
मै कहां हूँ इन सबके बीच
कभी कभी, जब बाहर के झंझावात से दूर एकदम अकेले और अपने को समेट बटोर कर बैठता हूं तो आत्म मंथन, आत्म चिंतन, आत्म विग्रह और न जाने किस किस स्टेज से गुजर जाता हूँ।
ऐसे ही एक हालात में ख्याल आया एक अजीब सा प्रश्न, क्या मै अन्दर और बाहर से एक यूनिक डिवाइन क्रिएशन, जैसा कि भगवान ने हमें बनाया था या जैसा मै अपने मां के गर्भ से इस दुनिया में आया था, एक पुनीत, प्रिस्टीन कृति, वैसा रह गया हूँ। या मेरे साथ एक सतत, कौन्टिन्यूयस मेटामौर्फोसिस होता रहा। और मै एक बिल्कुल ही म्युटेटेड पर्सनैलिटि रह गया हूँ। क्या मे एक एकाई, युनिट, हूं या एक कोलाज़। जक्सटापोजिनन औफ मल्टिपल क्राउड।
याद कर के देखता हूँ, तो करीब दो से तीन हजार लोग, हादसे, मधुर कटु यादे अपना अपना स्थान बना कर अन्दर बैठे मिलते है कितने चुप चाप निकल या फिसल गए होंगे, पता नही। इन सारे कम्युलेटिव इनडिविज्युलस का सतत योगदान के बाद क्या मेरी इन्डिविज्युलिटी प्रिस्टीन बची है। डाउटफुल।
महाभारत और रामायण संपूर्ण रूप से तो नही पढ़ा, लेकिन इनके पात्रों के बारे में, कुछ साहित्य मे पढ़ा। जो मेरी समझ में आया उसकेअनुसार ये सारे के सारे संख्या, नाउन, से ज्यादा विशेषण है। ऐडजेक्टिव। और इन सब का कोई न कोई अंश हमारे अन्दर विराजमान है, चाहे नैनो से नैनो मात्रा में। भीष्म, कृष्ण युधिष्ठिर, दुर्योधन, राम, सीता, विश्वामित्र, जनक, कुन्ती, गांधारी, कौशल्या, कैकेयी, उर्मिला श्रुतकीर्ति, रावण, मंदोदरी, तारा, बाली, विभीषण, सब अपने अपने अंश के दावेदार बने बैठे हैं।
सिर्फ पुरातन की बात नहीं। हमारे बचपन से लेकर आज तक वे सारे जाने अनजाने लोग भी अपना घरौंदा बना करअपना दावा ठोंक रहे हैं। तो फिर मै कहां हूं इन सब के बीच?
केवल एक सान्त्वना बचाए रखती है। और वह यह है कि मै ,और सिर्फ मै इस हुजूम मे शामिल नही हूं। हम सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे है।नो एक्शेप्शन।
एक रिक्येस्ट। अनुरोध, विनय। नम्र विनती। समय निकाल कर अन्दर झांकने की की कोशिश कीजियेगा। अपनी वूटेदार ज़िंदगी के कालीन पर सो कर इतने सारे लोगों के योगदान से बनाए गये निहायत ही हसीन और खुशबूदार चादर ओढ़ कर रंगीन सपने देखने का नाम ही असली ज़िन्दगी है।
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