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अनुभूति – 5

मिथिलेश कुमार सिन्हा
मिथिलेश कुमार सिन्हा

भला हो इक्कीसवीं सदी का । डाकिया आया, तार वाला आया या पड़ोस में या खुद के घर पर फ़ोन आया वाला जमाना लद गया । अब तो यार, दोस्त, परिवार के लोगों से फ़ोन,इमेल, व्हाटसएप आदि से हम चाहे कहाँ भी हो गाहे-बगाहे ज़रूरत, बे ज़रूरत संपर्क बना रहता है।  

भाई “एम के” और मेरे साथ भी ऐसा ही है । जब मैं सन् २००० में आणंद छोड़ गुड़गाँव का रहेवासी बना “एम के” आणंद में ही थे। फ़ोन पर संपर्क हो जाता था। कोरोना काल २०२० में एक फ़ोन वार्ता से पता चला कि वह अब हरिद्वार में गंगा तट पर निवास करते हैं। मै केनेडा आ गया था। मैंने एक दिन “एम के” की हिंदी में लिखी एक पोस्ट “लिंक्डइन” पर पढ़ी ।मन को छू गई। पढ़ तो मैं रहा था पर लगता था जैसे उनका लिखा मुझसे बतिया रहा हो।वहीं से शुरू हुई बतकही के फलस्वरूप और उनकी सहमति से इस लेख शृंखला का प्रकाशन संभव हो सका है।

पिछले दो पोस्ट बिल्कुल व्यक्तिगत अनुभूतियां हैं जो मुझे अंदर से झकझोरती रही है, उसी परिभाषा के शोध की यह अगली कड़ी है।


मै हरिद्वार के जिस धर्मशाला में हूं, उसमे करीब तीन सौ आदमियों के रहने की व्यवस्था है।

पिछले साल का 20 मार्च का दिन।

हमारे साथ करीब दो सौ यात्री। और लाक डाउन डिक्लेयर हो गया। 22 मार्च से किसी का बाहर जाना मना। बच्चे दूध के लिए, बूढ़े दवा के लिए, सब परेशान। खाने की व्यवस्था, उनको मानसिक रूप से उलझाए रखना, सब नियंत्रित रूप से सम्हालना! एक एक्सट्रीम पैनिक। औल केयोस ।

कोई किसी की सुनने को तैयार नहीं। किसी तरह राजकीय सहायता से 27 मार्च को बसों की व्यवस्था हुई और यात्रियों को बैठाने लगा। लोगो के चेहरे के भाव, बस देखने लायक। एक दैविक अनुभव।

आखिरी बस ।चालीस व्यक्ति। सब को बैठा कर नीचे उतर रहा हूं ।एक बृद्ध महिला अपनी सीट से उठ कर आती हैं, पास आती हैं, पैर छूती हैं और शुद्ध गुजराती में भरे गले से कहती है, “तमे तो मारा माटे भगवान बनी ने आया “और आंखों मे आंसू।

अभी खतम नही हुआ, कि, एक छोटा बच्चा जो दूध के लिए रोता था, आया, पैर छूए और बोला “दादा, आवजो। और भाग कर अपनी सीट पर बैठ गया। मै बस रो रहा था। कैसे आंसू थे, आज तक नहीं समझ पाया।


दूसरी घटना। हमारे यहां एक बृद्ध महिला हमेशा आती है और एक निश्घित कमरे मे रहती हैं। नब्बे वर्ष की है। स्वाभिमानी। कपड़े की झोली बनाती है,जो मिलता है उसमे गुजारा करती है। एक दिन काउन्टर पर आई। विल्कुल बेबस। कहने लगी “लौक डाउन मे काम नहीं हुआ। तीन दिन रूकना है, एक पैसा नही है। अमावस्या नहाने आई थी। नही कर पाउगी। धर्मशाला कैन्टीन पर गया तो पता चला कल से दस ग्राम दूध लेती है कुछ महादेव पर चढ़ाती है, जो बचता है वही पी कर रही है।

इतने मे वे पास आ गयी और मेरी ओर निरीह भाव से देखते हुए बोली। तमे कशू करो न मारा माटे। आप मेरे लिए कुछ कीजिये। नही रोक सका अपने को। तीन दिनो का कमरे का किराया मैने देने का आश्वासन दिया। साथ में चाय पी।



मै कैन्टीन में बैठा चाय पी रहा हूँ ।बाहर एक बालक कुछ अजीब सी हरकतें कर रहा है। मै उससे मिलने को रोक नही सकता। जाता हूँ। उसके पिता वहीं मिलते हैं और बताते है वह एक मेनटली चैलेन्जड बालक है, जन्म से ही ।लेकिन आज कई नेशनल एवार्ड ले चुका है और अभी भी एक नेशनल इवेन्ट में भाग लेने जा रहा है। बात करने की इच्छा हुई । कुछ टूटी फूटी भाषा मे, कुछ इशारे से। पता नही क्यों पूछ लिया “कुछ खाओगे। उसने हां मे सर हिलाया। एक मिठाई खाई, हाथ मुह धोया और नाना, नाना कह कर चिपट गया। बड़ी मुश्किल से अपने पिता से छुड़ाने पर अलग हुआ।


अगर आप में से कोई इन तीनो परिस्थितियों मे, या किसी एक में भी सहभागी होते तो आप को कैसी अनुभूति होती?


परिभाषा की शोध की मेरी परिक्रमा सतत चल रही है। मदद चाहिए।


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