नागर को अचानक एक पुरानी कविता याद आई

लोग उन्हें याद करें या न करें, उनके बारे मे बातें करें चाहे न करें ।माइक एनडीडीबी की नींव के मज़बूत पत्थर थे। आज भी हैं ।

है तुम्हें किस बात का डर,

रखो विश्वास इंजीनियरिंग पर,

देंगे मीठी ख़ुशबू दूध और पनीर,

पूरा होगा विज्ञान, डेयरियां बन जायेंगीं परफ़्यूमरियां

माइक

डॉ. माइकल हाल्स, एक विदेशी होने के बावजूद, 1965 सितंबर में प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री की प्रेरणा से स्थापित नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड के संस्थापक सदस्य थे। थे तो अंग्रेज, पर यदि खान पान, पहनावा और बोली छोड़ दें तो विचारों में तो “माइक” एक भारतीय से भी अधिक भारतीय थे।

माइक जब भारत में आये तब वह उस टीम का हिस्सा थे जिसने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट अहमदाबाद की नींव डाली । जिसने इस संस्था के शुरुआती वर्षों में ही इसे एक दिशा, विजन, मज़बूत संस्थागत ढाँचा और कार्य संपादन शैली दी जिस के आधार पर यह संस्था आज विश्व स्तर का संस्थान बन चुकी है।

माइक 1968 से 1983 तक एनडीडीबी के लिए एफएओ सलाहकार के रूप में जुड़े और बाद में एनडीडीबी से जुड़े एफएओ विशेषज्ञों के टीम लीडर के रूप में काम किया।माइक डाक्टर कुरियन के अत्यंत नज़दीकी सहयोगियों में से एक थे।

यह ब्लाग नागर द्वारा लिखे RKNagar suddenly recalls a poem का परिवर्धित हिंदी संस्करण है । माइक के बारे में बहुत से और ब्लाग वृक्षमंदिर पर मिल जायेंगें । सर्च फ़ंक्शन मे Mike टाइप कर खोजे जा सकते है

वृक्षमंदिर.काम

इंजीनियरिंग डिविज़न ( Engineering Division) एनडीडीबी की पहली तकनीकी डिवीजन थी, जिसके बाद प्रबंधन और जनशक्ति विकास डिवीजन ( Management and Manpower Development Division) की स्थापना हुई। एक दो लोग Accounts और Administration ग्रुप में थे ।

दूध के उत्पादन, एकत्रीकरण, खरीद, प्रसंस्करण और विपणन के एकीकरण के साथ-साथ दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए इनपुट के विपणन को पेशेवरों द्वारा प्रबंधित और दूध उत्पादकों के स्वामित्व और एक कमान वाले संगठनात्मक ढांचे के तहत लाना होगा। ऐसा संगठनात्मक ढाँचा , जो दूध उत्पादकों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए काम करता हो और उनकी ज़रूरतों के प्रति संवेदनशील हो।

संदेश साफ़ था, अकेले इंजीनियरिंग से दूध पैदा नहीं होगा जिसकी देश को ज़रूरत है!

एनडीडीबी के प्रारंभिक सालों मे ( १९६५-१९६६) मे तो लगभग सारी व्यवस्था अमूल के प्राजेक्ट, अकाउंट और एडमिनिस्ट्रेशन डिवीजन के कर्मचारियों द्वारा सँभाली गई। श्री एन एन ठक्कर एनडीडीबी के पहले अवैतनिक सेक्रेटरी थे । ठक्कर साहब से मेरे अच्छे ताल्लुक़ात रहे और मित्रता तब बनी जब मैंने चेयरमैन आफिस मे काम करना शुरू किया ।डाक्टर एस सी रे पहले सेक्रेटरी थे। मेरे एनडीडीबी में नियुक्ति पत्र पर उन्हीं के हस्ताक्षर हैं। डाक्टर रे मुझे बहुत मानते थे। डाक्टर रे जिन्हें हम सब पीठ पीछे काका कहते थे बडे ग़ुस्सैल थे । बहुतों ने उनकी डाँट खाई पर मुझे उनके कोपभाजन का शिकार होने का सौभाग्य न मिला। वरन स्नेह ही मिला। श्री ए के राय चौधरी डाक्टर रे के बाद दूसरे सेक्रेटरी बने। फिर जी एम झाला साहब और डाक्टर अनेजा । १९८७ में एनडीडीबी के सरकारी संस्था बन जाने के बाद डाक्टर अनेजा और मिस पटेल दोनो प्रबंध संचालक (Managing Director) बने। बहुत समय बीत गया बहुत उथल पुथल हुई ।

अपनी पुरानी कहानी पर चलते हैं। हाँ तो बात कहाँ से शुरू कर मैंने कहाँ पहुँचा दी । आजकल ऐसा बहुत होता है।पुरानी कहानी पर चलने से पहले एक बात याद आ गई। कुछ महीने पहले नागर से बात हो रही थी । पुराने दिनों की बात होने लगी । बात ही बात में नागर उस दिन बड़ी ऊँची बात कह गये। उनके शब्दों को कुछ फेर फ़ार कर और कुछ जोड़ कर लिख रहा हूँ। “एनडीडीबी में हमारा समय नींव डालने का समय था। नींव के पत्थर, ईंटें और गारा सब ज़मीन के अंदर होते हैं। दिखाई नहीं देते। पर होते है । मज़बूती देते हैं ऊपर बने ढाँचे को यदि ढाँचा नींव के अनुरूप हो यदि नींव ढाँचे का भार सहन करने में सक्षम हो”। लोग उन्हें याद करें या न करें, उनके बारे मे बातें करें चाहे न करें ।माइक एनडीडीबी की नींव के मज़बूत पत्थर थे। आज भी हैं ।

सन 1968 में, इंजीनियरिंग डिवीजन में तीन अपरेंटिस इंजीनियर (पीजी गोरे, बीएन भट्ट और वीएस बेहला) और एक डेयरी तकनीशियन (डॉ. बाबू नायर) थे। उसी तरह, 1968 में प्रबंधन और मानव जनशक्ति विकास डिवीजन के सदस्य के रूप में पहला कर्मचारी मै था। पीवी मैथ्यू और डॉ. आर पी अनेजा कुछ महीने बाद शामिल हुए।


इंजीनियरिंग और प्रबंधन और मानव और जनशक्ति विकास डिवीजन दोनों समूहों को समय के साथ विस्तारित किया गया। पहली कर्तव्यशाला एक किराये की दुतल्ला बिल्डिंग मे थी जिसकी बाउंड्री अमूल डेरी से लगती थी। बाद मे अमूल के नवनिर्मित चार मंज़िला प्रशासनिक भवन और फिर एनडीडीबी के नये बनी कैंपस में कर्तव्यालय स्थानांतरित होने तक, और भी बहुत से लोग शामिल हो गए थे। यदि मुझे सही याद हो तो 1970 मे कर्तव्य पालकों की संख्या लगभग 40 थी।

शुरुआत के दिनों में, कर्तव्यालय से अवकाश के बाद चर्चाएं इस बारे में ज़्यादा होती थीं कि कर्तव्यपालक अगले महीने का वेतन कैसे प्राप्त करेंगे। इंजीनियरिंग डिवीजन परियोजनाओं का क्रियान्वयन करता था।गुजरात एग्रो इंडस्ट्रीज कॉर्पोरेशन के लिए सूरत, राजकोट और मेहसाणा में तीन पशुधन संयंत्रों के टर्नकी निष्पादन से कुल खर्च का पांच प्रतिशत टर्न की फ़ीस मिलती थी कमाते थे। प्रत्येक संयंत्र की लागत अनुमानतः लगभग 20 लाख रुपये थी ।

उन दिनों इंजीनियर डिवीजन में काम करने वाले लोग कमाऊ पूत , जबकि हम प्रबंधन और मानव जनशक्ति विकास डिवीजन वाले सर्वेक्षण आदि ही कर रहे थे, या रिपोर्ट लिख रहे थे जिसके कारण हम कमाई उड़ाऊ पूत माने जाते थे।यह 1970 में आपरेशन फ्लड प्राजेक्ट की शुरुआत के पहले की बात है।

यह धारणा 1970 के दशक में कैंपस की शुरुआत में भी बरकरार रही। बाद में धीरे धीरे ख़त्म हो गई।

एनडीडीबी शुरू से ही अपने खर्चों को पूरा करने के लिए अपनी कमाई पर निर्भर रही। डेयरी बोर्ड ने अपनी स्थापना के बाद से ही अपने कभी भी खर्च के लिए १९८७ तक सरकारी वित्त का आश्रय नहीं लिया।

डॉ. वी कुरियन 1965 से 1998 तक एनडीडीबी के अध्यक्ष रहे और उन्होंने कोई पारिश्रमिक नहीं लिया। एनडीडीबी और भारतीय डेयरी निगम के विलय के बाद एनडीडीबी की सभी संपत्तियां भारत सरकार को सौंप दी गईं और 1987 में संसद के एक अधिनियम के तहत एनडीडीबी राष्ट्रीय महत्व की संस्था बन गई।

मेरे मित्र और पुराने दिनों के सहयोगी नागर ने शीर्ष पर पोस्ट की गई कविता को याद किया और मेरे साथ साझा किया।

इसे माइक के कमरे में पिनअप बोर्ड पर लगाया गया था ताकि माइक के कमरे में जाने वाला हर कोई इस पर गौर कर सके और इसके बारे में बात कर सके। उपरोक्त पोस्ट में पृष्ठभूमि चित्र वैसा नहीं है जैसा माइक के कमरे में लगे पोस्टर पर था। अगर मुझे सही याद है, तो पोस्टर रेडियस एडवरटाइजिंग के यूस्टिस फर्नांडीज द्वारा बनाया गया था।

संदेश साफ़ था, अकेले इंजीनियरिंग से दूध पैदा नहीं होगा जिसकी देश को ज़रूरत है!

दूध के उत्पादन, एकत्रीकरण, खरीद, प्रसंस्करण और विपणन के एकीकरण के साथ-साथ दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए इनपुट के विपणन को पेशेवरों द्वारा प्रबंधित और दूध उत्पादकों के स्वामित्व और एक कमान वाले संगठनात्मक ढांचे के तहत लाना होगा। ऐसा संगठनात्मक ढाँचा , जो दूध उत्पादकों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए काम करता हो और उनकी ज़रूरतों के प्रति संवेदनशील हो।

डॉ. कुरियन के समय में दूध उत्पादकों की ज़रूरतें एनडीडीबी के सभी प्रयासों का केंद्र बिंदु बन गईं।आनंद पैटर्न का यही मूल मंत्र था। जिसे एनडीडीबी ने आपरेशन फ्लड 1, 2 और 3 के माध्यम से सारे देश में कार्यान्वित किया।बहुत मेहनत करनी पडी।विरोध हुआ। सहयोग मिला। सफलता मिली। भारत आज दुनिया में सबसे ज़्यादा दूध पैदा करने वाला देश है।

आनंद पैटर्न पद्धति पर बने सभी संस्थान क्या इसके मूल मंत्र के पूर्णतः अनुरूप है ? मेरा उत्तर है नही । काफ़ी हद तक हो सकते हैं पर शत प्रतिशत तो बिलकुल नही । पर यह सही है कि बहुत हद तक आनंद पद्धति या अमूल पद्धति पर काम करने वाले संस्थान इस के दर्शन ( फ़लसफ़ा) को जानते ,मानते हैं और कार्यरूप में कुछ फेर बदल कर आशातीत रूप से लाभान्वित भी हो रहे हैं। आज कल तो सफल प्राइवेट डेयरी कंपनियाँ भी अमूल पद्धति पर ही अपना दूध उत्पादन, एकत्रीकरण और ख़रीद करती हैं । फ़ार्मर प्रोड्यूसर आरगनाइजेशन भी मूलतः इन्ही सिद्धांतों पर चलते हैं ।

इस कविता को मैं भूल गया था । याद दिलाने के लिए नागर को धन्यवाद!

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