
लकड़हारा
लकड़हारे की यह पुरानी कहानी तो आपने अवश्य सुनी या पढ़ी होगी। जंगल में गहरी नदी किनारे लकड़ी काटते समय हाथ से फिसल कर उसकी कुल्हाड़ी नदी में जा गिरी। जीवन यापन का एकमात्र साधन खोने से दुःखी लकड़हारा गहन चिंता में डूब कर जब रोने लगा तब उसके सामने जलदेवी प्रकट हुई, उसे पहले सोने, फिर चाँदी की कुल्हाड़ियों का प्रलोभन दिया और अंत में, लकड़हारे की ईमानदारी से प्रसन्न होकर, उसकी लोहे की कुल्हाड़ी के साथ सोने चाँदी की कुल्हाड़ियों का पुरस्कार देकर उसे हमेशा के लिए दरिद्रता से बाहर निकाल दिया। लकड़हारे ने अपना शेष सम्पन्न जीवन, सपरिवार संतोष से जिया।
पर हमारी इस कथा का नायक उस युग का नहीं है भले ही पेशे से वह भी लकड़हारा हो। दरअसल उसने ऊपर की कहानी पढ़ कर ही अपने नए पेशे का चुनाव किया। एक कुल्हाड़ी ख़रीदी और निकल पड़ा जंगल की राह। रास्ते में कुछ परिचित मिले पर उनसे नज़र बचाता हमारा नायक, फटे-पुराने कपड़े -ज़ूते धारण कर, अपने अभियान के सफल होने की कामना लिये , तीर की तरह नदी की ओर बढ़ा जा रहा था। बार बार मन में एक ही प्रबल इच्छा, “काश मेरी कुल्हाड़ी भी नदी में गिर जाये”।
नदी किनारे पहुँचते ही वह उतावला हो गया और कुल्हाड़ी पहुँचा दी सीधी नदी के तल में। तुरन्त बैठ गया नदी के किनारे और रो रो कर, आँखे बंद कर अपना दुखड़ा गाने लगा, “हाय, मैं मर गया, बर्बाद हो गया। मेरी जीविका का एकमात्र साधन, मेरी कुल्हाड़ी नदी में गिर गई। अब मेरा परिवार क्या खाएगा, भूखा मर जायेगा, मेरे मासूम बच्चों को……….” और रोने का नाटक करते, बीच बीच में कनखियों से देख लेता कि ‘जलदेवी’ प्रकट हुई या नहीं।
शाम होने आई, परन्तु जलदेवी ने दर्शन नहीं दिये। आख़िर थक-हार कर घड़ियाली आँसुओं का स्थान असली आँसुओं ने ले लिया। कुछ अँधेरा सा होने लगा। जैसे ही व्यथित मन से वो घर लौटने को हुआ, कानों में एक आवाज़ सुनाई दी, “क्या हुआ? तुम्हें तुम्हारी कुल्हाड़ी नहीं चाहिये?”
हमारे नायक लकड़हारे की साँस जैसे रूक सी गई। उसे अपने कानों पर विश्वास ना हुआ। वह स्तब्ध, ठिठक कर जैसे मूर्ति बन गया हो, उसी स्थान पर ठहर गया। पीछे मुड़ कर देखने का साहस भी नहीं हो रहा था तभी वही आवाज़ पुनः कानों में गूँजी, “नहीं चाहिये कुल्हाड़ी?”
इस बार साहस किया, मुड़ के पीछे देखा और जलदेवी को अपने समक्ष पाया।
जलदेवी ने पूछा, “कैसी थी कुल्हाड़ी तुम्हारी?” लकड़हारे ने सोचा अगर सच कहा तो सोने चाँदी की कुल्हाड़ियाँ नहीं मिलेगी, अतः इशारों से बताया की उसे कुछ भी याद नहीं आ रहा, वो तो ये भी भूल गया कि खुद कौन है।
जलदेवी बोली, “कोई बात नहीं। घबराहट में अक्सर याददाश्त खो जाती है। में तुम्हारी कुल्हाड़ी लाती हूँ।”
हमारे नायक को तुरन्त पुरानी कहानी याद आ गयी। जलदेवी पहले सोने की कुल्हाड़ी लाई। मन तो बहुत ललचाया, पर लकड़हारे ने कह दिया की ये कुल्हाड़ी मेरी नहीं है। जब जलदेवी चाँदी की कुल्हाड़ी लाई, तब भी मन मार कर लकड़हारे ने कहा, “ये कुल्हाड़ी भी मेरी नहीं है।”
जलदेवी अब उसकी असली कुल्हाड़ी ले आई और उसे दे दी। “अब ठीक है ना, अब घर जाओ। दोबारा इसे मत खोना।” ये कह कर जैसे ही वो जल में प्रवेश करने लगी, लकड़हारा दहाड़ मार कर रो पड़ा। जलदेवी को दया आ गयी, बोली, “तनिक रुको”; फिर पानी में डुबकी लगा एक पल में सोने चाँदी की कुल्हाड़ियाँ ले आई और लकड़हारे को देते हुए बोली, “आगे से कभी झूठ मत बोलना और ना ही लालच करना। अगर करोगे तो इन सोने चाँदी की कुल्हाड़ियों से हाथ धो बैठोगे”। साथ ही एक पोटली रुपयों से भरी भी दी। जलदेवी को उनके निर्देशों का पालन करने का वचन दे कर लकड़हारा लगभग दौड़ता हुआ अपने घर पहूँच गया। सोने-चाँदी की कुल्हाड़ियाँ ऊपर ताक पर छुपा दीं, परन्तु रोज़ रात एक बार सोने से पहले देख लेता था कि कुल्हाड़ियाँ सलामत हैं। पोटली से ज़रूरत पड़ने पर कुछ रुपये निकाल घर खर्च चला लेता था। सामान्य रूप से काम पर जाता पर मुश्किल से दो-चार टहनियाँ एकत्र कर लौट आता। काम कम, नाटक अधिक।
“अब तो मैं मालामाल हो गया हूँ, मुझे काम पर जाने की क्या आवश्यकता है”, ऐसा सोच कर उसने काम-धाम से निवृत्ति ले ली। अलबत्ता रोज़ सोने से पहले सोने-चाँदी की कुल्हाड़ियों को अवश्य निहार लेता और प्रसन्न मन से निश्चिंत होकर सो जाता।
जब कुछ माह ऐसे ही गुजर गए। पोटली में रखे रुपए भी क़रीब क़रीब समाप्त होने को आए, तो सोचा क्यों ना चाँदी की कुल्हाड़ी बेच कर गुज़र करूँ। पत्नी की नज़र बचा कर धीरे से कुल्हाड़ी निकाली और एक चादर में लपेट कर बेचने निकल पड़ा।
अभी घर से निकला ही था की पड़ोसी ने पूछ लिया, “क्या लकड़ी काटने जंगल जा रहे हो?”। लकड़हारा बोला, “हाँ”, और जैसे ही वो दो कदम आगे बढ़ा, पड़ोसी ने पूछा, “आज कुल्हाड़ी चादर में क्यों ले जा रहे हो? कोई खास बात है क्या?” “कुल्हाड़ी नहीं, छाता है”। ग़भराहट में लकड़हारा बोल पड़ा। “छाता? चादर में लपेट कर?” पड़ोसी अचरज की मुद्रा बना आगे बढ़ गया।
तभी लकड़हारे को लगा की उसके हाथ में चादर में लिपटी कुल्हाड़ी का वज़न कम हो गया है। वो घबरा कर घर के अंदर भागा, आनन-फ़ानन में चादर खोली और जो देखा, आह जैसे उसकी जान ही निकल गयी- कुल्हाड़ी का आकार घट कर आधा रह गया था। उसने जलदेवी से लाख मिन्नत की कि वो पड़ोसी को तुरन्त जाकर सच बताएगा, पर कुल्हाड़ी आधी की आधी ही रही।
उसने छोटी हो गई कुल्हाड़ी को एक थैले में रखा और फ़ौरन उस बूढ़े सुनार की दूक़ान पर पहुँचा, जिसने एक बार ज़रूरत पड़ने पर उसकी निस्संकोच सहायता की थी। बूढ़ा सुनार, जिसे सारा गाँव आदर से बाबा बुलाता था, अपनी ईमानदारी और सबकी सहायता करने, विशेषकर ग़रीबों की सहायता के लिए जाना जाता था। उसने जब चाँदी की कुल्हाड़ी देखी तो पूछ बैठा, “कहीं कोई गड़ा धन मिल गया है क्या?”। घबराये हुए लकड़हारे ने सारा सच तुरन्त उगल दिया। उसे डर लगा कि चाँदी की कुल्हाड़ी अब आधे से आधी ना हो जाए।
बूढ़ा सुनार बोला, “तो जलदेवी ने तुम्हें पहले ही आगाह किया था की झूठ मत बोलना और लालच भी मत करना। पर तुम तो दोनों पाप कर बैठे। पड़ोसी से झूठ बोला और सारा धन अपने लिये रख लिया। गाँव के दूसरे ग़रीबों के बारे में कुछ नहीं सोचा?”
अब लकड़हारे की आँखे खुल गयीं, उसे अपने ओछेपन का अहसास हुआ, शर्मिंदगी हुई और उसने तुरंत प्रायश्चित करने का मन बनाया। बूढ़े सुनार की सहायता से एक सभा बुला कर सारे गाँव को एकत्रित किया। सारी घटना विस्तार से सच सच सुनाई। सारे गाँव से माफ़ी माँगी, बचे हुए धन की पोटली और सोने की कुल्हाड़ी सभा में लाकर बूढ़े सुनार को सौंप दी।
अचानक चाँदी की कुल्हाड़ी भी अपने मूलरूप में आ गई। चंद महीनों में सारा धन बाबा की अगुआई में सारे गाँव की भलाई की योजनाओं में लगा दिया। गाँव वालों ने लकड़हारे को मुखिया बना कर सारी योजनाओं को कार्यान्वित करने की ज़िम्मेदारी दे दी जिसे उसने बड़ी ईमानदारी से निभाया।
अब लकड़हारा वापस नियमित रूप से काम पर भी जाता था और मुखिया की ज़िम्मेदारी भी निभाता था। उसे ज्ञात हो गया था की आवश्यकता से अधिक संचित धन एक अच्छे भले आदमी को अकर्मण्य बना कर हमेशा के लिये बर्बाद कर सकता है।

- जानकारी की सही समझ: इंटरनेट और तकनीकी जमाने की चुनौती
- The unfinished Blog: Finally Completing the Story of Meeting Rajeev Deshmukh
- A story in search of an end; “A Bull Made of Steel”
- Shri R N Haldipur. Humility Unlimited
- Random Reminiscences of a forgetful old man 1968-1975 Manthan and Mani Bhuvan-3
Leave a Reply