हरिद्वार मे जहां मै रहता हू , वह इलाका अभी भी पुराने जमाने मुहल्ले की याद दिलाती है। आधुनिक मकान और होटल तो हैं,सकरी गलियां भी है। छोटी छोटी किराना की दुकानें हैं ।लोग एक दूसरे को पहले नाम से या फलां का बेटा, फलां गली के तीसरे मकान के फलां का भतीजा है के स्तर पर पहचानते है या रेफर करते हैं। हांलाकि गली के बाहर मेन रोड पर आधुनिक मार्केट है, शाम के समय सब्जी और फलों के ठेले लगते है और बड़े ही आत्मीयता से खरीद फरोख्त होती है।
बावज़ूद इन सब के सुबह सुबह सब्जी वाले अपना ठेला लेकर, हर गली मे आते है और ऊंची आवाज़ मे अपने ठेले का पूरा मेनू बताता हुआ गुजरते है। हरेक ठेले का एक निर्धारित समय है। हरेक का करीब करीब निश्चित घर और ग्राहक।



ऐसे ही एक सब्जी के ठेले वाले है श्री टेक चंद। कद करीब चार सवा चार फीट। लोग उन्हें टिंगू कहते है। फूल और सब्जी साथ में बेचते हैं। हमारी गली में इनके आने का समय लगभग साढ़े ग्यारह और बारह बजे दिन में है। दूसरे ठेले वालों की तरह कोई आवाज़ नही। हर कोई जानता है टेकचंद इस समय आएँगें ही।
किसी एक ने देखा और सारे मुहल्ले मे ऐलान “टिंगू आ गये, टिंगू आ गये ” और हर घर से लोग कबूतरो की तरह दड़बे से निकल कर उनके ठेले के चारो ओर से अपनी अपनी फ़रमाइश करते है और हमारे टिंगू भाई एक वैरागी की तरह सब को जवाब दे रहे होते है। मैने कभी उनको न उत्तेजित होते देखा, न कभी ऊंची आवाज़ मे बोलते, न झल्लाते।
एक जिज्ञासा हुई जानने की आखिर इस इन्सान में ऐसा क्या है कि लोग इसके लिए इन्तजार करते है जबकि न जाने कितने दूसरे सब्जी वाले ठेला लेकर आते है। दो तीन दिन लगातार देखता रहा और आखिर एक दिन उनसे मिला। निहायत ही खुशमिजाज। हर अन्दाज़ खुशनुमा।
इनके पास वही सब आइटम मिलेगा जो बेमौसम हो और जो दूसरे नहीं रखते। सारी दुनिया नारंगी बेच रही होगी, टिंगू भाई बेल लेकर आएगे, दुनिया बीन्स बेच रही होगी, टिंगू भाई ड्रमस्टिक। दुनिया गेंदे का फूल बेच रही है तो टिंगू भाई गुलाब और मोगरा।रोज़ गेंदे या गुलाब के फूल से पूजा करने वाले भी जो फूल टिंगू जी के पास उस दिन मिलेगा, बेहिचक वही ले जाएगे उस दिन पूजा करने।
कभी कभी ही मैने टिंगू भाई को तराजू बटखरा इस्तेमाल करते देखा। किसी को कोई आपत्ति नही। लोगों से पूछा। सब ने बस एक ही जवाब दिया “इतने वर्षों से इन्ही से ले रहा हूँ, कभी कम नही हुआ, हमेशा ज्यादा ही रहता है ” ।
अब टिंगू भाई का जवाब सुनिए। “साहब, क्या जाता है मेरा, दो पांच ग्राम इधर या उधर। अपनी ज़िन्दगी का हिसाब हम नही कर पाते तो इस साक सव्जी का हिसाब कर के कौन सा फायदा। और कुछ तो नही दे सकता तो कम से कम इन लोगों के चेहरे पर थोड़ी देर के लिए ही सही, खुशी देखता हूँ तो मुझे भी खुशी ही होती है न। इसकी कीमत कौन लगा सकता है या लगा पाएगा। ये तो मेरी खुशनसीबी है कि मेरे पास लोग बिन बुलाए आते हैं, नही तो कौन किसको पूछता है।”
अजीब लगता है न सुन कर कि एक अनपढ़ इन्सान ज़िन्दगी को कितने क़रीब से समझ पाया जब कि हम जैसे सो जिन्हें “ हाइली एजुकेटेड ऐन्ड सिविलाइज्ड” लोग कहा जाता है ज़िन्दगी से भाग कर ही ज़िन्दगी को अपनाने की कोशिश मे सारी ज़िन्दगी बस अपने को और दूसरों को कोसते रहते हैं।
क्या पाया हमने और क्या पाया टिंगूभाई ने। क्या दे पाए हम, जो टिंगू भाई हर रोज दर्जनो इनसानों को दे पाते है और बेहिचक बिना किसी शिकन के दे रहे है ।
ज़िन्दगी का फन्डा हमारे अन्दर ही एक नैचुरल इनग्रिडियन्ट है ।किसी से मांगने या उधार लेने से नही मिलता। जब हम अपनी चीज को नही सम्हाल पाते है तो फिर क्या उपाय है।
ज़रा टटोल कर देखिए। ज़िंदगी निहायत हसीन है। सब के लिए बराबर।
टिंगू भाई के कुछ फोटो अपलोड कर रहा हूँ। देखिए शायद ज़िन्दगी का कुछ हिस्सा दिखाई दे जाए।
- A story in search of an end; “A Bull Made of Steel”
- Shri R N Haldipur. Humility Unlimited
- Random Reminiscences of a forgetful old man 1968-1975 Manthan and Mani Bhuvan-3
- वसुधैव कुटुंबकम; वाक्यांश क्या केवल एक जुमला है ?
- Vasudhaiv Kutumbkam; Is it just a slogan being used these days?