
अपने होते कौन है ? कहा जायेगा वह जो हमें अपनायें और जिन्हे हम अपनायें वह हैं अपने।
अपनाना क्या है ? हम उन्हीं को अपनाते हैं जिनसे संबंध बन जाये और बने रहें । चाहे घर परिवार के सदस्य, मित्र, अकिंचन अहेतुक जीवन यात्रा में मिल कर साथ चलने फिर भले ही बिछड़ जाने वाले ।

संबंध क्या है ?
वर्षों पहले कुछ स्वलिखित पंक्तियाँ याद आ गईं।

संबंध
संबंध एक सामाजिक बंधन संबंध एक नियम का वर्तन संबंध एक सांसारिक पहचान घडियाली आँसू झूठी मुस्कान, क्या है सच क्या है झूठ क्या है सुख क्या है दुख क्या है लोभ क्या है त्याग माया क्रंदन मिथ्या बंधन जीवन नित्य स्वयं का वंदन , बँधे स्वयं जो वह है बंधन समय बदलते हो परिवर्तन, ऐसा बंधन कैसा बंधन
जब “अपने” अपने साथ होते है तब हमे उन्हें उतना याद करने की फ़ुरसत भी नही रहती जितना उनके चले जाने के बाद !
हमारे “अपने” भी तो चले जाते हैं एक एक कर । जो चले गये उन्हीं के जैसा एक दिन मेरा भी आयेगा ।
रह जायेंगे हैं यह पेड़, पशु, पक्षी, अन्य जीव जन्तु और उनके वंशज। पर वह भी तो अमर नही हैं !

और इमारतें, घर पगडंडियाँ , सड़कें …इनका क्या होगा । कौन जाने शायद यह बन जायेंगे खंडहर ।या शायद इनमे से कुछ रह जाये हमारी कई पुश्तों तक !
पर जब अपने चले जाते हैं तब उनके “चले” जाने के बाद और विशेषकर जब खुद की उम्र ढलान पर आ चुकी हो तब उन अपनों की याद आती ही रहती है !
यादें उनसे हुई बातचीत, की बतकही की !
आख़िर बतकही के भी तो कई रंगरूप हैं।बतकही क़िस्सो में होती है, क़िस्सों मे होती हैं बातें, और बातों में होती है; बकैती, बतफरोशी, बतफरेबी, बतकुच्चन, बड़बोली, बतबुज्झी…
क्या यह पेड़, पशु, पक्षी, अन्य जीव जन्तु और इमारतें, घर पगडंडियाँ , सड़कें ..भी हमारी बातें सुनते हैं ? हम जो करते हैं , क्या वह उसे देखते हैं? इन मानवी जीवन के मूक दर्शकों के अंतस में कौन जाने हमारे किन क़िस्सों की विरासत पड़ी रहती होगी । काश यह मूक दर्शक बोल पाते । भविष्य में सिर्फ सुनी सुनाई नहीं वरन इन तटस्थ मूक दर्शकों की बातें भी जान पाई पातीं !
इस माह अंतर्जाल की आभासी दुनिया का वृक्षमंदिर दो साल का हो गया। इन कोरोना काल कवलित चौबीस महीनों में मैं भारत में केवल पाँच महीने रह पाया । वास्तविक वृक्षमंदिर पर गये तीस माह से ऊपर हो गये ।
पर जब अंतर्मन में अपने बचपन और अब के क़द की पैमाइश की तो पाया कि ऐसा लगा कि शायद मैं छोटा हो गया हूँ ।
वास्तविक वृक्षमंदिर भी तो केवल फ़ोटो और विडियो में ही देख पाता हूँ ।
पिछले तीस महीने दो किताबों के लेखन, प्रकाशकों की सहायता, वृक्षमंदिर.काम पर काम, पठन पाठन, घर के काम, ज़ूम पर झूम झूम यार दोस्तों के साथ समय समय से बातें कर दिन गुजरे हैं। आसपास की कुछ जगहों की यात्राओं पर भी गया।
बचपन में गाँव में जब था तब सब कुछ बहुत बड़ा लगता था। गांव के तालाब, हमारे खेत खलिहान, दो खंड वाला पिपरेतर के बाबू लोगों का मकान सब बहुत बडे लगते थे। तब मैं चार पाँच साल का था । गाँव के सीवान के भीतर ही सब कुछ था। बाहर की दुनिया देखी ही न थी ।
अब मैं सतहत्तर साल का हो गया । दुनिया देखी पर पूरी नहीं । पूरी दुनिया कोई नहीं देख सकता । फिर एक दिन मेरा गाँव मुझे दुनिया की बनिस्बत बहुत छोटा लगने लगा। शायद मेरा क़द बढ़ गया।
पर जब अंतर्मन में अपने बचपन और अब के क़द की पैमाइश की तो पाया कि ऐसा लगा कि शायद मैं छोटा हो गया हूँ ।
बचपन में मिली प्रेम वात्सल्य की ऊर्जा भरी उष्मा जो जवानी और अधेडपने के वर्षों में भी मेरी आँखों में मेरा क़द बढ़ाये रखती थी अब बस याद बन कर रह गई है, और मेरा क़द छोटा हो गया है।
आज जब अपने अंदर के अपने से बात हुई तो अंदर से उसने हंस कर कहा “न तुम बड़े हुये न छोटे। जो तब थे वह ही अब भी हो। बस अब तुम्हें अपनी औक़ात का अहसास हो गया है ।
डाक्टर प्रदीप खांडवाला अपनी कविता A matter of height में शायद यही कुछ कहना चाहते होंगें।
ऊंचाई का माजरा अजीब बात है दूकान बंद कर मर जाना, वर्षों से चल रही दुकान पर लगा ताला। पर यह ही तो हुआ मेरे एक दोस्त को, वह अतीत की दुकान को बंद करते हुए मर गया! वह बदकिस्मत था। लेकिन जब हम अतीत के दरवाज़े बंद करते हैं, तब ही तो खुलते हैं दरवाज़े भविष्य के। एक नये जीवन के लिए? मेरे जीवन में भी कुछ ऐसा ही हुआ । समय - समय पर मैंने बहुत कुछ छोड़ दिया है - रिश्ते, यादें, जीने का तरीका, स्थान। हर मौके पर मुझे हर बार लगा कि मैं बड़ा हो गया हूं । पर क्या वास्तव में ऐसा ही हुआ? मुझे याद है कैसे मैं दर्द से लड़खड़ा गया था, जब आसन्न मृत्यु मंडरा रही थी ले जाने मेरी मां को, और जब मै अपने लोगों को छोड़ विदेश जा रहा था, और जब मैंने अपना पेशा बदल दिया था, और जब मैंने एक प्यार को छोड़ दिया। मैं और अधिक चाहता था,अतीत ने हमेशा कम और कम की ही पेशकश की। पर जब मैंने हाल ही मे अपनी ऊंचाई मापी, बरसों बाद अतीत के पन्नों से भरे अपने जीवनवृतांत से, ऐसा क्यों लगा, कि मैं छोटा हो गया हूँ?
- A story in search of an end; “A Bull Made of Steel”
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- वसुधैव कुटुंबकम; वाक्यांश क्या केवल एक जुमला है ?
- Vasudhaiv Kutumbkam; Is it just a slogan being used these days?