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Stories and Discussions on Human Development, Culture & Tradition | वृक्षमंदिर से कथा, संवाद एवं विमर्श विकास संस्कृति तथा परंपरा पर

हमारी जीजी

<strong>रश्मि कांत नागर </strong>
रश्मि कांत नागर


मेरी माँ को हमने बचपन से इसी नाम से जाना। १९११ में जन्म और २००८ में देवलोक के बीच की भूलोक की उनकी यात्रा ने संघर्ष ही अधिक देखे। ईश्वर में असीमित आस्था और अपने गुरु- जिन्हें उसने ८-९ वर्ष की उम्र के बाद कभी नहीं देखा, की कृपा में अटूट विश्वास ने उन्हें आध्यात्मिकता के उस आयाम तक पहुँचाया जो कभी समाप्त ना होने वाली भौतिक जीवन की संघर्ष यात्रा में फँसे किसी भी सामान्य व्यक्ति के लिये असंभव प्रतीत होती है। उनके असामान्य व्यक्तित्व से जुड़ी एक घटना साझा करना चाहता हूँ।

मेरी माँ के जन्म होते ही, मेरे नाना और उनके छोटे भाई ने (जो निस्संतान थे और जिन्होंने मेरी माँ को छोटी उम्र में ही गोद ले लिया था) व्रत लिया की घर में राधा (मेरी माँ का नाम) के नाम से घर के पूजा कक्ष में एक अखण्ड दीपक प्रज्वलित किया जाएगा। १९११ में प्रज्वलित वह दीप कोई ९० वर्ष तक अनवरत जलता रहा।मेरे मामा ने, जो मेरी माँ के इकलौते और १६ वर्ष छोटे भाई थे, जीवन पर्यन्त अपने पिता और चाचा के लिये व्रत का पूरी निष्ठा से सम्मान किया।

मामाजी के निधन के बाद अखण्ड दीप को मेरे ममेरे भाइयों ने कोई ७-८ वर्ष तक प्रज्वलित रखा, परन्तु बाद में इस परम्परा निभाए रखने में समस्या हो गई क्योंकि मेरे दोनों ममेरे भाई नौकरी के रहते बाँसवाड़ा के पैतृक निवास में हमेशा उपस्थित नहीं रह सकते थे। लिहाज़ा एक निर्णय लिया गया की मेरी माँ के नाम से प्रज्वलित दीप, जिसे में अब “राधादीप” से सम्बोधित करूँगा, का स्थानीय अम्बा माता के मन्दिर के अखण्ड दीप में विलय कर दिया जाये।

मन्दिर के पुजारी ने इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया, इस पुण्य कार्य की तिथि निश्चित हुई, और पुजारी के आग्रहपूर्ण निमन्त्रण को स्वीकार कर जीजी ने, अस्वस्थ और क्षीण अवस्था के रहते हुए भी, कोई चार घण्टे की सड़क यात्रा कर इस समारोह में उपस्थिति देने का वचन दे दिया। उसे आभास था की उसकी ये यात्रा उसकी जन्मस्थली की अन्तिम यात्रा होगी। मन्दिर के पुजारी ने जीजी के विश्राम की उत्तम और पूर्ण व्यवस्था मन्दिर के प्रांगण में पीछे स्थित अपने निजी कक्ष में कर दी।

निश्चित दिन जीजी के बाँसवाड़ा पहुँचने और थोड़े विश्राम के बाद समारोह आरम्भ हुआ। जब “राधादीप” को मन्दिर के अखण्ड दीप में विलय करने का समय आया, तो पुजारी ने समारोह में उपस्थित सभी भक्तों को कहा कि “राधादीप” मन्दिर के अखण्ड दीप से कोई बीस वर्ष पहले प्रज्वलित हुआ था, विधान की मर्यादा के अनुसार, (उम्र में) छोटे दीप का विलय बड़े दीप (“राधादीप”) में होगा।

मेरे दोनों भाई-भाभी और सभी उपस्थित दर्शनार्थी अवाक् से रह गये। किसी को भी इस विधान का कोई ज्ञान नहीं था। ख़ैर, समारोह सम्पन्न हुआ, जीजी बहुत थकी हुई थी सो विश्राम के लिये कक्ष में लौट गयी। कोई आधे घण्टे के विश्राम के बाद, जब वापस उदयपुर लौटने का समय हुआ, तो पुजारी ने बताया की कुछ उपस्थित लोग जीजी के “दर्शन” करने को इच्छुक है।

मना करना उचित नहीं था अतः लोग कक्ष में आने लगे। प्रारंभ में लगता था की आधे-पौने घण्टे में “दर्शन” की प्रक्रिया समाप्त हो जाएगी परन्तु ऐसा नहीं हुआ। क़रीब दो घण्टे गुजरने के बाद, मेरे बड़े भाई ने पुजारी से पूछा, “ये इतने लोग कहाँ से आ रहे हैं? समारोह में उपस्थित लोग तो लगभग निकल चुके हैं।”

पुजारी का उत्तर और भी चौंकाने वाला था। वह बोला, “अम्बे माँ की प्रतिमा के दर्शन तो नित्य होते हैं। आज जब माँ स्वयं साक्षात सशरीर मन्दिर में उपस्थित हों, तो मैं भला कैसे किसी को उनके दर्शन का लाभ लेने से वंचित कर सकता हूँ। मैंने किसी को बुलाया नहीं है, लोग स्वप्रेरित हो कर आ रहे हैं। कई तो अपने नवजात शिशुओं को लेकर आ रहे हैं”।

दर्शन के अभिलाषियों का कारवाँ कोई आठ घण्टे चला।

उस दिन मुझे पता चला कि मेरा सबसे बड़ा सौभाग्य “जीजी” का पुत्र होना है।

जीजी से बचपन में सुनी एक कहानी पढने के लिये इस लिंक को दबायें


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3 responses to “हमारी जीजी”

  1. Dr SC Malhotra Avatar
    Dr SC Malhotra

    अक्सर मां या तो बचपन में या फिर बुढापा करीब आने पे बहुत याद आती हैं, ऐसा क्यूँ ????????

  2. Neela Avatar
    Neela

    Maa comes to our lives in many forms. We just have to recognize her.

  3. Suresh Darji Avatar
    Suresh Darji

    Nagar Saheb ne aaj mujhe rula diya.

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