बात नब्बे के दशक के उन बीते दिनों की
जब मैंने अपनी “पहली” सेवा निवृत्ति नहीं ली थी। बात तब की है जब मैं आणंद, गुजरात मे एनडीडीबी में कार्य करता था। काम के सिलसिले में दिल्ली आना हुआ था आणंद से । बाबूजी अम्मा और नीलम दिल्ली में रहते थे। शनिवार का दिन था रात के भोजन समय बाबूजी ने बात ही बात में कहा “स्वाध्याय परिवार से मुझे निमंत्रण आया है । कल रविवार सुबह सूरज कुंड में एक विचार गोष्ठी है दादा ( पूज्य पाण्डुरंग शास्त्री आठवले ) जी के साथ । चलोगे ? “ मैंने कहा “ बाबूजी निमंत्रण तो आप जैसे चुने आमंत्रितों को है । मैं कैसे भाग ले सकता हूँ”। “अरे क्या फ़र्क़ पड़ेगा चलने का मन हो तो चलो” बाबूजी ने कहा। मैंने तुरंत ही हामी भर दी । अगले दिन पिता पुत्र समय से पहले ही विचार गोष्ठी में उपस्थित हो गये।
हुआ यों कि
गुजरात में रहते हुये ही मैं १९९१ -१९९२ से ही स्वाध्याय परिवार से जुड़ चुका था । भाव फेरी, योगेश्वर कृषि, दादा जी के बड़ोदरा और नादेड में हुये जन्म दिवस समारोह (जिसे मनुष्य गौरव दिन के रूप में मनाया जाता था ) भाग ले चुका था। १९९५ में हुये इरमा ( IRMA ) के दीक्षांत समारोह की पूर्व संध्या पर दादा जी से काफ़ी देर तब बात करने का मौक़ा भी मिला था । डा० मिस अमृता पटेल तत्कालीन मैनेजिंग डायरेक्टर नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड, गेस्ट हाउस पर दादा जी के साथ काफ़ी देर से खड़ी थी। मैं भी उनके साथ था। रात के दस बज गये दूसरे दिन का कार्यक्रम भोर सुबह शुरू होने वाला था । मिस पटेल ने कहा तुम रूक जाओ और दादाजी का डेरी बोर्ड की तरफ़ से स्वागत करने के लिये । मैंने बड़ी प्रसन्नता से उनका आग्रह स्वीकार कर लिया और उत्सुक स्नेह पूर्ण भाव से दादा जी स्वागत के लिये एकत्र लोगों से बात करने में मशगूल हो गया। इतने स्नेह, सादगी और भाव से पूर्ण व्यक्तित्व से जिन्हें मैं विडियो पर हर वुधवार और रविवार को गीता पर प्रवचन करते कई सालों से देख रहा था साक्षात् मिलने का पहला मौक़ा मिल रहा था।

दादा जी रात लगभग ग्यारह बजे एनडीडीबी के अतिथि गृह पर आये। मैंने स्वागत के लिये पुष्प गुच्छ दे कर और नमस्कार कर दादा जी का स्वागत किया । मैंने अपना परिचय दिया। दादा जी ने मुझे अपने कमरे में साथ आने को कहा। कई लोग थे आसपास। दादाजी ने मुझे बैठ जाने को कहा और फिर हुई बातचीत। दादा जी पूछते रहे मेरे परिवार के बारे में, मेरे काम के बारे में .. फिर एनडीडीबी के बारे में अमूल के बारे में इरमा के बारे में। कहने लगे मुझे कल दीक्षांत भाषण देना है । इरमा , एनडीडीबी के बारे में जानना है। दादा जी बड़े ध्यान से सुनते थे मेरे द्वारा दी गई जानकारी को। मैं एक प्रश्न का उत्तर देता दूसरा तैयार रहता। उनके बहुत से प्रश्न होते थे मेरे द्वारा जल्दबाज़ी में दिये उत्तरों को विस्तार से समझने के लिये। उनकी आँखें और चेहरे पर बाल सुलभ स्मित हास्य लगातार बना रहा। काफ़ी देर हो रही थी। उन के साथ आये स्वाध्यायी भाईयों ने कई बार दादा जी को विश्राम करने के लिये कहा पर दादाजी कहाँ मानने वाले । दूसरे दिन दादा जी द्वारा दिये गये दीक्षांत भाषण का अंग्रेज़ी रूपांतर इस लिंक पर उपलब्ध है।
ख़ैर मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गया।
१९९३ में दादा जी के आणंद आगमन पर ली गई फ़ोटो पुरानी एल्बम से
क्यों लिख रहा हूँ यह ब्लाग ? क्या इसी लिये क्योंकि मुझे अपने हाथों के लिखे पन्ने मिले बत्तीस साल बाद जिन पर मैंने उस दिन के नोट लिखे थे । जी यही कारण है !

यादों के झरोखों से
सूरजकुण्ड स्थित सभा कक्ष धीरे धीरे भर गया । मौलाना वहीद्दुदीन खान, दिल्ली, इलाहाबाद और अन्य कई विश्वविद्यालयों के प्रोफ़ेसर, चिंतक, स्वाध्याय परिवार के दिल्ली स्थित बहुत से जाने पहचाने नाम और दादा जी। संवाद प्रारंभ हुआ। मैं काफ़ी देर तक मन लगा कर सुनता रहा । फिर न जाने ध्यान में आया , क्यों मैं जो सुन रहा हूँ उसे लिपिबद्ध नहीं कर रहा हूँ। बाबूजी से पेन माँग सभा स्थल पर मिले पैड पर कुछ नोट लिखे जो आज तेजस वर्ष बाद आप सब से साझा कर रहा हूँ । आशा है यह अपूर्ण लेख आपको पसंद आयेगा। उन दिनों की याद दिलायेगा । आज भी ऐसे संवाद होते होंगे पर मुझे उन संवादों की ज़्यादातर चीख चिल्लाहट ही सुनाई देती है । सोचता हूँ कहा गये वह दिन !
मौलाना – स्वाध्याय के दो आयाम हैं, आध्यात्मिक आदर्शवादी और व्यावहारिक । आध्यात्मिक आदर्शवादी दृष्टिकोण से जुड़ने में एक मुसलमान होने के नाते मुझे आपत्ति है। इस्लाम में ईश्वर मेरे अंदर नहीं वरन मेरे साथ माना जाता है। ख़ुदा मेरे अंदर का विचार मान्य नहीं है। दूसरा व्यावहारिक आयाम मुझ पसंद आता है। जब से ग्रामीण क्षेत्रों में स्वाध्याय के काम को देखा है और स्वाध्यायियो से मिला हूँ, प्रभावित हुआ हूँ। इसी लिये यहां आया हूँ।
कभी यह सोचता हूँ क्या यह संभव नहीं कि स्वाध्याय के आध्यात्मिक आदर्शवादी पक्ष को नज़रअंदाज़ कर व्यावहारिक पक्ष ही यदि पूरा ध्यान दें तो कैसा रहे। मैं भारत को अपने देश को बहुत प्यार करता हूँ। स्वाध्याय के व्यावहारिक आयाम से देश के लिये एक आशा की उम्मीद सी जगती है। पायनियर में मेरी २६ जनवरी १९९७ को हुई एक मीटिंग की खबर छपी है। मैंने उस मीटिंग में कहा था। मैं गांधी से प्रेम करता हूँ पर भारत को उससे भी ज़्यादा ।
मेरा परिवार स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ा था। मुझे आज भी याद है १५ अगस्त १९४७ की वह शाम सब तरफ़ जगमग जगमग रोशनी और ख़ुशियाँ। ख़ुशी से पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे।ज़्यादा ख़ुशी होने पर शरीर का सारा खून जैसे सिर में चला जाता है, पांव हलके हो जाते हैं और ज़मीन पर नहीं पड़ते।
आज देश की हालत देख कर अकेले में रो देता हूँ । हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के मूल में थी एक बुराई से लड़ाई।बुराई का प्रतीक था ब्रिटिश राज ।स्वतंत्रता प्राप्ति से हमें उम्मीद थी कि एक ऐसे समाज और देश का निर्माण होगाजिसमे बुराई न हो।बुराई और अच्छाई, एक और तीसरी स्थिति की भी संभावना है। शायद इसकी ओर ही इशारा रहा होगा एक अंग्रेज का जब उसने कहा कि जब किसी अशिक्षित समाज समूह को स्वतंत्रता दी जाये की त। अराजकता की स्थिति पैदा होगी।
गांधी जी से मै बहुत प्यार करता हूँ ।वह एक अज़ीम इंसान थे। मैं कहूँगा कि मैं तो पैदाइशी गांधीवादी था। पर उनकी सोच में एक यह भूल थी, जब उन्होंने स्कूल और कालेजों में आंदोलनों की बात की। शिक्षा एक परंपरा के तहत होती है। परंपरा से ही राष्ट्र निर्माण होता है, क़ानून से नहीं। हमारे यहाँ अंग्रेज लगभग पाँच सौ साल रहा, राज किया और तक़रीबन पाँच सौ क़ानून बना डाले। हमारे शासकों ने पिछले पचास सालों में .. क़ानून बना डाले। एक परंपरा को बनने में एक लंबे इतिहास की ज़रूरत होती है।
जब पश्चिमी देशों में गिनती रुक गई थी क्योंकि वह एक से नौ तक ही गिन पाते थे रोमन न्यूट्रल में तब भारत में खोज हुई शून्य की जो अरबों द्वारा यूरोप पहुँचा और विज्ञान तथा तकनीक के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई अरबी न्यूमरल्स द्वारा जिसे वास्तव में भारतीय कहना चाहिये।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यदि हमें कोई जेफरसन जैसा मिलता तो शायद हम भी पंद्रह साल में पूरे भारत में साक्षरता कल्पना पूरी कर पाते।
विवेकानंद ने कहा था, जब तक हिंदू मुस्लिम साथ न मिलेंगे भारत आगे नहीं बढ़ेगा।
मेरे कहने का मतलब यह है कि यदि आध्यात्मिक आदर्श के आयाम मे मुसलमान स्वाध्याय से नहीं जुड़ सकता तो क्यों न हम इसके व्यावहारिक आयाम पर कोशिश करें ? एक स्तर पर हम असहमति के लिये सहमत हों और आगे बढ़ें यह मान कर कि मतभेद के बावजूद मिलाप संभव है।
इस मिलाप में आड़े आती है दो चिंतन धारायें । एक तो मुस्लिम समाज की भावनात्मक सोच और दूसरी हमारी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की भारतीय सोच। मैं भारत के स्वतंत्रता प्राप्त करने की घटना को मात्र सत्ता परिवर्तन मानता हूँ , क्रांति नहीं । एक सरमायादार गिरोह की जगह दूसरा आया और हम स्वतंत्र हो गये। कुछ भी न बदला। क्रांति एक लगातार बदलाव की प्रक्रिया है ।
दादा – धर्म का सामाजिक और आर्थिक पक्ष भी आवश्यक है। धर्म , समाज शास्त्र और अर्थशास्त्र अलग नहीं किये जा सकते। हम लौकिक जीवन के अभाव में धर्म की परिकल्पना भी नहीं कर सकते । अंतर्निष्ठ प्रभु यह हिंदू नहीं वरन वैश्विक आदर्श है ।अन्य धर्म परंपराओं में भी यह बात कही गई है।
आमंत्रित गणों में से – ईसाई परंपरा में क्वैकर्स भी ऐसा मानते हैं ।
दादा- बाइबिल में कहा गया है “ You can not speak the supreme power residing in you speaks. You can not exist without his existence.”
मौलाना- Monotheism जो जूडो क्रिश्चियन परंपरा है उसके मूल में है एक पर्सनल गाड़ की परिकल्पना । पर्सनल गाड़ हमसे अलग exist करता है। यह सारी कुदरत ख़ुदा की बनाई है। वास्तव में मतभेद धर्मदर्शनो का है। व्यावहारिक स्तर पर नहीं। आदमी का अक़ीदा बहुत स्टबर्न होता है। मेरी राय में आज की स्थिति में हम agreement करने की कोशिश न करें ।और प्रैक्टिकल activities में जुड़ें। मैं इसे delinking policy कहता हूँ।
प्रश्नकर्ता- आत्मनिष्ठ प्रभु की परिकल्पना भी तो हिंदू परंपरा में एक लंबे समय के विकास के बाद प्रति स्थापित हुई। क्या ऐसा इस्लाम में भी संभव है।
मौलाना- अगर फ़तवा चाहते हैं तो मौलवी कहेंगे यह हराम है।
इम्तियाज़-हमें यह मानना चाहिये कि धर्मदर्शनों में मतभेद है पर स्वाध्यायी धर्मदर्शन के भी कई स्तर हैं, शायद कुछ सहमति किसी स्तर पर संभव हो।
स्वाध्यायी विचार दक्षता एवं भाव प्रभु प्रदत्त है अतएव इसका कुछ हिस्सा प्रभु को समर्पण करने का आग्रह है। हमारी साहित्येतर ख़ुदा की है इसलिये हमें अपना कृतित्व और भाव ख़ुदा को समर्पित करना चाहिये ।क्या यह बात इस्लाम की दृष्टि से सही लगेगी ?
मौलाना – बात मानवीय सोच, साफ़ सोच की है हिंदू, मुस्लिम अथवा ईसाई सोच की नहीं। सवाल एक agreeable interpretation तलाश करने का नहीं है।
प्रश्नकर्ता- ऐसा लगता है हम यह मान कर चल रहे हैं कि मुस्लिम और ईसाई धर्म का जैसे कोई इतिहास नहीं है। इतिहास की दृष्टि से देखें तो हर एक धर्म में संप्रदाय हैं। इस्लाम और ईसाइयों में भी ।सुन्नी, शिया , हल्ला, सूफ़ी । हिंदू धर्म में भी अनेक संप्रदाय हैं।खुद दादा जी को इनमें से कइयों के विरोध का सामना करना पड़ा। भेद इतिहास को नकारता है।
दादा- दूसरा आ गया तो संबंध आ गया। तीन स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। मैत्री, शत्रुता और तटस्थता । तटस्थ रहना नहीं है। शत्रुता करनी नहीं है। मैत्री चार प्रकार की होती है। Friendship for Profit, Pleasure, Principle and for Devotion. धर्म जब ritualistic बनता है उसके प्राण चले जाते हैं। भगवान की परिकल्पना सोच मान्य होनी ही चाहिये। Reason based God!
क्रांति कौन करताहै? वह जिसको नहीं चाहिये। आज का मिडलक्लास सर्वस्व अकृतित्वान समूह हो गया है। मेरी मिडिल क्लास की परिभाषा कुछ भिन्न है । There are some who earn because of their wealth वित्तवान then there are some who earn because they are endowed with or use brawn श्रमिक । बीच का वर्ग जो जीवन यापन के लिये मुख्यत: बुद्धि का सहारा लेता है मिडिल क्लास है। वित्तवान की कमाई, पसीने की कमाई और बुद्धि की कमाई। इनमें भी कई प्रकार हैं। बुद्धिजीवी, बुद्धिवादी और बुद्धिनिष्ठ । बुद्धिनिष्ठ devotion ही प्रभु का काम कराता है।
आख़िर धर्म किसे चाहिये? संन्यासी को, कथा करने वाले को या श्रीमंतों को वास्तव में इन सब को ही धर्म चाहिये लेकिन क्रांति यह नहीं कर सकते।
मैं Marx की बहुत इज़्ज़त करता हूँ। यदि मार्क्स की सोच में प्रभुतत्व आ जाये तो रृिषियों की सोच हो जाती है। मार्क्स जो खुद ही मिडिल क्लास का था इसे बुर्जुआ, परोपजीवी कह कर संबोधित किया। गांधी, विवेकानंद सभी क्रांतिकारी विचारक मिडिल क्लास से हुये । स्टैलिन भी मिडिल क्लास से था पर उसका विश्वास मिडिल क्लास को सिर्फ बुर्जुआ कहने तक ही सीमित न था। उसने तो इन्हें नेस्तनाबूद कर देने की मुहिम छेड़ दी। बुर्जुआ या परोपजीवी बुद्धिवादी हैं। आज का बुद्धिजीवी वर्ग उपेक्षित ग्रस्त होअकर्मण्य हो गया है।
क्रांति , क्रमु: विस्तारे शनै: शनै: । क्रांति धीरे धीरे काफ़ी समय में होती है।
एक कहानी याद आती है। विश्व की सृष्टि के बाद चार व्यक्ति मिले डाक्टर, इंजीनियर, पुलिसमैन और क्रांतिकारी। डाक्टर ने कहा सबसे पहले डाक्टर पैदा हुआ होगा। सबने पूछा क्यों? उसका जबाब था, आदम और ईव को डाक्टर की ज़रूरत रही होगी ताकि सृष्टि का काम सुचारु रूप से चल सके। इंजीनियर ने कहा इस काम के लिये एक कमरा चाहिये जिसे इंजीनियर ही बना सकता था। इसलिये इंजीनियर ही सबसे पहले आया होगा। डाक्टर और इंजीनियर में बहस होने लगी तब पुलिस वाला बोला उसने कहा सबसे पहले पुलिस वाला आया होगा, ताकि शांति स्थापित हो सके। तब क्रांतिकारी बोला अशांति लाने के लिये एक क्रांतिकारी की ज़रूरत है इसलिये क्रांतिकारी ही सबसे पहले आया होगा।
आमंत्रितों में से कोई एक- आज गांधीवादी विचारकों में काफ़ी विचार मतभेद है। कुछ का यह मानना है कि जो कुछ विकास के नाम पर हो रहा है अच्छा है, अन्य का मानना है कि आधुनिकतावाद एक ख़तरा है। कुछ पश्चिमी संस्कृति और आधुनिकता को पर्यायवाची मानते हैं और दोनों को नकारते हैं। Middle class के सामने बुद्धि और विवेक के प्रयोग में अड़चनें हैं ।इन भ्रांतिपूर्ण मतों के कारण विशेषकर प्रजातंत्र के परिप्रेक्ष्य में।
दादा – किसी ने लोकशाही की नई परिभाषा दी है। लोकों के पास से शाही जीवन जीने की सत्ता ही लोकशाही है!
आमंत्रित- Reconciled humanity can be created in the basis of love. मुझे याद है अहमदाबाद के मनुष्य गौरव दिन के उत्सव में पचास हज़ार से हरिजनों ने त्रिकाल संध्या की । एक भारी जन समूह के सामने की । स्वाध्याय के भावलक्षी प्रयोग का यह परिणाम था। “हम में आप के लिये भाव है” इसी लिये आते हैं, “ सुधारने नहीं आये हैं” । ऐसे विचारों से परिपूर्ण लोगों द्वारा लंबे समय तक किये गये प्रयोग और प्रयत्नों का फल ही तो था वह उत्सव !
कार्यक्रम की समाप्ति पर बाबूजी की कार मे मौलाना वहीदुद्दीन खान साहब को निज़ामुद्दीन स्थित उनके निवास स्थान पर छोड़ हम बाप बेटे घर आ गये। बातें भी बहुत हुई रास्ते में पर कुछ याद नहीं ।
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जिस भाषण का आपने उल्लेख किया है उसे कौनसी भाषा में प्रस्तुत किया गया था यह जानने की अभिलाषा है.
दादा जी द्वारा इरमा मे दिये गये दीक्षांत भाषण के बारे में शायद जानना चाहते हैं आप । वह भाषण हिंदी में दिया गया था। मेरे पास विडियो है पर मैं अप लोड नहीं कर पाया हूँ। जो लिंक मैंने दिया वह इरमा द्वारा किया अंग्रेज़ी अनुवाद है ।
दादा की दी हुई लोकशाही की परिभाषा बहुत सटीक लगी।