- रश्मि कांत नागर

बचपन में घर में हनुमान चालीसा का नियमित पाठ होता था। उसकी ये पंक्तियाँ
“तुमरो मंत्र विभीषण माना, लंकेश्वर भये सब जग जाना”।
किसी को भी भगवान राम की शरण में जाने को प्रेरित करती है। स्तुति हनुमान की, संदेश राम की शरण में जाने का। बहुत अच्छा लगता था।
बड़े हुए, नौकरी करने घर छोड़ दूसरे शहर आए, घर का पूजा- पाठ का नियम ताक पे चला गया। ता उम्र भगवान को याद किया, परंतु बिना नियमित पूजा-पाठ के। समय ही कहाँ था ये सब करने का? पर बचपन की यादों के किसी कोने में कुछ स्तुतियाँ याद रह गयीं, भले ही आधि-अधूरी हों और हनुमान चालीसा की कुछ पंक्तियाँ भी उनमें से हैं।
इसलिये जब कभी किसी पड़ोसी के घर से अनायास इन पंक्तियों की ध्वनि कानों में पड़ती है, तो बचपन याद आता है, वे पल यादआते हैं, जब आत्मविभोर होकर हम भाई-बहन, पूरे भक्ति भाव से इन स्तुतियों का गान किया करते थे। तब मन में कोई प्रश्न नहीं आते थे। अब आते हैं।
और प्रश्न आते है- विभीषण के संदर्भ में। विभीषण के नैतिक आचरण के बारे में। क्या विभीषण का राम का साथ देना नैतिक रूप से उचित था? अगर होता तो ये कहावत, “घर का भेदी, लंका ढाई” क्यों बनी?
राम की सहायता करके, उन्हें लंका पर विजय प्राप्त करने में अपना अमूल्य योगदान देकर विभीषण एक और राम भक्त के रूप में प्रसिद्ध हुए और लंकेश्वर बने पर दूसरी और रावण के भाई के रूप में तो वे राजद्रोही ही रहे। एक विजयी राजा ने एक देशद्रोही को, एक गुप्तचर को, पुरस्कार में इसके पराजित भाई का राज्य दे दिया। विभीषण ने राज्य तो पा लिया, पर क्या वह लंका की प्रजा का सम्मान प्राप्त कर पाया? मुझे इसमें संदेह है।
और मेरे संदेह का कारण है। लंकावासियों की छोड़ो, वह तो रामभक्तों से भी कोई सम्मान नहीं पा सका। अगर पा सका होता तो किसी एक रामभक्त ने तो अपने एक पुत्र का नाम विभीषण रखा होता। पर किसी ने ऐसा नहीं किया। क्यों?
हमने हमेशा ये सुना की विभीषण ने अपने बड़े भाई रावण द्वारा सीता के अपहरण को अनैतिक माना और इसीलिये उन्होंने रावण का साथ छोड़ कर राम का साथ दिया। विभीषण का अपने भाई के आचरण- सीताहरण पर क्षुब्ध होना सही था परन्तु उसका स्वयं का आचरण उसके नैतिक मूल्यों पर प्रश्न चिन्ह लगता है।
दो प्रश्न उठते हैं, पहला, विभीषण ने रावण के सामने शस्त्र उठा कर सीताहरण का विरोध क्यों नहीं किया? क्या वो इतना कायर था? क्या वो अपने प्राण गवानें के भय से रावण का विरोध नहीं करना चाहता था? क्या वो जानता था की रावण के वध के बाद वही राजगद्दी पर बैठेगा और इसलिए स्वयं के प्राणों की रक्षा करना उसका मुख्य ध्येय बन गया?
दूसरा, अगर ऐसा कुछ नहीं था तो उसने रावण की पराजय के बाद लंकापती का पद क्यों स्वीकार किया? अगर विभीषण अपने नैतिक आचरण के प्रति इतना सजग होता, तो वह इस पद को अस्वीकार कर देता। पर उसने ऐसा नहीं किया। क्यों?
मेरे पास प्रश्न हैं, उत्तर नहीं। अगर आपके पास हों तो ज़रूर बताइयेगा, मुझे प्रतीक्षा रहेगी।
27-12-2020
- The Celebrity Next Door
- Dr HB Joshi shares his views on the why, what and how of Vrikshamandir
- Meeting of former NDDB employees at Anand on 21/22 January 2023
- ईशोपनिषद
- खलबली