
रश्मि कांत नागर



गाय, गोबर और “गोल्ड”
एक जून को शैलेंद्र ने एक वीडियो साझा किया। इस वीडियो में एक वैज्ञानिक डॉ सत्य प्रकाश वर्मा गाय/ भैंस के गोबर से प्राप्त उन दो उत्पादों के बारे में (२४-२८ मई के दौरान राजकोट हुए किसी मेले में) जानकारी दे रहे है, जिसमे एक किलो गोबर से ₹८०००-८५००० तक की आमदनी हो सकती है। जी हाँ, ८ से ८५ हज़ार रुपये एक किलो गोबर से! अगर विश्वास ना हो तो माँग लीजिए शैलेन्द्र से वीडियो लिंक। वैसे डॉ वर्मा जी स्वयं गोबर से उत्पाद बनाने वाले उद्योगपति बन गये हैं- (https://gobarwala.com) और कई गोबर उत्पादक उनसे सप्लायर के रूप में जुड़ भी चुके है। संक्षेप में, वर्मा जी ने गोबर से नये लाभदायक उद्योग स्थापित करने और ग्रामीण ग़रीबी उन्मूलन की असीमित संभावनाएँ पैदा कर दी हैं, उन्नति के नये द्वार खोल दिये हैं।
ये दो उत्पाद हैं: 1. नेनों सेल्यूलोज़, २. लिगनिन।इन उत्पादों का करीब एक हज़ार तरह से -कृषि और उद्योग दोनों में उपयोग हो सकता है।
वीडियो देखा तो मेरा सर चकरा गया। एक किलो गोबर से इतनी आय? और हम पिछले पचास-साठ वर्षों से दूध के पीछे पड़े हैं! पता नहीं इस दूध, गाय के चक्कर में कितने झगड़े फसाद हो गये; राज्यों के बीच तनाव हो गया- अभी ताज़ातरीन झगडा तो अमूल द्वारा कर्नाटक में दूध विक्रय के फ़ैसले को लेकर हुआ जिसने दक्षिण भारत के अन्य राज्यों भी अपने चपेट में ले लिया। ठण्डे दूध की बलिहारी, राजनीति गरमा उठी।
कोरोना काल में कुछ और ही नज़ारा देखने मिला। दूध उत्पादन का खर्च औसत से अधिक बढ़ा तो बाज़ार में दूध की क़ीमत भी तेज़ी से बढ़ी, लिहाज़ा शहरी उपभोक्तानाराज़ हो गये, किसानों को गाली देने लगे और ना जाने क्या क्या हो गया। दूध के उत्पादों की माँग, कोरोना के जाते ही तेज़ी से बढ़ी, लिहाज़ा देश का मक्खन- अमूल बाज़ार से ग़ायब हो गया, नाराज़ उपभोक्ता अमूल पर कालाबाज़ारी का आरोप मढ़ने लगे। अचानक दूध व दूध उत्पादों के संभावित आयात की खबरें अखबारी सुर्ख़ियाँ बन गई और फिर नये सिरे से राजनीति शुरू।
सौभाग्य से इस समय ‘गौरक्षक’ इतने सक्रिय नहीं हैं वरना अख़बारों की सुर्ख़ियों में वे ही रहते, हर टीवी चैनल पर तोड़-मोड़ कर, बढ़ा-चढ़ा कर दिनोंदिन छुटपुट घटनाओं को बारबार दिखा कर सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने और राजनीतिक रोटियाँ सेंकने का धंधा ज़ोर-शोर से चल रहा होता। पिछले साठ वर्षों में ‘गौ वंश’ के बचाव में अनगिनत विवाद हुए, अदालतों में मुक़दमेंबाज़ी हुई, मसला ज्यों का त्यों ही रहा और दूध का महत्व हमारी खुराक में बढ़ता ही गया। (इस गंभीर विषय पर पाठक मेरा अंग्रेज़ी में लिखा लेख ‘Cow, grass and beef’ वृक्षमन्दिर पर पढ़ सकते हैं)।
दूध को हमारी खुराक में इतना महत्व दिया गया (शाकाहारियों के लिये आवश्यक प्रोटीन का एकमात्र स्रोत) की १९६५ में, देश में दुग्ध उत्पादन बढ़ाने और देश की जनता को ‘न्यूट्रीशनल सिक्युरिटी’ देने के लिए राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड की स्थापना हुई, जिसकी बलिहारी मुझ जैसे (डेयरी साइंस जैसे विषय में विशेष योग्यताधारी) बेरोज़गार को नौकरी मिली।
अब एक बार दिमाग़ चकराया तो कल्पना ने उड़ान ली। जरा सोचिए, अगर डॉ सत्य प्रकाश वर्मा जी की शोध १९६० के दशक में हो गई होती, तो क्या होता और अब जब वे स्वयं गोबर आधारित उद्योग स्थापित कर चुके हैं, तो निकट भविष्य में क्या संभावनाएँ हैं?
मैंने अनुमान लगाने का प्रयास किया जिनमे से कुछ प्रस्तुत हैं।
1. दुग्ध उत्पादन से अधिक ज़ोर गोबर उत्पादन पर होता या अब होगा- यानी गोबर मुख्य उत्पाद और दूध सहउत्पाद। (उस परिस्थिति में क्या में डेरी साइंस के विषय का चुनाव करता? इस प्रश्न पर मैंने अपना निर्णय फ़िलहाल सुरक्षित रखा है। मुझे संदेह है कि कोई विश्वविद्यालय गोबर उत्पादन और प्रोसेसिंग पर विशेष पाठ्यक्रम जारी करता)।
2. १९६५ में स्थापित NDDB का अंग्रेज़ी में पूरा नाम क्या “National Dung Development Board” होता और हिन्दी अनुवाद होता ‘राष्ट्रीय गोबर विकास बोर्ड’! तब हममें से कितने यहाँ नौकरी करना पसंद करते? वैसे मेरे जैसे विशिष्ट योग्यताधारी के लिये शायद ही कोई विकल्प होता।
3. जरा सोचिए, अगर किसान को दूध के लिये ₹३५-४० प्रति लीटर के सामने ₹२०००प्रति किलो (ये मेरा प्राथमिक अनुमान है, गोबर उत्पादक को कच्चे माल की क़ीमत कम से कम ₹८००० का २५% तो मिलनी चाहिए) गोबर के लिये मिलेगा, तो कौन दूध बेचने की ज़हमत उठाएगा? गोबर के ‘फटने’ का डर नहीं, इसलिये कोल्डचेन की ज़रूरत नहीं। जब दूध सहउत्पाद ही रह जाएँतो, बच गया तो बेच दिया, फट गया, तो नाली में बहा दिया।
4. गोबर उत्पादन बछड़े के पैदा होने से लेकर अन्तिम दिन तक। यानी, आजीवन बिना “ड्राई पीरियड” सतत उत्पादन। पशु के नर या मादा होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। आजीवन गोबर जैसे महँगे उत्पाद देने वाले पशु को कोई किसान नहीं बेचता। यदि आप ने इस लेख को यहाँ तक भी पढ़ा है तो वृक्षमंदिर से नीचे दिये गये कमेंट बाक्स द्वारा संपर्क करें, आप इनाम के हक़दार हो सकते हैं। लिहाज़ा गौवंश बचाने का एजेंडा ही ग़ायब हो जाता और हमारी अदालतें इन कभी समाप्त ना होने वाले झगड़ों से मुक्त हो जातीं।
5. उद्योग पर असर तो ग़ज़ब का होता। दरअसल संभावनायें तो अब बनी है, जब नये स्टार्ट अप के लिये बैंक फाइनेंस देने को उत्सुक है, प्राइवेट निवेशक(Venture Capitalist) भी स्टार्ट अप में निवेश करने को उतने ही उत्सुक हैं। उन्हें अब गोबर में सोना दिखाई देने लगा है।
6. मुख्य उद्योग के साथ सहउद्योग भी निवेश आकर्षित करते। इनमें मुख्य होता गोबर देने वाले पशुओं के लिये ‘डाइपर’ ताकि प्रोसेसिंग के लिये मिलावट रहित, शुद्ध गोबर उपलब्ध करवाया जा सके।
अब बात करें गोबर संकलन की।
आनन्द पैटर्न पर गाँवों में दूध मंडलियों के स्थान पर गोबर मण्डलियों को प्राथमिकता मिलती। भारत का कोई गाँव अछूता नहीं रहता- आख़िर हर गाँव में गोबर देने वाले पशु तो हैं ही। जरा गौर कीजिए, भारत को कोई भी कोना, विकास की इस असीमित संभावना को लेकर उपेक्षित नहीं होता। प्राइवेट सेक्टर के लिये भी प्रचुर अवसर होते, विदेशी निवेशक भी पीछे नहीं रहते। आख़िर दुनिया की सबसे बड़ी मवेशी धारक अर्थव्यवस्था में गोबर से सोना पाने के अवसर को कौन हाथ से जाने देना चाहेगा?
गोबर प्रोसेसिंग में निवेश के विकल्प क्या होते/ हो सकते हैं?
1. गाँव के स्तर पर लघु उद्योग।
2. ब्लॉक/ तालुक़ा/ तहसील के स्तर पर मध्यम उद्योग।
3. ज़िला स्तर पर बड़ा उद्योग।
यानी ३ टियर सहकारी संस्थायें या गोबर उत्पादक कम्पनी- दोनों तरह केइंस्टिट्यूशनल इंफ्रास्ट्रक्चर के साथ अपना प्रोसेसिंग प्लांट भी बन सकता है।
इन विकल्पों के मद्देनज़र गोबर संकलन, स्टोरेज और प्रोसेसिंग के लिये उपयुक्त संयंत्रों/ उपकरणों की माँग के अनुसार संयंत्र उत्पादन के उद्योग निकट भविष्य में स्थापित हो सकते हैं। ये इंजीनियरिंग डिग्री धारकों के लिये अच्छी खबर होनी चाहिए। Indian Dairy Machinery Company के लिये प्रोडक्ट डाइवरसीफ़िकेशन का अवसर?
ग्रामीण विकास के इस अद्भुत चरण का सबसे अधिक असर में शिक्षा के क्षेत्र में देख सकता हूँ।
1. अगर गाँव में घर बैठे, कम से कम मेहनत किए, प्रतिदिन अगर १० किलो गोबर भी बेचा, यानि एक दिन में बीस हज़ार रुपये की आमद होने लगे, तो कौन पढ़ाई में सिर खपाना चाहेगा? स्कूली शिक्षा तो ठीक है, पर विश्वविद्यालयों में एनरोलमेंट पर विपरीत असर की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज भी बंद हो जाएँगे।भारत से शिक्षा के लिये विदेश जाने वालों की संख्या भी बहुत घट जाएगी। इसका विपरीत असर जहाँ विदेशी शिक्षण संस्थानों पर पड़ेगा, हमारी विदेशी मुद्रा बचेगी, परंतु बैंकों द्वारा शिक्षा के लिये दिये जाने वाले लोन में ख़ासी कमी आएगी। कुछ बिरले (जिन्हें अब सिरफिरा कहा जायेगा) ही उच्च शिक्षा का रुख़ करेंगे।
2. इसके विपरीत, दूसरी और, तकनीकी विश्वविद्यालयों में नये विषयों पर शोध होगा। मसलन: कौन सी नस्ल के गोबर में नेनोंसेल्यूलोज़/ लीगनीन की मात्रा अधिक पाई जाती है? क्या इसका सीधा संबंध पशु आहार से है? पशु आहार में किन घटकों की मात्रा बढ़ाने/घटाने से गोबर में नेनोंसेल्यूलोज़ एवं लीगनीन का अनुपात बढ़ाया जा सकता है?
3. गोबर से बने उत्पादों के हम सबसे बड़े उत्पादक / निर्यातक होंगे। अभी तक हम दूध में नम्बर १ हैं, अब गोबर में भी!
यानी गोबर से “सोना ही सोना”! नये गाने की पंक्तियाँ कुछ इस तरह हो सकती हैं,
“मेरे देश की गायें गोबर उगलें, गोबर उगले सोना,……………., मेरे देश की गायें”। (इन पंक्तियों पर मेरा कॉपीराइट सर्वाधिकार सुरक्षित समझें)।
मेरे लिये ये विषय गंभीर है। आप इसे हल्के-फुल्के मनोरंजन के रूप में लेना चाहते है या इससे प्रेरित होकर उद्यमी बनना चाहते है, वह आपका अपना निर्णय होगा।
लेख पढ़ने के लिये हृदय से धन्यवाद।
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