अनुभूति -7


मिथिलेश कुमार सिन्हा
मिथिलेश कुमार सिन्हा

ज़िन्दगी किसी की मोहताज़ नही होती। हमारी हर कोशिशों के वावज़ूद, हम जितनी कोशिश करते है, हम ही ज़िन्दगी के मोहताज होते चले जाते है।


ज़िन्दगी का विवेक, ज़िन्दगी जीने का शऊर, ज़िन्दगी को समझने का सलीका, ज़िन्दगी के समझने से आती है, समझाने से नही। उसके लिये नही चाहिये कोई डिग्री, कोई कॉलेज, कोई युनिवर्सिटी, कोई कागज़, कोई कलम, या कोई दावात
!


जिनका ज़िक्र मै इस पोस्ट मे कर रहा हू, उनका नाम शौकत है। मै उन्हें शौकत मियां या मौलाना कहता हूं और वे मुझे हुज़ूर कहते हैं। 

शौकत भाई कबाड़ी वाले हैं। पिछले पचास साल से कबाड़ का धन्धा करते हैं सुबह अपना रिक्शा लेकर निकलते है और शाम के चार पांच बजे तक जो भी मिलता है ले कर लौट जाते है। हमारे धर्मशाला का कबाड़ भी वही ले जाते हैं। दोपहर के समय इसी धर्मशाला के सामने अपना रिक्शा लगा कर कुछ समय के लिए आराम करते है। 


अक्सर हम मिलते है और कुछ तुकी, कुछ बेतुकी हर सब्जेक्ट पर खुल कर बातें होती है। ऐसे ही एक दो औकेजन पर ज़िन्दगी और ज़िन्दगी के करिश्मों पर बात हुई।

ज़िन्दगी की हकीकत और ज़िन्दगी के करिश्मों की बात इस तथाकथित “अनपढ़”, “कबाड़, भंगार खरीदने, बेचने वाले” आदमी के मुंह से सुन कर हतप्रभ रह गया।

कितनी बड़ी सच्चाई, निखालिस हकीकत बेहिचक, सहज और बेबाक लफ्ज़ो मे बयां कर गये शौक़त भाई !


बोले “हुज़ूर जानते है, मै हर सुबह बिस्तरे से उठ कर और रात को बिस्तरे पर जाने से पहले चार चीज़ें याद करता हूँ। और वे चार चीज़ें है, क़फन, क़व्र, क़यामत और ख़ुदा। कभी न पाँचवीं
चीज़ याद की, न सोचा।

और जब सुबह अपना खाली रिक्शा लेकर निकलता हू तो बस एक ही ख़याल रखता हू, परवरदिगार ने इस दुनिया में भी तो खाली हाथ भेजा था। जो मिलेगा, उसकी ही दुआ होगी। मेरी क्या हस्ती है। उसका हिसाब कभी गलत नही होता।

कभी जब उनका रिक्शा लबालब भरा होता है और मै मज़ाक करता हू, अरे शौकत भाई, आज तो अच्छी खरीदारी हो गई, तो हंस के कहते हैं, देने वाले के पास तो बहुत था  मेरा दामन ही छोटा पड़ गया। उसने भी सोचा होगा कि जितना आसानी से खींच सकता है, उतना ही देना चाहिए। बस बहुत है। अल्लाह का क़रम।

और जिस दिन उनका रिक्शा बिल्कुल खाली होता है और पूछता हूँ, तब भी उसी हंसी के साथ, “आज मेरी इबादत मे कोई कमी रह गयी होगी। आज मै इसी लायक़ था। उसके हिसाब मे कोई गलती होने का सवाल ही पैदा नही होता। कल फिर देगा। 


 हमेशा हंसते रहते हैं शौकत मियां। दिन में तीन बजे, बिना किसी नागा के शौकत भाई और मेरे सामने बैठे मास्टर जी, टेलर मास्टर और सामने के धर्मशाला के संरक्षक तीनो एक साथ बैठ कर चाय पीते है।

पैसा बारी बारी से देना होता है, आज एक तो कल दूसरा, फिर तीसरा और तब आप देखें, ज़िन्दगी और ज़िन्दगी का मज़ा क्या है। उनकी बेबाक हंसी के ठहाके आस पास के पांच सात मकानों तक सुनाई देते है।


कौन कहता है ज़िन्दगी किसी की मोहताज होती है?

ज़िन्दगी जीने का हुनर आना चाहिए।

ज़िन्दगी निहायत ही खूबसूरत और हसीन है, ऊपर वाले की नियामत है। प्रीस्टीन है। पुनीत है। पावन है। पवित्र है। अनमोल है। बेमिसाल है।


बस इसके क़रीब आने का इल्म और हिम्मत होनी चाहिए। हौसला होना चाहिए। 


शौकत भाई के कुछ फोटो अपलोड कर रहा हू।


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