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Stories and Discussions on Human Development, Culture & Tradition | वृक्षमंदिर से कथा, संवाद एवं विमर्श विकास संस्कृति तथा परंपरा पर

मुक्ति और मुक्त हो जाना

मिथिलेश कुमार सिन्हा
मिथिलेश कुमार सिन्हा

कभी अकेले मे बैठ कर सोचा कि आप मुक्ति चाहते हैं, या मुक्त होना चाहते हैं।

बहुत कम लोग ही ऐसा पागलपन करेंगे। मुक्ति पाने की लालसा और कोशिश हम सब करते है, मुक्त कितने हो पाते हैं। मुक्त होना नही पड़ता है, मुक्त हो जाते हैं। मुक्त होना ज़िंदगी को जी जाना है । मुक्ति, पलायन।

श्वेतांक मुक्ति चाहते थे, चित्रलेखा मुक्त थी।

यशोधरा मुक्त थी और गौतम मुक्ति को तलाशते रहे।


ज़िन्दगी बस जीने का नाम है, इससे भागने का नाम नही। पाना या गंवाना , बस दो ही विकल्प हैं।

अगर आप कभी लूडो खेलते थे या हैं तो आप उसके डाइस से परिचित होगे। किसी भी आगे पीछे फेस के अंको का जोड़ सात ही होगा। लेकिन अगर आप को छ मिला तो एक गंवाएगे और अगर पांच मिला तो दो गंवाएगे। सात कभी नही मिलेगा। या तो मुक्ति पा लो, या मुक्त हो जाईए। मुक्त हो कर मुक्ति तो मिल सकती है, मुक्ति की लालसा मे मुक्त होना सम्भव नहीं।


ज़िन्दगी बहुत सरल और कलकल करती अविरल, पावन धारा है। अवरोध नही चाहती। नैसर्गिक प्रवाह। उत्तंग, उच्छास, उन्माद, आनंद। जी कर देखिए। मुक्त और मुक्ति तो बाद की बात है।

ज़िंदगी जो हम जीते हैं जिंदगी की भी अपनी ज़िंदगी होती है। हम मुक्ति चाहें है या मुक्त होना चाहें यह दोनों स्थितियाँ केवल हमारी इच्छा या प्रयासों पर ही निर्भर नही है। ज़िंदगी जो हम जीते हैं आख़िर उसकी भी तो ज़िंदगी है ।ज़िंदगी की भी तो एक नियति होती है। हमारी और हमारी ज़िंदगी की नियति एक ही हो यह संभव तब ही है जब हम मु्क्ति की तलाश छोड़ मुक्त हो जायें! 

जीवन दुर्लभ हो सकता है। नहीं, है। ज़िंदगी सरल होती है। और है भी।


ज़रा बिचारिए। अपनी माँ की कोख से हम सब बराबर पैदा हुए हैं। कोई भेद भाव नही। कोई पक्षपात नही। प्रकृति ऐसी ही होती है। जीवन मिला। और फिर ज़िन्दगी शुरु हुई। हमने अपने तरीके से इसे गढ़ना शुरु कर दिया। मनचाही ज़िंदगी बनाने की कोशिश मे ज़िन्दगी को भी गणित बना दिया।


ज़िंदगी पावन है।सैक्रेड है। ज़िन्दगी पुनीत है। प्रीस्टीन है। और ऐसी कोई भी चीज सरल ही होती है। कभी भी जटिल नही हो सकती है।


ज़िन्दगी बेढब हो सकती है, बदसूरत नही। ज़िंदगी ज़न्नत हो सकती है, ज़हमत नही। इट कैन बी मिराज, बट इट इज ओएसिस ऐजवेल।


ज़िन्दगी मधुर है, मृदुल है। ज़िन्दगी ध्वनि नही है, संगीत है। ज़िंदगी रफ्तार नही, गति है लय है।


कभी मौका मिले और फुर्सत हो तो बिल्कुल अकेले में अन्दर टटोल कर देखिए। गुदगुदी होगी। कोई न कोई किनारा चिकोटी काटेगा ही, क्योंकि अपनी अपनी माँ की कोख से हम सब समान ही पैदा हुए हैं।

संसार से भागे फिरते हो

उपन्यास ‘चित्रलेखा’ ने भगवतीचरण वर्मा जी को एक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित किया है। यह उपन्यास पाप और पुण्य की समस्या पर आधारित है।

चित्रलेखा की कथा वहाँ से प्रारंभ होती है जब महाप्रभु रत्नाम्बर अपने दो शिष्य श्वेतांक और विशालदेव को यह पता लगाने के लिए कहते हैं कि पाप क्या है? तथा पुण्य किसे कहेंगे? रत्नाम्बर दोनों से कहता है कि तुम्हें संसार में ये ढूंढना होगा, जिसके लिए तुम्हें दो लोगों की सहायता की आवश्यकता होगी।

एक योगी है जिसका नाम कुमारगिरी और दूसरा भोगी- जिसका नाम बीजगुप्त है। तुम दोनों को इनके जीवन-स्त्रोत के साथ ही बहना होगा। महाप्रभु रत्नाम्बर ने विशालदेव और श्वेतांक के रुचियों को देखते हुए श्वेतांक को बीजगुप्त के पास और विशालदेव को योगी कुमारगिरी के पास भेज दिया। रत्नाम्बर ने उनके जाने से पहले उनसे कहता है कि हम एक वर्ष बाद फिर यहीं मिलेंगे, अब तुम दोनों जाओ और अपना अनुभव प्राप्त करो। किन्तु ध्यान रहे इस अनुभव में तुम स्वयं न डूब जाना।

रत्नाम्बर के आदेशानुसार श्वेतांक और विशालदेव अपने-अपने मार्ग पर चलने को तैयार हो जाते है। चलने से पूर्व रत्नाम्बर उन दोनों को संबोधित करते हुए सक्षेप में बताता है कि कुमारगिरी योगी है, उसका दावा है कि उसने संसार की समस्त वासनाओं पर विजय पा ली है, उसे संसार से विरक्ति है। संसार उसका साधन है और स्वर्ग उसका लक्ष्य है, विशालदेव! वही तुम्हारा गुरु होगा। इसके विपरीत बीजगुप्त भोगी है; उसके हृदय में यौवन की उमंग है और आंखों में मादकता की लाली। उसकी विशाल अट्टालिकाओं में सारा सुख है। वैभव और उल्लास की तरंगों में वह केलि करता है, ऐश्वर्य की उसके पास कमी नहीं है। आमोद-प्रमोद ही उसके जीवन का साधन और लक्ष्य भी है। श्वेतांक ! उसी बीजगुप्त का तुम्हें सेवक बनना है।महाप्रभु की आज्ञा मानकर दोनों निकल पड़ते है ।

उपन्यास की कथा वस्तु यहाँ पर उपलब्ध है

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