
मेरे मित्र मनीष भारतीय ने अपने फ़ेसबुक पेज पर लिखा “सभी कथित कवियों से माजरत कभी कभी कविताई मुझे मानसिक बीमारी लगती है खासतौर पर जब कोई हर विषय पर चेंप दे”
इस संबंध में मनोज झा जी की राज्यसभा में ओम प्रकाश वाल्मीकि जी की कविता पढ़ना क़ाबिले गौर है।
झा साहब ने कविता पढ़ने के साथ यह घोषणा भी कर दी थी कि ठाकुर शब्द किसी जाति विशेष के लिये नहीं है। पर हुआ वही जो राम रचि राखा!
कुकुरहाव ऐसी चली की ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही। चुनावी मौसम में सब कुछ जायज़ है। वैसे भारत यानि इंडिया यानि हिंदुस्तान यानि आर्यावर्त यानि जंबूद्वीप मने जो चाहो नाम दे दो वाले भू खंड मे नाजायज जायज़ और जायज़ नाजायज बनते देर नहीं लगती।
समय, स्थान, श्रोताओं को ध्यान में रख कर ही कविता पढ़ें तो अच्छा ! खैर मर्ज़ी अपनी अपनी 😀
इस संबंध मुझे श्री दिलीप मंडल के प्रिंट में प्रकाशित उनके अंग्रेज़ी लेख को पढ़ने का मौक़ा मिला। उनके विचार और विश्लेषण संतुलित लगे।
उस लेख की कुछ मुख्य बातें यहाँ कहना चाहूँगा ।
१- ऐसी अर्थपूर्ण कविता जो समाज में व्याप्त शोषण, उत्पीड़न और विषमता की बात उठाती हो, यदि अपने मूल संदर्भ और सेटिंग से वंचित हो जाये तब अनजाने में यह धारणा बन सकती है कि ठाकुर या क्षत्रिय जाति को ही ग्रामीण दबंगई और संबंधित गलतियों के लिए एकल जिम्मेदारी देनी चाहिए।
२- ‘ठाकुर’ शब्द का इस्तेमाल ‘उच्च जाति’ के प्रभुत्व के रूपक के रूप में किया गया है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर से ताल्लुक रखने वाले श्री ओम प्रकाश वाल्मिकी अपनी आत्मकथा “जूठन” में ठाकुरों के बारे में नहीं, बल्कि प्रभावशाली त्यागी लोगों के बारे में बात करते हैं।
३- ठाकुर समुदाय, जो पहले उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में शक्तिशाली था, बहुत से कारणों से, अब न रहा। ठाकुरों का प्रभुत्व विशेष क्षेत्रों में हो सकता है, पर यह पूरे भारत के लिए सत्य नहीं है। उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल में ब्राह्मण, वैद्य और कायस्थ मुख्य जातियां हैं।
४- उत्पीड़न और प्रभुत्व का प्राथमिक स्थान बदल चुका है, खेत, कुआँ और तालाब की जगह कॉर्पोरेट दुनिया, विश्वविद्यालय, मीडिया और न्यायपालिका आ चुके हैं। और अधिकांशत: इन जगहों पर कोई “ठाकुर प्रमुखता” नहीं पाई जाती ।
सवाल है आख़िर झा साहब ने “ठाकुर” शब्द वाली कविता ही क्यों चुनी? क्या यह हिंदी फ़िल्मों में किये गये ठाकुरों के स्टीरियोटाइपकरण का असर तो नही? या ऐसा बिहार की जातीय राजनीति मे खरमंडल डालने का एक प्रयत्न मात्र ही था। जगह ब्राह्मण को दंबंगंई के रूपक में प्रयोग लाये गये किसी आख्यान का भी हवाला दे सकते थे। खैर मर्ज़ी अपनी अपनी 😀
धन्यवाद मनोज झा जी का उनकी बदौलत पहली बार मुझे ओम प्रकाश वाल्मीकि जी की कुछ कविताओं और उनकी आत्मकथा के कुछ अंश पढ़ने का मौक़ा मिला।
बहुत प्रभावी लेखनी है वाल्मीकि जी कि। पर आज कल के एक दूसरे को “आग्रही , दुराग्रही” कहने वाले सामाजिक धड़ों के बीच अर्थपूर्ण संवाद क्या संभव है ? सदियों से वंचित, शोषित, उत्पीड़ित समाज की दबी और कुचली वैयक्तिक और सामूहिक त्रासदी की गाथा उनकी लेखनी बड़े सटीक ढंग से बयान करने में सक्षम है। पर सुनने वाला कौन है।
अब तो कुछ सिरफिरे कहते हैं दलित त्रासदी पर सिर्फ़ वही लिखे जो दलित परिवार मे जन्मा हो ओर यथार्थ मे दलित समाज के सामाजिक शोषण और सामाजिक तिरस्कार को भोगा हो । खैर मर्ज़ी अपनी अपनी 😁।
यहाँ हिंदवी वेब साइट से ली गई वाल्मीकि जी की दो कविताएँ और प्रेम चंद्र जी वर्षों पहले लिखी गई एक कहानी जिसका शीर्षक भी “ठाकुर का कुआँ” था प्रस्तुत हैं । तब से अब कुछ बदला है ?
ठाकुर का कुआँ
चूल्हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का।
भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का।
बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फ़सल ठाकुर की।
कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या?
गाँव?
शहर?
देश?
वे भूखे है
वे भूखे हैं
पर आदमी का मांस नहीं खाते
प्यासे हैं
पर लहू नहीं पीते
नंगे हैं
पर दूसरों को नंगा नहीं करते
उनके सिर पर
छत नहीं है
पर दूसरों के लिए
छत बनाते हैं।
ठाकुर का कुआँ
जोखू ने लोटा मुँह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आई। गंगी से बोला- यह कैसा पानी है? मारे बास के पिया नहीं जाता। गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाए देती है !
गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी। कुआँ दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था। कल वह पानी लाई, तो उसमें बू बिलकुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी ! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी। ज़रुर कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे कहाँ से? ठाकुर के कुएँ पर कौन चढ़ने देगा? दूर से लोग डाँट बताएँगे। साहू का कुआँ गाँव के उस सिरे पर है, परंतु वहाँ भी कौन पानी भरने देगा? कोई तीसरा कुआँ गाँव में है नहीं।
जोखू कई दिन से बीमार है। कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला-अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता। ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूँ।
गंगी ने पानी न दिया। ख़राब पानी से बीमारी बढ़ जाएगी इतना जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी ख़राबी जाती रहती हैं। बोली- यह पानी कैसे पिओगे? न जाने कौन जानवर मरा है। कुएँ से मैं दूसरा पानी लाए देती हूँ।
जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा-पानी कहाँ से लाएँगे?
ठाकुर और साहू के दो कुएँ तो हैं। क्या एक लोटा पानी न भरने देंगे?
‘हाथ-पाँव तुड़वा आएगी और कुछ न होगा। बैठ चुपके से। ब्रह्म-देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेगें, साहूजी एक के पाँच लेंगे। ग़रीबों का दर्द कौन समझता है! हम तो मर भी जाते है, तो कोई दुआर पर झाँकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे?’
इन शब्दों में कड़वा सत्य था। गंगी क्या जवाब देती, किंतु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया।
रात के नौ बजे थे। थके-माँदे मजदूर तो सो चुके थे, ठाकुर के दरवाजे पर दस-पाँच बेफ़िक्रे जमा थे। मैदानी बहादुरी का तो अब न जमाना रहा है, न मौका। कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं। कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक ख़ास मुकदमे में रिश्वत दी और साफ़ निकल गये। कितनी अक्लमंदी से एक मार्के के मुकदमे की नक़ल ले आए। नाजिर और मोहतमिम, सभी कहते थे, नक़ल नहीं मिल सकती। कोई पचास माँगता, कोई सौ। यहाँ बेपैसे-कौड़ी नकल उड़ा दी। काम करने ढंग चाहिए।
इसी समय गंगी कुएँ से पानी लेने पहुँची।
कुप्पी की धुँधली रोशनी कुएँ पर आ रही थी। गंगी जगत की आड़ में बैठी मौके का इंतज़ार करने लगी। इस कुएँ का पानी सारा गाँव पीता है। किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ़ ये बदनसीब नहीं भर सकते।
गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मज़बूरियों पर चोटें करने लगा—हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊँच हैं? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं? यहाँ तो जितने है, एक-से-एक छँटे हैं। चोरी ये करें, जाल-फ़रेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिए की भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया। इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं। काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है। किस-किस बात में हमसे ऊँचे हैं, हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे हैं, हम ऊँचे हैं। कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आँख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं!
कुएँ पर किसी के आने की आहट हुई। गंगी की छाती धक-धक करने लगी। कहीं देख लें तो गजब हो जाए। एक लात भी तो नीचे न पड़े। उसने घड़ा और रस्सी उठा ली और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अंधेरे साये मे जा खड़ी हुई। कब इन लोगों को दया आती है किसी पर ! बेचारे महँगू को इतना मारा कि महीनों लहू थूकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी। इस पर ये लोग ऊँचे बनते हैं?
कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आई थी। इनमें बात हो रही थी।
‘खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ। घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।’
‘हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है।’
‘हाँ, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडियाँ ही तो हैं।’
‘लौडिंयाँ नहीं तो और क्या हो तुम? रोटी-कपड़ा नहीं पातीं? दस-पाँच रुपए भी छीन-झपटकर ले ही लेती हो। और लौडियाँ कैसी होती हैं!’
‘मत लजाओ, दीदी! छिन-भर आराम करने को जी तरसकर रह जाता है। इतना काम किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता! यहाँ काम करते-करते मर जाओ; पर किसी का मुँह ही सीधा नहीं होता।’
दोनों पानी भरकर चली गई, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएँ की जगत के पास आई। बेफ़िक्रे चले गऐ थे। ठाकुर भी दरवाज़ा बंद कर अंदर आँगन में सोने जा रहे थे। गंगी ने क्षणिक सुख की साँस ली। किसी तरह मैदान तो साफ़ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ-बूझकर न गया हो। गंगी दबे पाँव कुएँ की जगत पर चढ़ी, विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ था।
उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला। दायें-बायें चौकन्नी दृष्टि से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सुराख़ कर रहा हो। अगर इस समय वह पकड़ ली गई, तो फिर उसके लिए माफ़ी या रियायत की रत्ती-भर उम्मीद नहीं। अंत मे देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएँ में डाल दिया।
घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता। ज़रा भी आवाज़ न हुई। गंगी ने दो-चार हाथ जल्दी-जल्दी मारे। घड़ा कुएँ के मुँह तक आ पहुँचा। कोई बड़ा शहज़ोर पहलवान भी इतनी तेज़ी से न खींच सकता था।
गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखे कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाज़ा खुल गया। शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा।
गंगी के हाथ से रस्सी छूट गई। रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हिलकोरे की आवाजें सुनाई देती रहीं।
ठाकुर कौन है, कौन है? पुकारते हुए कुएँ की तरफ़ आ रहे थे और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी।
घर पहुँचकर देखा कि जोखू लोटा मुँह से लगाए वही मैला-गंदा पानी पी रहा है।
स्रोत :
- पुस्तक : लमही के प्रेमचंद (पृष्ठ 82)
- संपादक : रतनलाल जोशी ,सोहन शर्मा
- रचनाकार : प्रेमचंद
- प्रकाशन : रतनमणि ग्रंथमाला
- संस्करण : 2008