लेख में प्रसिद्ध समाजशास्त्री डा श्यामाचरण दुबे के निबंध ‘भारतीयता की तलाश’ से एक उद्धरण दिया गया है ।
“भारतीयता की सही समझ की कुछ पूर्व शर्तों की ओर इशारा किया है, जिनमें ‘इतिहास दृष्टि’, ‘परंपरा बोध’, ‘समग्र जीवन-दृष्टि’ और ‘वैज्ञानिक विवेक’ प्रमुख हैं। (समय और संस्कृति, पृ- 44-5)। “
लेखक की राय में श्री कुबेरनाथ के लेखन में यह ‘चतुरानन-दृष्टि’ हर जगह देखने को मिलती है। इस चतुरानन दृष्टि का अभाव ही आज के सामाजिक राजनैतिक विमर्श में कटुता और वैमनस्यता का जनक है।
इस दृष्टि अभाव के कारक तथ्य की ओर इशारा करते श्री मनोज राय आगे कहते हैं “स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद ही देश में एक सांस्कृतिक अराजकता की शुरुआत हो गई थी। हुमायूँ कबीर जैसे लोगों ने उल-जुलूल व्याख्या से इसकी शुरुआत की और नुरूल हसन की छ्त्रछाया में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद ने इसे खाद-पानी दिया। परिणाम यह हुआ कि आज राष्ट्रीय भावनाएँ बड़ी तेजी से अशक्त और निष्प्राण होती जा रही हैं। हम बेझिझक पश्चिम का अनुकरण कर अपनी अस्मिता खोते जा रहे हैं। कल तक यह प्रवृत्ति एक छोटे और प्रभावशाली तबके तक ही सीमित थी पर अब उसका फैलाव बड़ी तेजी से बढ़ता जा रहा है। आज हम सब इस बात से परिचित हैं कि संस्कृति आज की दुनिया में एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में उभर रही है। अपने स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राष्ट्र और संस्थायें इसका खुलकर उपयोग कर रही हैं। यदि हम निष्ठा और प्रतिबद्धता से भारतीयता की तलाश करें, उसे पहचाने और आत्मसात करने की कोशिश करें तो उन पर रोक लग सकती है। पर यह कहने और लिखने में जितना आसान है उतना ही व्यवहार में जटिल भी है।”
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