
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।
पूर्ण है वह पूर्ण है यह, उदित होता है पूर्ण से पूर्ण ही पूर्ण से पूर्ण को निकालने के बाद शेष रहता है पूर्ण ही ।
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्. तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विध्दनम्..1..
जो भी है इस जग में गतिहीन या गतिमान, बसा है इन सब में सर्वव्यापी भगवान. सुख भोगो कर के इन सब का त्याग, मत करो पराये धन से अनुराग..।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः. एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे..2..
कर्म करते हुये इस भांति तुम , रखो शत वर्ष जीने की इच्छा. मार्ग तुम्हारे लिये अन्यथा नहीं कोई , इस पथ पर नर कर्मलिप्त नहीं होता..
असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः.तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः..इस 3..
अन्धकार से ढके वे लोक , नहीं पहुंचती वहां सूर्य की किरणें.मरके वहां जाते हैं जन मार दिया अपनी आत्मा को जिनने..
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत्.तध्दावतोऽन्यनत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति..4..
स्थायी है किन्तु मन से भी तीव्र देव नहीं पहुंचे इस तक यह गया उनके पूर्व. स्थिर यह जाता है दौडने वालों के आगेवायु करवाता है सभी कर्म इस में स्थित होके..
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके.तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः..5..
गतिशील है यह और स्थिर भी दूर है और पास में भी.यही है इस सब के अन्दर और यही है इस सब के बाहर..
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानु पश्यति.सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते.. 6..
है देखता है जो सभी जीवों को जो स्वयं में स्थित.और सभी जीवों में स्वयं को होता है वह द्वेष रहित..
यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः.तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः..7..
होगये हैं सभी प्राणी जिसके लिये आत्मस्वरूप. क्या शोक क्या मोह उसके लिये देखता है जो सर्वत्र एक रूप..
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुध्दमपाप विध्दम्.
कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यःसमाभ्यः8..
पहुंचता है वह उस दीप्त, अकाय अनाहत के पास
है जो स्नायु रहित, निष्पाप और शुध्द.
कवि, मनीषी, निष्पाप और स्वयम्भू
कर रहा है अनन्त काल से सब की इच्छायें पूर्ण..
अन्धं तमः प्रविशन्ति ये विद्यामुपासते.ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः..9..
गहन अन्धकार में जाते हैंअविद्या के उपासक. और भी गहन अन्धकार में जाते हैं विद्या के उपासक..
अन्यदेवाहुर्विद्ययाऽन्यदाहुरविद्यया. इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे.. 10..
भिन्न है वह विद्या और अविद्या दोनों से.सुना और समझा है यह हमने बुध्दिमानों से..
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह. अविद्यया मृत्युं तर्त्वां विद्ययाऽमृतमश्नुते..11..
जानता है जो विद्या और अविद्या दोनों को साथ साथ.पार करके मृत्यु को अविद्या से, विद्या से करता अमरत्व को प्राप्त..
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसंभूतिमुपासते. ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्यां रताः.. 12..
गहन अन्धकार में जाते हैं व्यक्त के उपासक. उससे भी गहन अन्धकार में जाते हैं अव्यक्त के उपासक..
अन्यदेवाहुः संभवादन्यदाहुरसंभवात्. इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचछरे.. 13..
भिन्न है वह व्यक्त और अव्यक्त दोनों से. सुना और समझा है यह हमने बुध्दिमानों से..
संभूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह. विनाशेन मृत्युं तीत्व्रा संभूत्यामृतमश्नुते.. 14..
जानता है जो अस्तित्व और अनस्तित्व को साथ साथ. पार करके मृत्यु को अनस्तित्व से अस्तित्व से करता अमरत्व को प्राप्त..
हिरण्मयेन पपात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्. तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये.. 15..
स्वर्णपात्र से ढका है सत्य का मुख । अनावृत करो पूषन मुझ सत्यधर्मा के हेतु।
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्यव्यूहश्मीन्समूह. तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरूषः सोऽहमस्मि..16..
हे पूषन, एकाकी ॠषि, नियन्ता, सूर्य, प्रजापति के पुत्र खींच लो अपना प्रकाश, फ़ैलाओ अपनी किरणें. देखता हूं तुम्हारा कल्याणकारी रूप मैं ही हूं वह व्यक्ति खडा है जो सुदूर में..
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्. ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर.. 17..
प्रविष्ट हों प्राण जगत्प्राण में भस्म हो जाये यह शरीर.याद करो मन अपने पूर्वकृत कर्म याद करो मन अपने पूर्वकृत कर्म..
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्. युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्टां ते नमउक्तिं विधेम.. 18..
अग्नि तुम ले चलो हमें समृध्दि के सुपथ पर ज्ञात हैं सभी पथ तुम विद्वान को. करता हूं तुम्हें मैं बार बार नमस्कार नष्ट कर दो मेरे पूर्व पापों को..
पूर्ण है वह पूर्ण है यह उदित होता है पूर्ण से पूर्ण ही.पूर्ण से पूर्ण को निकालने के बाद शेष रहता है पूर्ण ही..
ईशावास्योपनिषद
– लक्ष्मीनारायण गुप्त
July 20, 2000
टिप्पणीः मंत्र 15 से 18 हिन्दुओं के अन्तिम संस्कार पर उच्चारित किये जाते है।