया हो। 

ज़िन्दगी हकीकत में निहायत हसीन होती है। समझने और जीने का सलीका आना चाहिए। और यह सलीका न किसी स्कूल, कालेज, या युनिवर्सिटी मे सिखाया जा सकता है, न ही किसी माल मे या आनलाईन किसी भी कीमत पर खरीदा या पाया जा सकता है। 

अन्दर की बात है, ज़मीर से निकली है ज़नाज़े तक जाती है।

कभी क़रीब से देखिए। आनन्द आएगा।।


Loading