सहिष्णुता, असहिष्णुता, विज्ञान और सामाजिक विज्ञान

सहिष्णु का विपरीत है असहिष्णु । सहिष्णु वह जिसमें हो सहन करने की क्षमता, जो हो क्षमाशील , जो पीड़ा सहन कर सके आदि ।

वैसे आधुनिक वैश्विक समाज मे अपेक्षित है कि किसी भी कार्य व्यवहार, बातचीत आदि मे असहिष्णुता न हो। यह आदर्श अच्छा तो लगता है पर क्या वास्तव मे ऐसा है ? शायद आप मे से कुछ लोग तो मुझसे सहमत होंगे कि वास्तव मे ऐसा हो नही पाता ।

“वसुधैव कुटुंबकम” की बहुत बात होती है । यदि सारा विश्व एक कुटुंब हो तो असहिष्णुता तो रहेगी ही नही ! पर कुटुंब मे भी भेद होते हैं । सब संपूर्ण रूप से एक जैसे नही होते ।

महोपनिषद के निम्नलिखित श्लोक मे कहा गया है;

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्

(महोपनिषद्, अध्याय ४, श्‍लोक ७१)

उदार चरित वालों के लिये ही यह वसुधा कुटुंब है । हर एक के लिये नही !

असहिष्सणुता, समरसता आदर्श है । समाज मे सब को एक जैसे जीवन यापन के अवसर, व्यवहार, आदि देने दिलाने की आधुनिक होड़ में हम विविधता का आदर कैसे करेंगे। समाज मे सब एक जैसे कब होंगे ?

सामाजिक विज्ञान क्या है?

मेरी अपनी सोच मे तथा कथित “सामाजिक विज्ञान” ( Social Science) और विज्ञान (Science) विरोधाभासी हैं!

हो सकता है आप में से अधिकांश मुझसे सहमत न हों । पर मेरी सोच मे समाज जो व्यक्तियों का समूह है और जिससे सामाजिक शब्द बना है जो अपने गुणधर्म मे विज्ञान जैसे नियमों से नहीं चलता है ।

आइये नोबेल पुरस्कार विजेता और पहले परमाणु बम के बनाने के लिये अमरीकी प्रोजेक्ट मैनहैटन के सहभागी डा॰ रिचर्ड फेनमन की एक वीडियो देखते हैं,

अब देखते सामाजिक विज्ञान पर डा॰ नोएम चोम्सकी के विचार;

मै इन दोनो महानुभावों से अपनी तुलना करने की सोच भी नही सकता पर उन्हीं की तरह मनुष्य तो हूँ, सोच सकता हूं , अपनी सोच है , ज़रूरी नही सब सहमत हों । मै सिर्फ पदार्थ नही हूँ मै मनुष्य हूँ ।सोचने की शक्ति है मुझमें, संवेदनाशील हूँ मै ! रासायनिक पदार्थ हूँ पर सिर्फ पदार्थ नही हूँ मै। मेरे मे कुछ तो और है । मेरी ग़लत या सही सोच पदार्थ की सोच नही मानव की है ।

यदि आप इससे सहमत है तब तो यह तो मानना पड़ेगा कि मेरे जैसे बहुतों से बना समाज वैज्ञानिक अवधारणाओ और नियमों पर नही चलता है ।

समाज विज्ञान विज्ञान नही वरन सिर्फ समाज का अवैज्ञानिक अध्ययन है ।

कही कुछ हुआ किसी ने देखा अध्ययन किया आँकड़े जुटाये थ्योरी बनाई रिसर्च हुआ छपा । ठीक है । पर क्या वही थ्योरी दूसरी सामाजिक स्थिति मे वास्तव मे सही निकलेगी ? नही ! क्यो कि हम मनुष्य है और मनुष्य वैज्ञानिक टाइप नियमों से व्यवहार नही करते । मनमौजी होते हैं।

इसीलिए “समाज विज्ञान”, “विज्ञान” नही वरन समाज का अवैज्ञानिक अध्ययन है ।

क्या इसीलिये “सामाजिक विज्ञान” के लिये आजकल ह्यूमेनिटीज या मानविकी शब्द का भी प्रचलन है !

आप की सहमति, असहमति , आलोचना सबका स्वागत है । नीचे के कमेंट बाक्स का उपयोग करें ।

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