बुरा न मानो होली आई और चली गई

<strong>ट्विटर पर अपने परिचय मे “बनारस के बाबा” लिखे हैं</strong><br>
ट्विटर पर अपने परिचय मे “बनारस के बाबा” लिखे हैं

पेशे से रिसर्च मे एक मजदूर हूं।एक केंद्रीय विश्वविद्यालय और दू गो IIT का तमगा लिये आवारा घूमता रहता हूं।यहां पर कहानियां सुनाता हूं कल्पनाओं मे घोल कर” ! पर आज यहां कहानी नही वरन वास्तविक अनुभव लिख मारे हैं।

अरे भाई माफ़ करो हम से पोस्ट करने में देर हो गई ! बनारस के बाबा , घोर कलजुग के जवान आदमी, अरे वही जो ट्विटर पर ट्विटियाते हैं उनसे ही मैने यह लेख बहुत पहले मंगवाया था । पर अस्वस्थ होने के नाते मुझसे वृक्षमंदिर पर इस लेख को चेंप देने में देर हो गई।

वैसे आजकल फ़र्ज़ी पेट पालने के चक्कर में बहुत पढ लिख कर बनारस के बाबा रिसर्च में मज़दूरी करते हैं। धुर सहराती हो गये हैं पर गाँव,गाड़ा, गवईं की बीते दिनों की गम्मज नहीं भूले हैं। अपने गाँव की होली याद कर रहे हैं। आप में से बहुत से लोगों को इसमें से कुछ स्वानुभूत सा लगेगा । भारत से भागे भारतीय होते हुये भी मुझे अपने गाँव की होली की याद आ गई। वह यादें जो सत्तर साल से भी ज़्यादा पुरानी है । पर आज भी लगती है जैसे कल की हों। जिनके साथ वह पल बीते उनमें से बहुत से तो साथ छोड़ कर चले गये जो हैं वह भी बिन बताये चले जा रहे हैं। क्या करें जब आये हैं तो जाना ही पड़ेगा। यही नियति है।

जब तक जीवन है तब तक, दीपावली है, दशहरा है, एकादशी है, होली है, ….उत्सव हैं । जीवन जीना ही उत्सव है ।


ईया (दादी मां) सबको उबटन लगाती थी। और इस उबटन की तैयारी गुझिया की तरह ही होती थी। माई, गोयठे (उपले) के चूल्हे पर दो दिन पहले कड़ाही में खड़ा सरसों भूनती थी और अगले दिन सिलबट्टे पर पीसती थीं, और अगजा के दिन सबको वो उबटन लगाती थी, एकदम रगड़ रगड़ कर और उसके बाद होती थी , मालिश एक दम शुद्ध कड़ुआ तेल की कच्ची घांटी का तेल गाँव के कोल्हू से पेरा कर आया हुआ॥

और यकीन मानिए हम जैसे कलुए भी उस दिन गोरे दिखते थे 🤣🤣।जिसे आप आज के समय में removal of dead skin cells कहते हैं, तब उसको शरीर का मैल कहा जाता था 🤣🤣 और जो शरीर का मैल छूटता था उसको झिल्ली।इसका एक valid point हमारे बाऊजी ने, बताया था तब, जब हम धोती पहने उबटन लगवाते थे।। बोले थे की “बेटा लोग सर्दियों में लोग पहले ऐसे वैसे नहा लेते थे, गर्म पानी नहीं मिलता था ना इतना” खैर बात जो भी हो, ये तो है की साधारण लोग अभी भी सर्दियों में बस नहा लेते हैं‌।और जब सर्दियों से गर्मियां आती थी तो उस मैल को उबटन से मल मल कर छुड़ाया जाता था।और उस मैल को “झिल्ली” बोलकर अगजा में जला देते थें ॥

खैर हमको बचपन में बाउजी के इस बात से कोई लेना देना नहीं था, हमको तो बस अगजा के लिए किसी की खेत पलानी (झोंपड़ी) और किसी के घर से दस बोरा गोयठा चुराने से होता था 🤣🤣।और तो और एक गांव का अगजा एक ही जगह जलता था और भले आप लाख बवाल करें अगजा जलाने के लिए गांव के पुरोहित और मूर्धन्य मान्यवर लोगों की उपस्थिति जरूरी मानी जाती थी, और बड़े बुजुर्ग अगजा की लपट देख अगले साल की मौसम की भविष्यवाणी करते थे।।सनद रहे अगजा तब तक नहीं मान्य माना जाता था जबतक गांव के सारे टोलों से कुछ चुरा कर लड़के ना ले आएं भले वो एक ही उपला क्यों ना हो लेकिन यही सत्य था तब ।। और हमारे समय में पलानी सबसे बड़े जमींदार के खेत से उठाई जाती थी और इसमें उनकी शान होती थी, और उठाने वालों को पुरस्कार भी मिलता था आशिर्वाद के रूप में॥

खैर ये मान्यताएं अब दम तोड़ रही हैं, और शायद विलुप्त हो जाएं और हो भी क्यों नहीं, आखिर हम जैसे पलानी चोर जो कभी अपने खेत की पलानी चुराने के लिए आशीर्वाद पाते थे,आज फर्जी के पेट पालने के चक्कर में, होलिका दहन के नाम पर रंग बरसे जैसे गानों पर भंडैंती देखते हैं।आज के जमाने में हमारे गांव में भी चार पांच कालोनी बन गयी हैं जहां कभी पूरे गांवका एक अगजा जलता था वहां आज चार पांच अगजा जलता है।और हमारे जमाने के होली गाने वाले एक भी नहीं रह गये हैं॥

बस मेरी बिताई और गाई होली अब शायद मेरे गांव में भी नहीं बसती।बस बसती तो एक आवाज जो मेरे दादाजी ने सिखाई थी,कहा था,” बेटा, जिस घर में भउजाई (भाभी) समझ कर दिन में रंग खेलना उसी घर में, सांझ को भउजाई के पैरों पर अबीर रख कर जरूर आशीर्वाद लेना,तरक्की करोगे”॥

खैर हमारी कहानी अनवरत चलती रहेगी शायद, लेकिन आप होली की हुल्लड़ जरूर करिएगा लेकिन शालीनता के साथ, और हां आप आशिर्वाद लेना ना भूलना॥

होली की हुल्लड़ शुभकामनाएं आप सभी को ।आप हमेशा मस्त रहें, व्यस्त रहें, मोटाइल रहें, निरोग रहें यही कामना रहेगी बाबा विश्वनाथ से 🙏🏻🙏🏻॥



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