
गीता के अनुसार आत्मा कभी नहीं मरती और इसे काटा, सुखाया, जलाया या गीला नहीं किया जासकता ।
गरूड़ पुराण के अनुसार जीव को उसके कुकर्मों के लिये नरक की भयानक यातनायें दी जाती हैं। गर्मतेल में तला जाता है इत्यादि ।अच्छे कर्मों पर स्वर्ग के सुख मिलते हैं। कुछ को जीवन मरण के चक्र सेमुक्ति भी मिल सकती है है।
अब क्या करें ? या तो गीता ग़लत है अथवा गरूड़ पुराण !
शायद जीव को यातना दी जाती है आत्मा को नहीं पर यदि आत्मा शरीर से अलग हो जाये तो जीव जीवित न रहेगा फिर मरे हुये जीव को यातना दे कर यातना देने वाले को क्या मिलेगा? प्रश्न विचारणीय है ।
आख़िर हर मानवी की सोच और मान्यतायें ही उसे सही लगती है।तो चलिये कुछ देर के लिये ही सही मान लेते हैं न गीता ग़लत न ग्रहण पुराण । पर फिर भी सवाल तो उठता ही है कि सही क्या है ?
हे अर्जुन मैंने तुझे गूढ़ से गूढ़ गुप्त ज्ञान बताया / समझाया ।और उसके बाद जो कुछ मैंने कहा उस पर तू विचार कर , मंथन कर और फिर जो तेरी इच्छा है वैसा कर ।
गीता १८.६३
अब दो रास्ते हैं पहलाः- “जो है सो है” के भाव में इस सही ग़लत की खोज के झंझट में ही न पड़ें।आखिर ज़िंदगी मे का बा ? अरे भाई बहुत कुछ बा ! और भी पहेलियाँ, गुत्थियाँ हैं उलझाने के लिये, सुलझाने के लिये । कोई और समस्या ढूँढ लें और अपने समय का सदुपयोग अथवा दुरुपयोग करें।
दूसरा रास्ता हैः- “जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ” के भाव में धोती कुर्ता किनारे रख, कच्छा सँभाल वाद विवाद के गहरे पानी मे उतर कर गोते लगायें। कुछ न कुछ तो ज़रूर मिलेगा ।
पर किनारे पर बैठे लाल बुझक्कड जब कहेंगे कि ,
“मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना कुंडे कुंडे नवं पयः ।
जातौ जातौ नवाचाराः नवा वाणी मुखे मुखे ।। (वायु पुराण से)
यानि जितने मनुष्य हैं, उतने विचार हैं; एक ही गाँव के अंदर अलग–अलग कुऐं के पानी का स्वादअलग–अलग होता है, एक ही संस्कार के लिए अलग–अलग जातियों में अलग–अलग रिवाज होता हैतथा एक ही घटना का बयान हर व्यक्ति अपने–अपने तरीके से करता है । इसमें आश्चर्य करने या बुरामानने की जरूरत नहीं है ।
अब क्या करें ?
मेरे महरमंड में जो विचार और मान्यताएँ हैं यह ज़रूरी नहीं कि दूसरा वैसा ही सोचता हो। ऐसी समस्याओं से सामना होने पर मेरे गाँव “चतुर बंदुआरी” के छोटकू काका कहा करते थे “ अरे बाबू बहुतै बादरेसन है बायुमंडल मे” !
बहुत खोज के बाद जब लगभग हम निराश हो अपने थाने पवाने लौटने वाले थे अचानक गीता का यह श्लोक (अध्याय 18, श्लोक 63) मिल गया ।
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।18.63।। ( Source )
हे अर्जुन मैंने तुझे गूढ़ से गूढ़ गुप्त ज्ञान बताया / समझाया ।और उसके बाद जो कुछ मैंने कहा उस पर तू विचार कर , मंथन कर और फिर जो तेरी इच्छा है वैसा कर ।
रोब की भाषा अंग्रेज़ी मे रंगरेज़ी करें तो, श्री कृष्ण कह रहे हैं: “I have told you that you should need to know, now think about it, and do as you wish. There is no compulsion.
अब दुनिया मे भगवान, गाड या अल्लाह में विश्वास रखने वाले आस्तिक तो हैं ही । वह भिन्न धर्मावलंबी हो सकते है । पर बहुत से लोग नास्तिक भी हैं।
भारतीय संदर्भ मे नास्तिक जीवन दर्शन चार्वाक दर्शन है।श्री लीलाधर शर्मा पांडेय द्वारा संकलित एवंप्रकाशित ज्ञानगंगोत्री (ओरियंट पेपर मिल्स, अमलाई, म.प्र. पृष्ठ 138) के अनुसार, ( Source )
ऐसी समस्याओं से सामना होने पर मेरे गाँव “चतुर बंदुआरी” के छोटकू काका कहा करते थे “ अरे बाबू बहुतै बादरेसन है बायुमंडल मे” !
“मानव जीवन का सबसे प्राचीन दर्शन (philosophy of life) कदाचित् चार्वाक दर्शन है, जिसे लोकायत या लोकायतिक दर्शन भी कहते हैं । लोकायत का शाब्दिक अर्थ है ‘जो मत लोगों के बीच व्याप्त है, जो विचार जन सामान्य में प्रचलित है ।’
इस जीवन-दर्शन का सार निम्नलिखित कथनों में निहित है:
यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।।त्रयोवेदस्य कर्तारौ भण्डधूर्तनिशाचराः ।
“मनुष्य जब तक जीवित रहे तब तक सुख पूर्वक जिये । ऋण करके भी घी पिये । अर्थात् सुख-भोगके लिए जो भी उपाय करने पड़े उन्हें करे । दूसरों से भी उधार लेकर भौतिक सुख-साधन जुटाने में हिचके नहीं । परलोक, पुनर्जन्म और आत्मा-परमात्मा जैसी बातोंकी परवाह न करे । भला जो शरीर मृत्यु पश्चात् भष्मीभूत हो जाए, यानी जो देह दाह संस्कार में राख हो चुके, उसके पुनर्जन्म का सवाल ही कहां उठता है । जो भी है इस शरीर की सलामती तक ही है और उसके बाद कुछ भी नहीं बचता इस तथ्य को समझ कर सुख भोग करे, उधार लेकर ही सही । तीनों वेदों के रचयिता धूर्त प्रवृत्ति के मसखरी निशाकर रहे हैं, जिन्होंने लोगों को मूर्ख बनाने केलिए आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य जैसी बातों का भ्रम फैलाया है ।
चार्वाक सिद्धांत का कोई ग्रंथ नहीं है, किंतु उसका जिक्र अन्य विविध दर्शनों के प्रतिपादन में मनीषियों ने किया है । उपरिलिखित कथन का मूल स्रोत क्या है इसकी जानकारी अभी मुझे नहीं हैं ।”
तो अगर आप गीता को मानते हैं तब तो जैसा श्री कृष्ण ने कहा विचार करें मंथन करें, फिर “यथाइच्छसि तथा कुरु” के अनुसार आत्मा को अजर अमर माने अथवा न मानें! 😀🙏🏼।
यदि गरुड़ पुराण को मानते हैं तो उसमे दी गई नरक और स्वर्ग की अवधारणाओं को ही सही माने ।ज़्यादा विचार आदि की मशक़्क़त से बच जायेंगें।
यदि या चार्वाक दर्शन को मानते हैं तो पंजाबी में आप की बल्ले बल्ले 😁
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