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Stories and Discussions on Human Development, Culture & Tradition | वृक्षमंदिर से कथा, संवाद एवं विमर्श विकास संस्कृति तथा परंपरा पर

अनर्गल, आशय, प्रकृति और पाखंड


कहते हैं , “जहां न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि “ । अर्थपूर्ण यानि सीरियस कविता लिखने वाले कवि ने जो जब लिखा होगा उसका अर्थ कवि के मन में क्या रहा होगा यह मेरे जैसे साधारण मानवी के लिये केवल क़यास का विषय है। अपनी समझ को साझा करने का यह प्रयास मेरे ब्लाग “घर रहेंगे हमीं उनमें न रह पायेंगे” पर फ़ेसबुक पर हुई एक टिप्पणी से प्रेरित है।


घर रहेंगे, हमीं उनमें रह न पाएँगे,
समय होगा, हम अचानक बीत जाएँगे।
अनर्गल ज़िंदगी ढोते किसी दिन हम,
एक आशय तक पहुँच सहसा बहुत थक जाएँगे।
मृत्यु होगी खड़ी सम्मुख राह रोके,
हम जगेंगे यह विविधता, स्वप्न, खो के।
और चलते भीड़ में कंधे रगड़ कर हम,
अचानक जा रहे होंगे कहीं सदियों अलग होके।
प्रकृति और पाखंड के ये घने लिपटे,
बँटे, ऐंठे तार—
जिनसे कहीं गहरा, कहीं सच्चा,
मैं समझता—प्यार।
मेरी अमरता की नहीं देंगे ये दुहाई,
छीन लेगा इन्हें हमसे देह-सा संसार।
राख-सी साँझ, बुझे दिन की घिर जाएगी,
वही रोज़ संसृति का अपव्यय दुहराएगी


कुंवर नारायण जी यह कविता शायद १९५९ में लिखी गई थी। मैं तो पाठक हूँ। कुंवर जी फ़ैज़ाबाद के थे और मैं पड़ोस के गोरखपुर का हूँ। पर यह कविता मैंने परसों जब पढ़ी जब मै अठहत्तर साल पार कर चुका था। जी मैं रिटायर आदमी हूँ । घर के कामों के अलावा मेरे ज़िम्मे अब कोई काम नहीं। पढ़ता, लिखता, घर का काम करता, टहलता, सोता और दवाइयाँ खाता, अस्पतालों के चक्कर लगाता मैं अब सीनियर सिटीज़न हूँ।

पता नहीं क्यों अच्छी लगी यह पंक्तियाँ । सोचने पर मजबूर करने को बाध्य करती यह कविता पहली बार पढ़ते ही मन को छू गईं। सब की तरह इसका अर्थ मैं अपने तरीक़े से निकाल रहा हूँ। मनन अब भी जारी है । खैर कोशिश कर रहा हूँ अपनी अब तक की समझ को साझा करने का।

अनर्गल और आशय

“अनर्गल ज़िंदगी ढोते किसी दिन हम,
एक आशय तक पहुँच सहसा बहुत थक जाएँगे”

दोनों पंक्तियों को साथ लें तो मेरी दृष्टि में “अनर्गल” और “आशय” दो शब्द महत्व के है। ध्यान दें और सोचें तो ज़िंदगी “अनर्गल” लगती है पर हम उसका भार ढोते हैं। क्यो? क्या ज़िंदगी का अर्थ या आशय पाने हेतु ? या यूँ ही बस जीते रहने के लिये ?

ज़िंदगी का भार ढोना पूरी तरह समझ में नहीं आता । पर यह तो समझ आता है कि ज़िंदगी कभी प्रिय कभी अप्रिय लगती है।क्या ज़िंदगी का उद्देश्य तो है ज़िंदगी का अर्थ ढूँढना? बहुत दिनों पहले कभी मैंने कहीं पढ़ा भी था “The purpose of life is to find meaning in life”!

“अनर्गल” शब्द का अर्थ है अप्रिय या अवांछनीय। यह शब्द किसी चीज़ को अनुपयुक्त या अच्छा नहीं मानने के लिए प्रयोग किया जाता है। इसका उपयोग किसी कार्य या स्थिति को ठीक नहीं मानने के लिए किया जाता है।

“आशय” का अर्थ है किसी विचार, धारणा, या उद्देश्य का अर्थ या मतलब । दूसरी तरह से कहें तो “आशय” एक व्यक्ति के विचारों, भावनाओं, और इच्छाओं का प्रतिफलन होता है जो उसके कार्यों और व्यवहार में प्रकट होता है। पर मन में एक सवाल उठता है । क्या “आशय” का मतलब यहाँ उद्देश्य या अर्थ से है?

इस दृष्टि से सोचें तो यदि ज़िंदगी का भार ढोते बहुत परिश्रम बाद यदि ज़िंदगी का “आशय” मिल जाता है तो शायद कवि का कहना है कि हम सहसा थकान महसूस करते हैं। पर क्यों ?

बहुत पहले सुनी एक लाइन याद आई।

“ज़िंदगी एक मुसससल सफ़र है मंज़िल पर पहुँचे तो आगे सरक गई”

जब मंज़िल आगे सरक गई तो जीवन यात्रा फिर शुरू होनी ही है। और फिर शुरू होती है एक और यात्रा जीवन का अर्थ या आशय ढूँढने की । चरैवेति चरैवेति …

“वास्तव में एक जगह ठहर जाना ही कलि है।”कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः।उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरंश्चरैवेति।।(ऐतरेय ब्राह्मण 33.3) कहने का आशय है कि सोनेवाले युग का नाम कलि है,जो गहन निंद्रा में सोया हुआ है, वह कलयुग में जी रहा है। अंगड़ाई लेने वाला युग द्वापर है। नींद से पूरी तरह उठकर खड़ा होने वाला त्रेता में है। परंतु चलने वाला सतयुग का वासी है।

वही केवल सतयुग में जी रहा है, जो सदैव चलायमान है, गतिशील है। इसलिए तुम चाहो तो अपने निरंतर प्रयास से कलयुग को भी सतयुग में परिणित कर सकते हो। आवश्यता है तो केवल बिना रुके चलने की! इसीलिए चलते रहो, चलते रहो- चरैवेति! चरैवेति! ( विस्तार से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें )

प्रकृति और पाखंड

प्रकृति और पाखंड के ये घने लिपटे,
बँटे, ऐंठे तार—
जिनसे कहीं गहरा, कहीं सच्चा,
मैं समझता—प्यार।

यहाँ प्रकृति और पाखंड दो शब्द महत्वपूर्ण है।

प्रकृति का सामान्य अर्थ है स्वभाव । एक और अर्थ है वह है शक्ति जो सभी सृष्टि तत्वों की उत्पत्ति, संरक्षण और संहार करती है। प्रकृति एक निर्माण की शक्ति है जो सृष्टि और संरक्षण के लिए समर्पित है, जबकि पाखंड एक धार्मिक या नैतिक भ्रांति, झूठ, या धोखा है। पाखंड व्यक्ति या समुदाय की निष्क्रियता, धोखाधड़ी, या भ्रांतियों का परिणाम भी हो सकता है।

प्रकृति और पुरुष की अवधारणा का वर्णन सांख्य योग मे भी है। पर मेरी समझ से यहाँ उस अवधारणा पर कुछ कहने का भी यत्न नही हुआ है।

यहाँ मेरी समझ से कवि बात कर रहा है प्यार की । प्यार हृदय से उठा भाव है। प्यार स्वभाव है । पर प्यार पाखंड भी है । और तो और प्यार, प्यार और पाखंड ( झूठ, धोखा) दोनों का सम्मिश्रण भी हो सकता है। ऐसा प्यार जो स्वभाव है और पाखंड जो दिखावा है कवि शायद इन्ही को इंगित कर रहा है।

सच्चे और झूठे प्यार के बीच अंतर करना दुष्कर है। यह दोनों प्रकृति ( स्वभाव) और पाखंड दोनों घने लिपटे ,बँटे, ऐंठे है और सच का आभास पाना कठिन है।




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