
दूर दूर तक नज़र दौड़ायें, हमारे जीवन का केंद्र लोहा है, अगर लोहा ना होता, तो हमारे जीवन का केंद्र क्या होता?
अगर लोहा ना होता, तो प्रारम्भिक औज़ार नहीं बनते, औज़ार नहीं बनते तो ना खेती होती, ना ही खदान होते। खदान ना होते, तो दूसरे मूल्यवान खनिज ना होते, मूल्यवान खनिज ना होते, तो आभूषण नहीं बनते।
आभूषण नहीं बनते, तो धन-दौलत का दिखावा ना होता, दिखावा ना होता , तो ईर्ष्या का जन्म नहीं होता।ईर्ष्या का जन्म नहीं होता, तो वैमनस्य पैदा नहीं होता, वैमनस्य नहीं होता, तो सुरक्षा के लिए शस्त्रों का विकास ना होता।
ना शस्त्रों का विकास होता,ना धन-सम्पदा बेपनाह बढ़ती, ना वैमनस्य गहरा होता। ना वैमनस्य शत्रुता का रूप लेता,ना लोहा अब और अधिक मूल्यवान होता।
ना और अधिक मारक क्षमता वाले अस्त्रों की माँग बढ़ती,ना मानव मन में, धन शक्ति, और प्रभुत्व जमाने की होड़ लगती।ना तृष्णा बढ़ती और बढ़ती चली ज़ाती,ना अधिक धन, अधिक बल, और पृथ्वी के संसाधनों को अपने क़ब्ज़े में लेने की होड़ बढती।
ना अधिक विध्वंस शस्त्र बनते,और ना उन्हें जायज़ ठहराने, कई नए संयंत्र बनते।अधिक धन और प्रभुत्वता की होड़ ना होती तो ना व्यापार बढ़ता,ना अंतरराष्ट्रीय बाज़ार होते, ना उसे और बढ़ाने, दूर-दराज पहुँचने वाले मालवाहक पोत होते।
और ना उन्हें सुरक्षा देने, साथ साथ, युद्ध पोत बनते, नाहीं दोनो को संरक्षण देने, मारक हवाई जहाज़ बनते। ना अधिक ऊर्जा की माँग होती, ना ही खनिज तेल के हाथ मनुष्य जीवन की डोर होती।
मानव तब मानव ही रहता, प्रकृति के साथ लय में होता, ईश्वर की हर रचना का सम्मान करता, नम्र होता, विनम्र होता, अहंकार से दूर होता, ईश्वर के निकट होता।
पर अब सर्वत्र लोहे का बोल बाला है, जिसके पास अधिक लोहा, वही अधिक बलशाली है।ईश्वर से दूर, अहंकार की विशाल नाव पर सवार, मानव अब ख़ुद को समझता विश्व का संचालक है।
सब उस बेचारे निर्जीव लोहे के कारण है, जिसे क्या मालूम, मानव ने कैसे उसका दुरुपयोग किया है।जिससे ईश्वर की एक समृद्ध , सुंदर रचना को संरक्षित किया जा सकता था, उसी लोहे को स्वयं के विनाश का कारण बनाया है।
रश्मिकांत नागर,
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ऐक अत्यंत सुंदर व्याख्या । क्या लेखक ऐसा ही विशलेषण बालों ( hairs ) का भी करेंगें ….
“यदि बाल न होते” ।।