
कुछ तुक की कुछ बेतुकी
अगर आपने पुराने जमाने की रजाई या तोषक बनाते हुए देखा होगा तब बखियों की महत्ता समझ पाएगे।
धुनी हुई रूई, जो बेहद कोमल हो जाती है, उसे एक ग़िलाफ में बन्द कर दिया जाता है। सब जगह बराबर फैल जाए इसलिए, जमीन पर बिछा दिया जाता है और फिर एक मजबूत डंडे से अपनी औकात और शक्ति से पीटा जाता है।
अन्त में एक निहायत ही कोमल हाथ से समतल कर दिया जाता है। और उसकी समरूपता और कोमलता को सम्हाल कर रखने के लिए कशीदाकारी सिलाई की जाती हैं। इसी सिलाई को बखिया कहते है।
बखिया के शुरू के किनारे पर और अन्तिम छोर पर एक जर्बदस्त गांठ लगा दिया जाना है, सभी टांके अपनी अपनी जगह पर रहें। बखिया उघाड़ने के लिए यातो टांकों को काटना पड़ेगा या किसी एक छोर के गांठ को। समय गुजरते गुजरते टांके ढीले पड़ने लगते है और रूई के पतले पतले फाहे बाहर झांकने लगते हैं।
उम्र और ज़िन्दगी का रिश्ता भी कुछ ऐसा ही है। उम्र बढ़ती है, टांके ढीले पड़ते है, यादों के टांके। दोनो ओर के गांठ के बीच मजबूर टांके मचलते है, चरमराते है। यादें बाहर आने को तड़फड़ाती है।
एक बाइस्कोप शुरू हो जाता है। कौन सा टांका ढीला पड़ेगा और कौन सा फाहा किसका चेहरा निकल कर कौन कौन सी यादे ताजा कर जाएगा, कोई ही जानता।
अकेले में बस हर टांका कसमसाता है और बस एक टांस सा दे जाता है।
अकेले में, खास कर के उत्सवो के समय जब अन्दर के गर्द खाए बखिए उघड़ने लगते है, तब एक एक टांका टीस चुटकी, दर्द, मुस्कान, पता नही क्या क्या दे जाता है। दूसरा टांका खुले उसके पहले उम्र का आधा हिसाब सामने आ जाता है।
खो जाते है हम इह नोस्टैल्जिक कौकटेल मे। बचपन से ले कर आज तक का वो पीतल का पीला डब्बा वाला बाईसककोप चलने लगता है, ये लंगड़ी धोवन देख ,ये नो मन की रानी देख ,ये नौ लक्खा हार देख, बरेली का झुमका देख, आगरे का दुपट्टा देख,पसेरी भर की नथनी देख, और देख, और देख रेकार्ड मे सूई फंस जाती है। तभी ठक्क की आवाज आती है, पैसा हजम, खेला खतम।
पता ही नहीं चलता, उम्र चल रही थी, या ज़िन्दगी।
थोड़ी देर के लिए ही सही, दोनो रूके से लगते तो हैं। मृगमरीचिका ही सही।
अपनी तो है।
लेकिन बखिया पड़ा पड़ा उम्र और ज़िन्दगी दोनो पर मुस्कुराता रहता है।
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