Dr Kohli is a graduate in Mechanical Engineering from Delhi College of Engineering, an MBA from IIM Ahmedabad, and holds a PhD from Indiana University. He is currently a professor of Marketing at California State University, Fullerton, where he has been teaching since 1992. Besides his academic pursuits and teaching, he loves to travel and is a voracious reader. Interestingly, he is also a stand-up comedian.
He is a visiting Professor at the School of Inspired Leadership (SOIL), Gurgaon. I met him first at SOIL many years ago. Dr Kohli also shares reviews of the books he reads on his Facebook page. He has kindly consented to allow me to post his book reviews on Vrikshamandir.
The story of “!” This cocky one-balled phallic-looking punctuation is arguably one of the most potent. It has a chameleon-like ability to impact the mood and convey emotions. “I am leaving” without the exclamation point doesn’t have the impact of a heartbreaking split expressed as “I’m leaving!”
Hazrat shares a fun joyride on the iconic exclamation point (exclamation mark in British English). Everything is created at some point. The exclamation point owes its birth to the 14th-century Italian scholar Alpoleio da Urbisaglia. (Venetian printer Alda MaNuzio merged the colon with the comma to create a semi-colon, a more nuanced pause, in 1492.) And it has survived since. And that’s evidence of its utility. Not everything survives. The horizontal-mirrored question mark was created in 1575 by English printer Henry Denham to suggest a rhetorical question. Then there was the interrobang, a question mark superimposed on an exclamation point. It was even included in Remington‘s 1968 typewriter. The interrobang was supposed to convey a mix of fear, disbelief, and emergency. While the question mark signaled bewilderment, the exclamation point conveyed distress. The latter was the bang of the interrobang. But neither the mirrored question mark nor the interrobang survived, and evolution discarded them in history’s dustbin.
The exclamation mark, on the other hand, is thriving—and gaining popularity. Perhaps for good reason. In a study evaluating ethical situations, phrases accompanied by an exclamation point were considered more commonly “very unfair“ rather than “unfair.” It induced greater activity in the medial prefrontal cortex, where we process alarming information.
Jeb Bush used it in his election signage as Jeb! Trump, of course, indulges in exclamation points. Not long ago, the use of multiple exclamation points in literature was considered undefined, the equivalent of wearing underwear on your head in public. But once it becomes a convention, it is stronger than mighty armies.
An Admirable Point is a short, sweet, and pleasing read!
“!” की कहानी।
यह एक छोटे से बिंदु और डंडी वाला ग़ुस्ताख़ विराम चिन्ह ! बेशक प्रभावी है। इसकी क्षमता गिरगिट जैसी होती है । यह पढ़ने वाले के यह मूड पर प्रभाव डाल सकता है । भावनाओं को प्रकट कर सकता है। बिना विस्मयादिबोधक चिन्ह के “मैं जा रहा हूँ” एक दिल दहलाने वाला असर व्यक्त करने मे उतना प्रभावी नहीं होता जितना विस्मयादिबोधक चिन्ह के साथ “मैं जा रहा हूँ !”
हज़रत ने विस्मयादिबोधक (ब्रिटिश अंग्रेजी में मार्क आफ एक्सकेलेमेशन) ) पर एक मज़ेदार एक विचार यात्रा साझा की है।सब कुछ किसी न किसी समय पर बनाया जाता है। विस्मयादिबोधक चिन्ह के जन्मदाता 14वीं सदी के इतालवी विद्वान आल्पोलियो दा उर्बिसेग्लिया को माना जाता है। (वेनेशियन मुद्रक आल्डा मानूज़ियो ने 1492 में कोलन और कामा को जोड़ कर सेमी कोलन बनाने के लिए बिंदु का इस्तेमाल किया था) और वह तब से बच गया है। यह उपयोगिता का प्रमाण है।
हर चीज़ नहीं बचती। इंग्लिश मुद्रक हेनरी डेनहम द्वारा 1575 में बनाए गए उलटा हुआ -मिररर्ड प्रश्न चिह्न एक रीटोरिकल प्रश्न को संकेतित करने के लिए बनाया था। फिर आया इंटेरोबैंग, एक प्रश्न चिह्न के ऊपर एक विरामचिह्न। यह रेमिंगटन के 1968 के बने टाइपराइटर में भी शामिल था। इंटेरोबैंग को भय, अविश्वास और आपात स्थिति के मिश्रण को प्रकट करने का काम करना था। प्रश्न चिह्न विस्मय का संकेत करता था, वहीं विस्मयादिबोधक चिन्ह पीड़ा और दुख को प्रकट करता था। यह अंतरोबैंग का धड़कना था। लेकिन न तो उलटे हुए प्रश्न चिह्न बचे, न ही इंटेरोबैंग बचा, और समय ने उन्हें इतिहास के धूलभट्टी में फेंक दिया।
विस्मयादिबोधक चिन्ह, दूसरी ओर, प्रचलन में है – लोकप्रियता प्राप्त कर रहा है। शायद अच्छे कारणों के लिए। मूल्यांकन करने वाले एक अध्ययन में, नैतिक स्थिति की दृष्टि से विस्मयादिबोधक विरामचिह्र के साथ वाक्यों को “बहुत अन्यायपूर्ण” माना गया था बनिस्बत बिना विस्मयादिबोधक चिन्ह जिसे केवल “अन्यायपूर्ण” पाया गया। इसके प्रयोग से हमारे मध्य प्रीफ्रंटल कोर्टेक्स में, जहां हम चौंकाने वाली जानकारी को प्रोसेस करते हैं, गतिविधि उत्पन्न होती है ।
जेब बुश ने इसे अपने चुनावी प्रचार में विस्मयादिबोधक चिन्ह का उपयोग किया था। जेब! ट्रंप, तो बेधड़क , विरामचिह्रों का प्रयोग करते हैं। कुछ समय पहले तक, साहित्य में विरामचिह्नो का उपयोग परिभाषित नहीं था, जैसे सार्वजनिक स्थानों पर अपने सिर पर अंडरवियर पहनना। लेकिन एक बार जब इसका उपयोग परंपरा बन जाता है, तो शक्तिशाली सेनाओं से भी ताकतवर होता है।
“एन एडमिरेबल प्वाइंट” एक छोटा, मीठा और आनंददायक पाठ्य है!
एक जून को शैलेंद्र ने एक वीडियो साझा किया। इस वीडियो में एक वैज्ञानिक डॉ सत्य प्रकाश वर्मा गाय/ भैंस के गोबर से प्राप्त उन दो उत्पादों के बारे में (२४-२८ मई के दौरान राजकोट हुए किसी मेले में) जानकारी दे रहे है, जिसमे एक किलो गोबर से ₹८०००-८५००० तक की आमदनी हो सकती है। जी हाँ, ८ से ८५ हज़ार रुपये एक किलो गोबर से! अगर विश्वास ना हो तो माँग लीजिए शैलेन्द्र से वीडियो लिंक। वैसे डॉ वर्मा जी स्वयं गोबर से उत्पाद बनाने वाले उद्योगपति बन गये हैं- (https://gobarwala.com) और कई गोबर उत्पादक उनसे सप्लायर के रूप में जुड़ भी चुके है। संक्षेप में, वर्मा जी ने गोबर से नये लाभदायक उद्योग स्थापित करने और ग्रामीण ग़रीबी उन्मूलन की असीमित संभावनाएँ पैदा कर दी हैं, उन्नति के नये द्वार खोल दिये हैं।
ये दो उत्पाद हैं: 1. नेनों सेल्यूलोज़, २. लिगनिन।इन उत्पादों का करीब एक हज़ार तरह से -कृषि और उद्योग दोनों में उपयोग हो सकता है।
वीडियो देखा तो मेरा सर चकरा गया। एक किलो गोबर से इतनी आय? और हम पिछले पचास-साठ वर्षों से दूध के पीछे पड़े हैं! पता नहीं इस दूध, गाय के चक्कर में कितने झगड़े फसाद हो गये; राज्यों के बीच तनाव हो गया- अभी ताज़ातरीन झगडा तो अमूल द्वारा कर्नाटक में दूध विक्रय के फ़ैसले को लेकर हुआ जिसने दक्षिण भारत के अन्य राज्यों भी अपने चपेट में ले लिया। ठण्डे दूध की बलिहारी, राजनीति गरमा उठी।
कोरोना काल में कुछ और ही नज़ारा देखने मिला। दूध उत्पादन का खर्च औसत से अधिक बढ़ा तो बाज़ार में दूध की क़ीमत भी तेज़ी से बढ़ी, लिहाज़ा शहरी उपभोक्तानाराज़ हो गये, किसानों को गाली देने लगे और ना जाने क्या क्या हो गया। दूध के उत्पादों की माँग, कोरोना के जाते ही तेज़ी से बढ़ी, लिहाज़ा देश का मक्खन- अमूल बाज़ार से ग़ायब हो गया, नाराज़ उपभोक्ता अमूल पर कालाबाज़ारी का आरोप मढ़ने लगे। अचानक दूध व दूध उत्पादों के संभावित आयात की खबरें अखबारी सुर्ख़ियाँ बन गई और फिर नये सिरे से राजनीति शुरू।
सौभाग्य से इस समय ‘गौरक्षक’ इतने सक्रिय नहीं हैं वरना अख़बारों की सुर्ख़ियों में वे ही रहते, हर टीवी चैनल पर तोड़-मोड़ कर, बढ़ा-चढ़ा कर दिनोंदिन छुटपुट घटनाओं को बारबार दिखा कर सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने और राजनीतिक रोटियाँ सेंकने का धंधा ज़ोर-शोर से चल रहा होता। पिछले साठ वर्षों में ‘गौ वंश’ के बचाव में अनगिनत विवाद हुए, अदालतों में मुक़दमेंबाज़ी हुई, मसला ज्यों का त्यों ही रहा और दूध का महत्व हमारी खुराक में बढ़ता ही गया। (इस गंभीर विषय पर पाठक मेरा अंग्रेज़ी में लिखा लेख ‘Cow, grass and beef’ वृक्षमन्दिर पर पढ़ सकते हैं)।
दूध को हमारी खुराक में इतना महत्व दिया गया (शाकाहारियों के लिये आवश्यक प्रोटीन का एकमात्र स्रोत) की १९६५ में, देश में दुग्ध उत्पादन बढ़ाने और देश की जनता को ‘न्यूट्रीशनल सिक्युरिटी’ देने के लिए राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड की स्थापना हुई, जिसकी बलिहारी मुझ जैसे (डेयरी साइंस जैसे विषय में विशेष योग्यताधारी) बेरोज़गार को नौकरी मिली।
अब एक बार दिमाग़ चकराया तो कल्पना ने उड़ान ली। जरा सोचिए, अगर डॉ सत्य प्रकाश वर्मा जी की शोध १९६० के दशक में हो गई होती, तो क्या होता और अब जब वे स्वयं गोबर आधारित उद्योग स्थापित कर चुके हैं, तो निकट भविष्य में क्या संभावनाएँ हैं?
मैंने अनुमान लगाने का प्रयास किया जिनमे से कुछ प्रस्तुत हैं।
1. दुग्ध उत्पादन से अधिक ज़ोर गोबर उत्पादन पर होता या अब होगा- यानी गोबर मुख्य उत्पाद और दूध सहउत्पाद। (उस परिस्थिति में क्या में डेरी साइंस के विषय का चुनाव करता? इस प्रश्न पर मैंने अपना निर्णय फ़िलहाल सुरक्षित रखा है। मुझे संदेह है कि कोई विश्वविद्यालय गोबर उत्पादन और प्रोसेसिंग पर विशेष पाठ्यक्रम जारी करता)।
2. १९६५ में स्थापित NDDB का अंग्रेज़ी में पूरा नाम क्या “National Dung Development Board” होता और हिन्दी अनुवाद होता ‘राष्ट्रीय गोबर विकास बोर्ड’! तब हममें से कितने यहाँ नौकरी करना पसंद करते? वैसे मेरे जैसे विशिष्ट योग्यताधारी के लिये शायद ही कोई विकल्प होता।
3. जरा सोचिए, अगर किसान को दूध के लिये ₹३५-४० प्रति लीटर के सामने ₹२०००प्रति किलो (ये मेरा प्राथमिक अनुमान है, गोबर उत्पादक को कच्चे माल की क़ीमत कम से कम ₹८००० का २५% तो मिलनी चाहिए) गोबर के लिये मिलेगा, तो कौन दूध बेचने की ज़हमत उठाएगा? गोबर के ‘फटने’ का डर नहीं, इसलिये कोल्डचेन की ज़रूरत नहीं। जब दूध सहउत्पाद ही रह जाएँतो, बच गया तो बेच दिया, फट गया, तो नाली में बहा दिया।
4. गोबर उत्पादन बछड़े के पैदा होने से लेकर अन्तिम दिन तक। यानी, आजीवन बिना “ड्राई पीरियड” सतत उत्पादन। पशु के नर या मादा होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। आजीवन गोबर जैसे महँगे उत्पाद देने वाले पशु को कोई किसान नहीं बेचता। यदि आप ने इस लेख को यहाँ तकभीपढ़ा है तो वृक्षमंदिर से नीचे दिये गये कमेंट बाक्स द्वारा संपर्क करें, आप इनाम के हक़दार हो सकते हैं। लिहाज़ा गौवंश बचाने का एजेंडा ही ग़ायब हो जाता और हमारी अदालतें इन कभी समाप्त ना होने वाले झगड़ों से मुक्त हो जातीं।
5. उद्योग पर असर तो ग़ज़ब का होता। दरअसल संभावनायें तो अब बनी है, जब नये स्टार्ट अप के लिये बैंक फाइनेंस देने को उत्सुक है, प्राइवेट निवेशक(Venture Capitalist) भी स्टार्ट अप में निवेश करने को उतने ही उत्सुक हैं। उन्हें अब गोबर में सोना दिखाई देने लगा है।
6. मुख्य उद्योग के साथ सहउद्योग भी निवेश आकर्षित करते। इनमें मुख्य होता गोबर देने वाले पशुओं के लिये ‘डाइपर’ ताकि प्रोसेसिंग के लिये मिलावट रहित, शुद्ध गोबर उपलब्ध करवाया जा सके।
अब बात करें गोबर संकलन की।
आनन्द पैटर्न पर गाँवों में दूध मंडलियों के स्थान पर गोबर मण्डलियों को प्राथमिकता मिलती। भारत का कोई गाँव अछूता नहीं रहता- आख़िर हर गाँव में गोबर देने वाले पशु तो हैं ही। जरा गौर कीजिए, भारत को कोई भी कोना, विकास की इस असीमित संभावना को लेकर उपेक्षित नहीं होता। प्राइवेट सेक्टर के लिये भी प्रचुर अवसर होते, विदेशी निवेशक भी पीछे नहीं रहते। आख़िर दुनिया की सबसे बड़ी मवेशी धारक अर्थव्यवस्था में गोबर से सोना पाने के अवसर को कौन हाथ से जाने देना चाहेगा?
गोबर प्रोसेसिंग में निवेश के विकल्प क्या होते/ हो सकते हैं?
1. गाँव के स्तर पर लघु उद्योग।
2. ब्लॉक/ तालुक़ा/ तहसील के स्तर पर मध्यम उद्योग।
3. ज़िला स्तर पर बड़ा उद्योग।
यानी ३ टियर सहकारी संस्थायें या गोबर उत्पादक कम्पनी- दोनों तरह केइंस्टिट्यूशनल इंफ्रास्ट्रक्चर के साथ अपना प्रोसेसिंग प्लांट भी बन सकता है।
इन विकल्पों के मद्देनज़र गोबर संकलन, स्टोरेज और प्रोसेसिंग के लिये उपयुक्त संयंत्रों/ उपकरणों की माँग के अनुसार संयंत्र उत्पादन के उद्योग निकट भविष्य में स्थापित हो सकते हैं। ये इंजीनियरिंग डिग्री धारकों के लिये अच्छी खबर होनी चाहिए। Indian Dairy Machinery Company के लिये प्रोडक्ट डाइवरसीफ़िकेशन का अवसर?
ग्रामीण विकास के इस अद्भुत चरण का सबसे अधिक असर में शिक्षा के क्षेत्र में देख सकता हूँ।
1. अगर गाँव में घर बैठे, कम से कम मेहनत किए, प्रतिदिन अगर १० किलो गोबर भी बेचा, यानि एक दिन में बीस हज़ार रुपये की आमद होने लगे, तो कौन पढ़ाई में सिर खपाना चाहेगा? स्कूली शिक्षा तो ठीक है, पर विश्वविद्यालयों में एनरोलमेंट पर विपरीत असर की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज भी बंद हो जाएँगे।भारत से शिक्षा के लिये विदेश जाने वालों की संख्या भी बहुत घट जाएगी। इसका विपरीत असर जहाँ विदेशी शिक्षण संस्थानों पर पड़ेगा, हमारी विदेशी मुद्रा बचेगी, परंतु बैंकों द्वारा शिक्षा के लिये दिये जाने वाले लोन में ख़ासी कमी आएगी। कुछ बिरले (जिन्हें अब सिरफिरा कहा जायेगा) ही उच्च शिक्षा का रुख़ करेंगे।
2. इसके विपरीत, दूसरी और, तकनीकी विश्वविद्यालयों में नये विषयों पर शोध होगा। मसलन: कौन सी नस्ल के गोबर में नेनोंसेल्यूलोज़/ लीगनीन की मात्रा अधिक पाई जाती है? क्या इसका सीधा संबंध पशु आहार से है? पशु आहार में किन घटकों की मात्रा बढ़ाने/घटाने से गोबर में नेनोंसेल्यूलोज़ एवं लीगनीन का अनुपात बढ़ाया जा सकता है?
3. गोबर से बने उत्पादों के हम सबसे बड़े उत्पादक / निर्यातक होंगे। अभी तक हम दूध में नम्बर १ हैं, अब गोबर में भी!
यानी गोबर से “सोना ही सोना”! नये गाने की पंक्तियाँ कुछ इस तरह हो सकती हैं,
“मेरे देश की गायें गोबर उगलें, गोबर उगले सोना,……………., मेरे देश की गायें”। (इन पंक्तियों पर मेरा कॉपीराइट सर्वाधिकार सुरक्षित समझें)।
मेरे लिये ये विषय गंभीर है। आप इसे हल्के-फुल्के मनोरंजन के रूप में लेना चाहते है या इससे प्रेरित होकर उद्यमी बनना चाहते है, वह आपका अपना निर्णय होगा।
बात उस जमाने की है जब मुझे केवल बोलना आता था । पढ़ना लिखना नहीं। ज़ाहिर है उम्र तब बहुत कम थी । अब यह सब बताने की क्या ज़रूरत ? जीवन के संध्याकाल में जब अक्सर यादें भी याद आ कर भूलने लगती हों तब यादों को याद कर उन्हें बताने की प्रक्रिया मे वह और उभर कर आती है।मैं उन्हें लिपिबद्ध भी कर पाता हूँ ।औरों के लिये नहीं तो अपने लिये ही सही ! जो है सो है!
शायद पाँच या छ साल का था। स्कूल नहीं था गाँव में। तहसील से कुछ सरकारी अधिकारी आये, स्कूल खोलना था। बाबू देव नारायण सिंह ( बुढवा बाबा, मेरे प्रपितामह) ने उन्हें सलाह दी कि स्कूल सड़क से लगी हमारे खलिहान के पास की ज़मीन जहां अखाड़ा हुआ करता था और अब भी है, उसके दक्षिण पश्चिम कोने पर स्थित मिठाउआ आम के नीचे से शुरू हो । बस शुरू हो गया इस्कूल और शुरू हो गई मेरी पढ़ाई ।
शिक्षा पहली से पाँचवीं तक वहीं बेसिक प्राइमरी पाठशाला चतुर बंदुआरी में हुई। केवल एक साल जब मैं तीसरी में था बाबूजी अपने पास ले गये देवरिया । बाबूजी तब देवरिया में ज़िला कृषि अधिकारी के पद पर तैनात थे। तब वहाँ मारवाडी स्कूल गरुडपार मे मेरी पढ़ाई हुई । देवरिया में ही मुझे सिर पर ब से बंदर ने काटा था । भ से भूकंप का अनुभव भी वहीं पहली बार हुआ
क ख ग घ … वर्णमाला मैंने अपने गाँव में मिठउआ आम के पेड़ के नीचे ज़मीन पर बैठ कर सीखी। लकड़ी की काली पट्टी पर जिसे दिये की कालिख लगा माई, अम्मा, मझिलकी मम्मू की शीशे की चूड़ी से रगड़ कर चमकाया जाता था। नरकंडे की क़लम से खडिया को पानी में घोल कर बनी स्याही से लिखा जाता था। नरकंडा और खडिया गाँव में उपलब्ध थे।एक घर बढ़ई भी गाँव में थे ।अब भी हैं।
जब मेरी पहली मुलाक़ात क से हुई तब जाकर पता चला कि क से कबूतर और क से कमल और भी बहुत से शब्द है । वैसे जब मैने लिखना पढ़ना सीखा तब तक मैंने कबूतर या कमल नहीं देखा । किताब थी या नहीं ठीक से शायद नहीं। थी तो कैसी थी वह भी याद नहीं । शायद उसी किताब में कबूतर और कमल का फ़ोटो देखा हो। प से पंडुख या पंडुखी तो बहुत थी गाँव पर । पर कबूतर से ठीक से पहचान शहर आ कर ही हुई। बरसात के बाद उनवल से बांसगांव वाली कच्ची सड़क के दोनों ओर के कुछ गढ्ढों में पानी भरा रहता था। कमलिनी के फूल पहली बार मैंने शायद उसी में देखे होंगे।
मौलवी सुभान अल्लाह और बाबू सुरसती सिंह पढ़ाते थे । बाद में हंसराज मास्टर साहब आने लगे । मौलवी साहब की चेक की क़मीज़ सफ़ेद धोती, काली पनही, पहनते थे । छाता हमेशा साथ रहता था। जब किसी को दंड देना होता वह छतरी बड़े काम में आती थी। कुंडी गले में लगा कर खींच कर उलटी तरफ़ से दो चार बार पिछाडा पीट दिया जाता था । पर मुझे कभी मार नहीं पड़ी। आख़िर हमारे पेड़ के नीचे स्कूल शुरू हुआ था ।
बहुत कुछ याद नहीं है पर मिठउआ पेड़ के आम की सुगंध और मिठास भरा ललाई लिये गूदा अभी भी नहीं भूला है ।
कुछ किताबें थी घर पर। रामचरित मानस, कल्याण के बहुत से अंक, श्रीमद् भगवद्गीता, गोरखपुर की क्षत्रिय जातियों का इतिहास आदि आदि। गीता पर पढ़ना विष्णु राव पराड़कर द्वारा शुरू किये गये दैनिक “आज” से ही शुरू हुआ होगा। दिल्ली के टेंट वाले स्कूल में जब मै छठवीं में पढ़ रहा था, मेरे बाबूजी ने नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक “ ज्ञान सरोवर” जिसका मूल्य एक रुपया था जन्मदिन पर भेंट की थी। दिल्ली की बात है । और यह तब की बात है जब हमारे यहाँ जन्मदिन शहरों में ही मनाया जाता था, मेरे गाँव जैसे गाँवों में तो क़तई नहीं।
क से काका भी होता है ।पर काका नाम ज्ञान सिंह था । काका के बारे में ज्ञ शीर्षक के अंतर्गत लिखा जायेगा।
कखगघअंगिआं, पंडितजीकेटूटि, गइलिआटंगिया
बचपन में सीखी “नर्सरी राइम” तब जब नर्सरी और राइम का मतलब भी पता न था
ख से ख़रबूज़ा, ख से ख़रगोश , ख से ख़लील
ख़रबूज़ा तो नहीं पर “फूट” जिसकी रिश्तेदारी ककड़ी परिवार में रही होगी देखा था । पांडे लोगों के घर के पीछे ऊत्तर की ओर वाले खेत में मकई बोई जाती थी । मचान भी होती थी चिरई उड़ाने के लिये । बड़ा अच्छा लगता था मचान पर बैठ चारों ओर देखने पर । ऐसा लगता था जैसे मै सारी दुनिया देख रहा हूँ।
ख़रबूज़ा बहुत बाद में जब भइया (मेरे पितामह ) भटौली बाज़ार से आया तो देखा और फूट की याद आ गई।
फूट नाम शायद इसलिये पड़ा होगा कि बड़ा हो कर फूट जाता था।
ख से खस्सी भी होता है। खस्सी का मांस जिसे कलिया या गोश्त या बाद में मीट भी कहने लगे भटौली बाज़ार से लाया जाता था।
भटौली बाज़ार से ख़रीद कर लाया कलिया या खस्सी का गोश्त ही शायद मुझे पहले पहले खिलाया गया होगा । वैसे गाँव में ख से ख़लील मियाँ के यहाँ भी कभी कभी बाबू लोग खस्सी कटवाते थे । मनौती माने गये बकरे की बलि की प्रथा आज भी है । यह घर के बाहर दुआरे पर एक किनारे में किया जाता था।
ख से ख़रगोश जब १९६८ मे आणंद में नौकरी शुरू की । १९७० मे जब एनडीडीबी कैंपस बना हमने से कुछ लोग रहेवासी बने तब एक आइएएस अफसर डेपुटेशन पर आये ।सहकर्तव्यपालक बने, मित्रता हुई जो अब भी बरकरार है। हम दोनों की तब शादी नहीं हुई थी। वह तब तीन बेडरूम वाले बंगले में रहते थे । मै बाइस कमरों वाले हास्टल का नया नया वार्डन बनाया गया एक सोने का कमरा, बैठकी और स्नानागार एवं शौचस्थान मेरे हिस्से आये। मेरे मित्र के पास दुनाली बंदूक़ थी । काली रंग की फ़ियेट कार और आलिवर नाम का छोटा सा कुत्ता भी था।
एनडीडीबी कैंपस से के पास ही आणंद वेटेरिनेरी कालेज कैंपस है । तब वेटरिनरी कालेज कैंपस का बहुत सा हिस्सा ख़ाली झाडीझंखाड से जिनमे बहुत से ख़रगोश रहते थे । शाम ढले सियारों की हुआं हुआं शुरू हो जाती थी । एक दिन हमारे मित्र को शिकार करने का मन किया । रात को गाड़ी ले कर वेटरिनरी कैंपस में बंदूक़ और अपने छुटकू से कुक्कुर आलिवर सहित निकल पड़े वेटरिनरी कालेज कैंपस में। हेड लाइट आन थी । कई ख़रगोश गाड़ी की आवाज़ सुन झाड़ियों से बाहर निकल आये । बंदूक़ चली। कुछ धराशायी हुए। उठा कर एनडीडीबी हास्टल लाये गये और वहाँ साफ़ सफ़ाई काट कटाई बाद मसाला वसाला डाल ख़रगोश के गोश्त का कलिया बना । ज़्यादा तो याद नहीं पर खाने वालों को कुछ ख़ास मज़ा नहीं आया ।
कखगघअंगिआं, पंडितजीकेटूटि, गइलिआटंगिया
बचपन में सीखी “नर्सरी राइम” तब जब नर्सरी और राइम का मतलब भी पता न था
ग से गाँव, ग से गाय, ग से गाभिन
मेरे गाँव का नाम चतुर बंदुआरी है। पर गाँव में रहने वालों में जैसा हर जगह होता है कुछ लोग अवश्य चतुर रहे होंगे और चतुराई के लिये प्रसिद्ध भी।फिर चतुर बंदुआरी नाम कैसे पड़ा ? बताया गया इसका कारण है कि तहसील मे एक और गाँव का नाम बंदुआरी है ।मेरे वाली बंदुआरी के किसी चतुर का उठना बैठना हाकिम हुक्काम से रहा होगा और उसी ने “चतुर” बंदुआरी के आगे डलवा दिया होगा। और हमारा गाँव चतुर बंदुआरी कहा जाने लगा। दूसरी बंदुआरी बंदुआरी खुर्द के नाम से जानी जाती है।
बंदुआरी यानि वन की दुआरी । यानि वन का द्वार । वन बहुत पहले रहा होगा। हमारे बचपन में तो नहीं । वन तो नहीं पर बाग ज़रूर थे जिन्हें हम बारी कहते थे।
छोटकी बारी, बडकी बारी हमारी थी । मैना की बारी और सकुंता की बारी हमारे पट्टीदारी के परमहंस बाबा की थी ।पुन्नर बाबा के परिवार की बारी रेहारे के आगे थी खाल में जहां बाढ़ का पानी आता था। अब बारी भी न रही । कुछ पेड़ ज़रूर है । कुछ नये पेड़ और बाग लगाने का प्रयास भी हुआ है । चतुर बंदुआरी वृक्षमंदिर भी उन्नीस सौ नब्बे के दशक में शुरू किया गया ।
मेरे बचपन में घर पर तीन जोड़ी बैल हल चलाने गाड़ी ढोने के लिये थे । गाय की जगह भैंस का दूध ज़्यादा पसंद किया जाता था । दो भैंसों की याद आती है करिअई और भुइरी। करिअई बहुत दूध देने वाली थी। बाद में पता चला मुर्हा नस्ल की थी। गाभिन थी। प्रसव के दौरान बच्चा मर गया था। जिस रात वह प्रसव पीड़ा में थी उस दिन शाम से ही मुन्ना बाबू (मुझसे पाँच साल बडे चाचा) गमगीन थे । रात में जब करिअई भैंस के बच्चे के बारे में दुखद समाचार मिला मुन्ना बाबू भोंकरिया कर बहुत देर रोये। मै भी उनकी देखा देखी रोने लगा। बचपन में मैं मुन्ना बाबू की पूँछ कहा जाता था। हरदम उनके साथ घूमने खेलने के लिये तत्पर ।
बहुत दिनों बाद जब मैं शहर में पढ़ने के लिये भेजा गया तब रविवार को गाँव आने पर गाय बंधी थी। हरियाणवी थी ।बहुत मान से रखा जाता था।
हमारे समय मे गीताप्रेस नामक सांड हुआ करता था। गायों को गाभिन करने का ज़िम्मा उसी पर था।
कखगघअंगिआं, पंडितजीकेटूटि, गइलिआटंगिया
बचपन में सीखी “नर्सरी राइम” तब जब नर्सरी और राइम का मतलब भी पता न था
घ से घर, घ से घूमना
चतुर बंदुआरी का हमारा घर दो खंड का था मतलब दो आँगन वाला था अब भी है। लगभग पौन एकड़ से थोड़ी कम ज़मीन पर बना यह घर पर पूरब की ओर एक पीपल का विशालकाय वृक्ष था । साथ मे लगा एक तेली परिवार का घर था । बाबा लोगों ने उन्हें अपनी ज़मीन माली लोगों के घर के पास दे कर बदले में उनकी ज़मीन ले ली थी । इस तरह पिपरे तर के बाबू लोगों के घर का क्षेत्रफल और बढ़ गया ।घर के बाहर पीपल का एक विशाल पेड़ था। हमारा परिवार पिपरेतर के बाबू लोगों के नाम से जाना जाता था।
अब वह घर बस यादों का घर बन कर रह गया हैं । कुँआ था । अब भी है। पर तब कुयें का पानी गगरी या गगरा से निकाल कर पिया जाता। बाद में नल यानी चाँपा कल जब बड़े आँगन में लगा तब शायद मेरी उम्र बीस एक साल रही होगी यानी पचास साल पहले । अब भी चलता है। चाँपा कल की पाइप कुयें के पानी के तल के नीचे तक जाती थी। उसी से पानी खींचा जाता था। अब पता नहीं, शायद बाद में पाइप ज़मीन में गाड़ा गया हो । दरवाज़े पर के कुयें पर गागर भर पानी सिर पर डाल कर नहाने में बड़ा मज़ा आता था। पानी निकालने के लिये बिदेसी अथवा अन्य लोग तैनात रहते थे। साबुन का इस्तेमाल भी वही पर पहली बार किया गया होगा।
दुआरे पर दोनो बाबा लोगों, काका और समय समय से हमारे घर आये पहुना लोगों के लिये खाट बिछी रहती थी।
जाड़े और बरसात में तो सब बरामदे में ही सोते थे पर गर्मी के दिनों में सबकी खटिया बिछ जाती थी बाहर उत्तर वाले दुआरे पर ख़ाली जगह पर -जो बचपन में बहुत बड़ा और अब छोटी सी जगह लगता है- खरहा से बोहार कर पानी छिड़का जाता था ताकि धूरि बइठ जाये और हवा चलने पर कुछ आराम मिले । बाँस का बना बैना भी मिल जाता था। एक लाइन में चार पाँच खटिया लग जाती थी। ज़्यादातर खटियाओं और तख़्तों की दो पंक्तियाँ लगती थी।
जाड़े मे दुआरे पर कउडा लगता था; “थर थर काँप रहे हैं आगी बार कर ताप रहे हैं”, को चरितार्थ करते हुये । फिर क़िस्से , कहानी, गपशप और तमाम तरह की चर्चा भी होती थी। रज़ई पाड़ें, जबसे मैंने होश सँभाला, हमारे घर पर रात गुज़ारने आ जाते थे। र से रजई या यूँ कहें राजेश्वर पांडे के बारे में लिखा जायेगा।
घ से घुघुआं भी होता है। जैसा नीचे के चित्र में दिखाया गया है बच्चे को दोनों पैरों पर ऊपर नीचे झुलाते हुये कहा जाता था
घुघुआं माना उपजल धाना
बाबू ( या बच्चे का नाम) लेकर, दोनों कान पकड़ कर कहना होता था
छेदा द इहे दूनों काना !
घुघुआं माना उपजल धाना छेदा द इहे दूनों काना !
उत्तर का ओसारा छोटा था। एक तरफ़ भइया ( मेरे पितामह) की खटिया दूसरी तरफ़ छोटा बरामदा और बाबा ( मेरे पितामह के छोटे भाई) की कोठरी , बीच में घर के अंदर जाने के लिये बड़े दरवाज़े से हो कर अंदर जाने का रास्ता । फिर दरवाज़ा बड़ा सा काले रंग के दो कपाट एक दालान से होते हुये छोटे ओसारे और बड़े आँगन मे जाने का रास्ता।
पूरब का ओसारा उत्तर के ओसारे की तुलना में काफ़ी लंबा था।
कखगघअंगिआं, पंडितजीकेटूटि, गइलिआटंगिया
बचपन में सीखी “नर्सरी राइम” तब जब नर्सरी और राइम का मतलब भी पता न था
इस ब्लाग को फ़ेसबुक पर मैंने कुछ दिन पहले पोस्ट किया था । कुछ प्रतिक्रिआयें मिली ।
श्री नागर लिखिस:-बहुत अच्छे लिखे हो भाई। एक गुज़ारिश है, वर्णमाला पूरी करना। पुरानी यादों के सहारे हिन्दी भाषा की वर्णमाला याद रखने का मज़ा कुछ और ही है।
श्री कुमार उत्तर दिहिस:- Rashmi Kant Nagar कार्य प्रगति पर है । अ से अः और क से ज्ञ तक सभी अक्षरों पर पर लिखा जाना है ।
श्री मजूमदार लिखिस:-Being a babu saheb from Gorakhpur and mother tongue is hindi but never read hindi as main subject either in school or in college. Same case with me . A bengali babu born in Patna , leaving in Gujarat last 40/45 years learned bengali after retirement by way of reading bengali story books and started writing articles .There could be few mistakes in Barnabas but appreciate writings first and lastly and politely mention mistakes of your BARNAMALAS.
श्री कुमार उत्तर दिहिस:-S B Sen Mazumdar अच्छा होता पटना के बाबू बंगाली में लिंखे होते । मैं गूगल चच्चा की मदद से भाव समझ जाता ।बबुआ अंगरेजी की जो रंगरेज़ी आप ने यहाँ की है पढ़ कर मज़ा आ गया।वैसे मैंने दसवीं तक तो हिंदी पढ़ी ही थी शायद बारहवीं तक भी, पर ठीक से याद नहीं और मार्कशीट पास में नहीं है।हिंदी, गणित और सामान्य ज्ञान के पर्चों में अच्छे नंबर पा (अंग्रेज़ी में बहुत ख़राब नंबर थे) मैं यूपी सिविल सर्विस की वन विभाग की सेवा में १९६५ में चुना गया था ।साक्षात्कार में भी पास हुआ फ़ाइनल लिस्ट में नाम था तीस में से सत्ताइसवां । अख़बार में नाम भी छप गया था।पर पाँच सीट कम की गई और हम रह गये । भाग्य में एनडीडीबी की फ़र्ज़ बजाना और आप जैसे उत्तम कोटि के सहकर्मियों का साथ निभाना जो लिखा था।
बाबू अनिरुद्ध सिंह लिखिसः- जैसा आप को विदित हो कि मेरा धर भी गोरखपुर में ही है। कयी दफा बाँसगांव से उनवल होता हुआ, गोरखपुर, गया हूँ। चतुर बनदुआरी तो नहीं देखा परन्तु जो आपनें शब्दों के माध्यम से पीपल तर के बाबू के घर, मिठुआ आम तर के स्कूल तथा गाँव-जवार का चित्रण किया है, तो ऐसा लगता है कि सब देखा हुआ है। कार्पोरेट ने शायद एक साहित्य के आदमी को साहित्य से और अपने गाँव से दूर रखा! नहीं बाँध सकी, किसी शहर की जूही की कली,उस पागल परिंदे का पर। उसके गाँव की, बनेली कली, उसे जब बुलायेगी, वह चला जायेगा। अन्ततः आप की लम्बी उम्र की कामना के साथ, आप को सादर प्रणाम 🙏
श्री कुमार उत्तर दिगिसः- Anirudh Singh बहुत बहुत धन्यवाद । पता नहीं मुझे ऐसा भान था कि आप देवरिया के किसी गाँव से हैं । पर मैं ग़लत हूँ। आप के गाँव का नाम बताइयेगा । मेरा गाँव बांसगांव से उनवल जाते समय भटवली बाज़ार के बाद आता है । बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है आपकी इन पंक्तियों में:- “नहीं बाँध सकी, किसी शहर की जूही की कली,उस पागल परिंदे का पर। उसके गाँव की, बनेली कली, उसे जब बुलायेगी, वह चला जायेगा।”मैंने गाँव छोड़ा पर गाँव ने मुझे न छोड़ा । अब गाँव भी वह न रहा जो मेरे समय में था। तब गाँव वास्तव में और अब केवल मन में रहता है । मेरे बड़े बुजुर्ग और बहुत से समकालीन अब न रहे। रह गईं उनकी यादें । खट्टी मीठी यादों की चासनी और यथार्थ की त्रासदी सब अपने अंत: में संजोये बैठा मैं कुछ समय उन पुरानी यादों में बिता लेता हूँ । शांति मिलती है।आपकी शुभेच्छाओं के लिये धन्यवाद । आप और आप के समस्त प्रिय जनों के लिये मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ 🙏 आप बहुत अच्छा लिखते है । वृक्षमंदिर.काम के लिये कुछ लिखें !
श्री अवधेश त्रिपाठी लिखिसः- पढ़कर बहुत आनन्द आया। अपना बचपन याद आ गया। भोजपुरी शब्दों की बहुत सुन्दर प्रस्तुति है । बधाई!
श्री जतीन्द्र कुमार सूद लिखिसः- Sir, Aap kamal ka likhate hain. Poora pada. Par abhi baaki hai. 🙏🙏
श्रीमती नीला गुप्ता लिखिसः- Very interesting memories and creates clear visuals of those lovely days. Mujhe mere bachpan ki yaaden taza hui
होइहें सोई जो राम रचि राखा। को करि तरक बढावहिं साखा।
अक्तूबर२०२२ के बाद डाक्टर मुकुंद नवरे से मई २०२३ मे पुनः संपर्क स्थापित हुआ। उनके जन्मदिन पर फ़ोन पर बातचीत भी हुई।
मेरी उम्र के लोगों की बातों मे सलाम दुआ, एक दूसरे के स्वास्थ्य आदि की बातों के बाद ज़्यादा समय बीते दिनों की बातें करने में बीतता है। जो बीत गया उसे बयान करने में ऐसा लगता है जैसे हम उन क्षणों को फिर जी रहे हैं।
बातो ही बातों में उन्होंने भारत में अपने घर में पड़ी पुरानी चीजों की देखभाल और सफ़ाई के दौरान पुरानी संदूक से मिली अपने पिता जी की पुरानी डायरी की बात बताई। उसी डायरी में श्री आसाराम वर्मा की हस्तलिपि में लिखी निम्नलिखित कविता “संगीत ऐसा भी जो मिट्टी गाये” के बारे में बात हुई जो उन्होंने मुझे फ़ोन पर पढ़ कर सुनाई।
मुझे सुन कर आनंद आया। खेती और संगीत के शाब्दिक समन्वय का यह प्रयोग मन को भा गया। सुनते समय लगा जैसे सात आठ साल का “मैं”, अपने गाँव पर अपने खेतों के बीच की मेड़ों पर चल रहा हूँ । बरसात हो कर बादल छट रहे हैं और बादलों के सफ़ेद और कजरारे बच्चे सूरज से आँख मिचौली खेल रहे हैं। कुछ बालियाँ निकल चुकी हैं और बहुत सी निकलने के लिये मचल रही हैं। धान की सुगंधित मंद पवन सारे वातावरण में फैल रही हैं।
मेरे पूछने पर अपने पिता जी और श्री आसाराम वर्मा के बारे में डाक्टर नवरे ने बताया और बाद में व्हाट्सएप पर लिख कर भी भेजा, जिसके आधार पर यह भूमिका नीचे लिख रहा हूँ ।
डाक्टर मुकुंद नवरे के पिता श्री लक्ष्मण नवरे ( १९२०-२००२), सन १९४० से १९५५ तक सातारा नगर परिषद की पाठशाला मे शिक्षक थे। बाद मे उन्होने साहित्य सुधाकर, साहित्य रत्न परीक्षाऐं उत्तीर्ण की और हिंदी प्रचारक बने। सातारा मे उन्होंने राष्ट्रभाषा विद्यालय भी चलाया था। १९५६ में नागपुर स्थित शासकीय पटवर्धन विद्यालय में हिंदी शिक्षक पद पर नियुक्त होकर भी वे हिंदी प्रचारक बने रहे। १९६३ मे हिंदी विषय में एम ए करने के बाद वे कालेज में प्रोफेसर बने।
श्री लक्ष्मण नवरेकावर्धा स्थित राष्ट्रभाषा प्रचार समिति में काम के लिये अक्सर आना जाना होता था । वहां श्री आसाराम वर्मा भी हिंदी प्रचारक के नाते आया करते थे। इसी कारण दोनो मे मैत्री बनी। दोनों साहित्य प्रेमी थे और कविताएं करते थे।
डाक्टर मुकुंद नवरे के पिता जी की मराठी और हिंदी में कविताएँ लिखते थे। पुरानी संदूक में मिली नोटबुक में श्री लक्ष्मण नवरे ने अपने मित्र श्री आसाराम वर्मा को कभी कविता लिखने का आग्रह किया होगा जिसके फलस्वरुप आसाराम जी की दो कविताएं डाक्टर नवरे को मिलीनोटबुक में मौजुद है।
१९७६ में जब डाक्टर मुकुंद नवरे जलगाँव मे डेयरी बोर्ड की टीम के लीडर थे तब अपने पिता जी के साथ भुसावल जाकर श्री आसाराम वर्मा से मिले भी थे ।
संगीत ऐसा भी है, जो मिट्टी गाए
संगीत ऐसा भी है जो मिट्टी गाए
संगत के लिये, हज़ार हज़ार तारों का, सुनहरा तानपूरा सूरज छेड़े तो कभी लाख लाख,छलकते हुए मृदंगों को बादल खन खनाये, और फिर मिट्टी के सुनहरे कंठों से धानों का ध्रुपद, तिल के तराने, अरहर की आसावरी, ज्वार की जयजयवंती, मटर का मालकोस, गेहूं की भैरवी फूटे, गहगहाए लहलहाए संगीत ऐसा भी है जो माटी गाए
धरतीएकप्रौढ़ानायिका
धरतीएकप्रौढ़ानायिका
बावरे ! परदेसी सैंया साँवरे जाओ जी जाओ अब तो अपने गाँव रे !
चौमासा कब का बीत गया, मैं भरी भरी, तू रीत गया, जाओ जी जाओ अब तो अपने गाँव रे !
पिया, भुजाओं में इतना कसो नहीं, अंगना में मेरे बसो नहीं, मैं अब केवल प्रिया नहीं, मां भी हूँ , जानो
हाथ जोड़ती हूँ जाओ !
देखो पलने में मक्का मचल रहा है, क ख ग लिखना सीख गई मूँगफली, बस्ता लिये कपासी खड़ी, मदरसे जाने को
पहन लिया अरहर ने, घेरदार घाघरा घूमर नृत्य मचाने कोजुआर हो गई हमारे कंधों तक ऊँची,व्याह के योग्य
पहनने लगी नौगजी लुगडा नागपुर, धान सुनहला जामा पहन, बन गया कब का दूल्हा
अब तुम ही सोचो, ये सब देखेंगे रंग रलियां हमारी
वह देखो कोई देख रहा है,
शायद, अलसी कलसी लिये खड़ी है,नन्हे गेहूं की उँगली पकड़े
अब तो छोड़ो छोड़ो सैंया ! मैं पड़ूँ तुम्हारे पाँव रे!
परदेसी सैंया, साँवरे ! जाओ जी जाओ अब तो अपने गाँव रे !
रूठो नहीं सजनआठ मास के बाद, अजी फिर से अइयो, और सागरमल की बड़ी हाट से सजन,गोल गोल गीले घुंघरून की, छुम छुम पैंजनिया लइयो
अब क्या करें ? या तो गीता ग़लत है अथवा गरूड़ पुराण !
शायद जीव को यातना दी जाती है आत्मा को नहीं पर यदि आत्मा शरीर से अलग हो जाये तो जीव जीवित न रहेगा फिर मरे हुये जीव को यातना दे कर यातना देने वाले को क्या मिलेगा? प्रश्न विचारणीय है ।
आख़िर हर मानवी की सोच और मान्यतायें ही उसे सही लगती है।तो चलिये कुछ देर के लिये ही सही मान लेते हैं न गीता ग़लत न ग्रहण पुराण । पर फिर भी सवाल तो उठता ही है कि सही क्या है ?
हे अर्जुन मैंने तुझे गूढ़ से गूढ़ गुप्त ज्ञान बताया / समझाया ।और उसके बाद जो कुछ मैंने कहा उस पर तू विचार कर , मंथन कर और फिर जो तेरी इच्छा है वैसा कर ।
गीता १८.६३
अब दो रास्ते हैं पहलाः- “जो है सो है” के भाव में इस सही ग़लत की खोज के झंझट में ही न पड़ें।आखिर ज़िंदगी मे का बा ? अरे भाई बहुत कुछ बा ! और भी पहेलियाँ, गुत्थियाँ हैं उलझाने के लिये, सुलझाने के लिये । कोई और समस्या ढूँढ लें और अपने समय का सदुपयोग अथवा दुरुपयोग करें।
दूसरा रास्ता हैः- “जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ” के भाव में धोती कुर्ता किनारे रख, कच्छा सँभाल वाद विवाद के गहरे पानी मे उतर कर गोते लगायें। कुछ न कुछ तो ज़रूर मिलेगा ।
मेरे महरमंड में जो विचार और मान्यताएँ हैं यह ज़रूरी नहीं कि दूसरा वैसा ही सोचता हो। ऐसी समस्याओं से सामना होने पर मेरे गाँव “चतुर बंदुआरी” के छोटकू काका कहा करते थे “ अरे बाबू बहुतै बादरेसन है बायुमंडल मे” !
बहुत खोज के बाद जब लगभग हम निराश हो अपने थाने पवाने लौटने वाले थे अचानक गीताका यह श्लोक (अध्याय 18, श्लोक 63) मिल गया ।
हे अर्जुन मैंने तुझे गूढ़ से गूढ़ गुप्त ज्ञान बताया / समझाया ।और उसके बाद जो कुछ मैंने कहा उस पर तू विचार कर , मंथन कर और फिर जो तेरी इच्छा है वैसा कर ।
रोब की भाषा अंग्रेज़ी मे रंगरेज़ी करें तो, श्री कृष्ण कह रहे हैं: “I have told you that you should need to know, now think about it, and do as you wish. There is no compulsion.
अब दुनिया मे भगवान, गाड या अल्लाह में विश्वास रखने वाले आस्तिक तो हैं ही । वह भिन्न धर्मावलंबी हो सकते है । पर बहुत से लोग नास्तिक भी हैं।
भारतीय संदर्भ मे नास्तिक जीवन दर्शन चार्वाक दर्शन है।श्री लीलाधर शर्मा पांडेय द्वारा संकलित एवंप्रकाशित ज्ञानगंगोत्री (ओरियंट पेपर मिल्स, अमलाई, म.प्र. पृष्ठ 138) के अनुसार, ( Source )
ऐसी समस्याओं से सामना होने पर मेरे गाँव “चतुर बंदुआरी” के छोटकू काका कहा करते थे “ अरे बाबू बहुतै बादरेसन है बायुमंडल मे” !
“मानव जीवन का सबसे प्राचीन दर्शन (philosophy of life) कदाचित् चार्वाक दर्शन है, जिसे लोकायत या लोकायतिक दर्शन भी कहते हैं । लोकायत का शाब्दिक अर्थ है ‘जो मत लोगों के बीच व्याप्त है, जो विचार जन सामान्य में प्रचलित है ।’
इस जीवन-दर्शन का सार निम्नलिखित कथनों में निहित है:
“मनुष्य जब तक जीवित रहे तब तक सुख पूर्वक जिये । ऋण करके भी घी पिये । अर्थात् सुख-भोगके लिए जो भी उपाय करने पड़े उन्हें करे । दूसरों से भी उधार लेकर भौतिक सुख-साधन जुटाने में हिचके नहीं । परलोक, पुनर्जन्म और आत्मा-परमात्मा जैसी बातोंकी परवाह न करे । भला जो शरीर मृत्यु पश्चात् भष्मीभूत हो जाए, यानी जो देह दाह संस्कार में राख हो चुके, उसके पुनर्जन्म का सवाल ही कहां उठता है । जो भी है इस शरीर की सलामती तक ही है और उसके बाद कुछ भी नहीं बचता इस तथ्य को समझ कर सुख भोग करे, उधार लेकर ही सही । तीनों वेदों के रचयिता धूर्त प्रवृत्ति के मसखरी निशाकर रहे हैं, जिन्होंने लोगों को मूर्ख बनाने केलिए आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य जैसी बातों का भ्रम फैलाया है ।
चार्वाक सिद्धांत का कोई ग्रंथ नहीं है, किंतु उसका जिक्र अन्य विविध दर्शनों के प्रतिपादन में मनीषियों ने किया है । उपरिलिखित कथन का मूल स्रोत क्या है इसकी जानकारी अभी मुझे नहीं हैं ।”
तोअगरआपगीताकोमानतेहैंतबतोजैसाश्रीकृष्णनेकहाविचारकरेंमंथनकरें, फिर “यथाइच्छसितथाकुरु” केअनुसारआत्माकोअजरअमरमानेअथवानमानें! 😀🙏🏼।
स्थायी है किन्तु मन से भी तीव्र देव नहीं पहुंचे इस तक यह गया उनके पूर्व. स्थिर यह जाता है दौडने वालों के आगेवायु करवाता है सभी कर्म इस में स्थित होके..
गतिशील है यह और स्थिर भी दूर है और पास में भी.यही है इस सब के अन्दर और यही है इस सब के बाहर..
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानु पश्यति.सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते.. 6..
है देखता है जो सभी जीवों को जो स्वयं में स्थित.और सभी जीवों में स्वयं को होता है वह द्वेष रहित..
यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः.तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः..7..
होगये हैं सभी प्राणी जिसके लिये आत्मस्वरूप. क्या शोक क्या मोह उसके लिये देखता है जो सर्वत्र एक रूप..
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुध्दमपाप विध्दम्. कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यःसमाभ्यः8..
पहुंचता है वह उस दीप्त, अकाय अनाहत के पास है जो स्नायु रहित, निष्पाप और शुध्द. कवि, मनीषी, निष्पाप और स्वयम्भू कर रहा है अनन्त काल से सब की इच्छायें पूर्ण..
अन्धं तमः प्रविशन्ति ये विद्यामुपासते.ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः..9..
गहन अन्धकार में जाते हैंअविद्या के उपासक. और भी गहन अन्धकार में जाते हैं विद्या के उपासक..
अन्यदेवाहुर्विद्ययाऽन्यदाहुरविद्यया. इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे.. 10..
भिन्न है वह विद्या और अविद्या दोनों से.सुना और समझा है यह हमने बुध्दिमानों से..
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह. अविद्यया मृत्युं तर्त्वां विद्ययाऽमृतमश्नुते..11..
जानता है जो विद्या और अविद्या दोनों को साथ साथ.पार करके मृत्यु को अविद्या से, विद्या से करता अमरत्व को प्राप्त..
हे पूषन, एकाकी ॠषि, नियन्ता, सूर्य, प्रजापति के पुत्र खींच लो अपना प्रकाश, फ़ैलाओ अपनी किरणें. देखता हूं तुम्हारा कल्याणकारी रूप मैं ही हूं वह व्यक्ति खडा है जो सुदूर में..
मैंने एक अमरोहवी दोस्त को लिखा, पेशे ख़िदमत है जौन एलिया का एक शेर,
मै भी बहुत अजीब हूँ, इतना अजीब हूँ कि बस
खुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं”
ग़ौरतलब हो कि “जौन” अमरोहा के बड़े ऐसे घराने से थे जिसने कई पुश्तों तक अदब, शायरी, फ़िल्मों आदि में अपने योगदान से बहुत नाम कमाया । जौन बाद में पाकिस्तान चले गये । मेरे अमरोहवी दोस्त के अंदर का छुपा शायर जाग उठा और उनका ताबड़तोड़ जबाब फ़टाक से आ गया।
“मियाँ अमरोहा का शायर ढूँढ लाये हो । पूरा नाम है “ सैयद हुसैन साबित-ए-असगर नकवी”।क़रीब क़रीब हमारे मुहल्ले के थे यह बात दीगर है कि हमें हमारे मुहल्ले का पता ही नही।अगर, मगर, किंतु, परंतु, चूँकि, इसलिये, आबादी, बर्बादी, इश्क़, मोहब्बत, रोना , पीटना वग़ैरह कुछ लफ़्ज़ों में ज़िंदगी बयां हो जाती है।”
मै भी बावजूद बुढापे कोई कम नही । उन्हें जबाब दे दिया है, देखें अब उनका क्या कहना है।
“लफ़्ज़ों के मायने समझाने, समझने, समझ कर मायने बदलने और भुलाने में ज़िंदगी बयां हो जाती है। वाह उस्ताद तिरी लफ़्ज़ों की लफ़्फ़ाज़ी से तो नाकों दम है वाह वाह ततैया खां फ़क़त तेरा ही तो दम है”
His text message forwarding the video clip forwarded read;
“I always thought that WA university fowards are bullshit…. but … this person speaks something true. Similar to Geeta Gyan: क्यूँ चिंता करते हो …..”
Video clip sent by Dr SC Malhotra
I replied to Dr Malhotra; “बहुत बढ़िया बोला है । 1990 के दशक में Deepak Chopra की एक किताब ख़रीदी थी । पढ़ी भी । उसमें भी कुछ ऐसा ही वर्णन था।”
फिर मूड बना मैंने अपने आप से कहा चलो आलस छोड़ो कुछ इस विषय पर लिखो।
चिंता, आशा, ममता और मैं
डाक्टर मल्होत्रा द्वारा भेजे विडियो क्लिप देखने के बाद मुझे पूज्य दादा जी पांडुरंग शास्त्री आठवले से सुना यह प्रसंग याद आया।
बात उन्नीस सौ नब्बे के मध्य के दशक की है। मै आणंद में नौकरी करता था। दादा जी पाण्डुरंग शास्त्री और स्वाध्याय परिवार से जुड़ चुका था। वडोदरा के किसी गाँव मे दादा जी आने वाले है मेरे मित्र और सहकर्मी प्रवीण भट्ट को जब यह जानकारी मिली तो वह दादा जी के दर्शन के लिये तैयार होने लगे। मुझ से पूछा और मै भी झट से तैयार हुआ । फिर हम पहुँच गये माही नदी के पार उस गाँव में जहां दादा जी स्वाध्यायियों के बीच बैठे थे । जाड़े के दिन थे। सूरज अभी डूबा न था।दादा जी चिंता के विषय पर उठाये गये प्रश्न के उत्तर में एक उदाहरण दे कर समझा रहे थे।
दादा जी कह रहे थे, “भगवान जन्म के साथ ही मनुष्य को दो नौकरानियाँ दे देते हैं। एक “चिंता” दूसरी “आशा” । मानुष बड़ा हो कर भूल जाता है कि चिंता और आशा नौकरानियाँ है और उनसे घरवाली की तरह बर्ताव करने लगता है। यहाँ तक की अपनी घर वाली की जगह अपना अधिक से अधिक समय समय चिंता और आशा के साथ बिताता है।”
मुझे लगता है इस विषय में मैं अकेला नहीं हूँ। चिंता और आशा तो जीवन पर्यन्त साथ रहती हैं । कमबेस हो सकता है । एक ओर चिंता आशा की उड़ान को रोके रखने में कारगर है वही आशा, चिंता की बदलियों को हटा, मानवी को कर्तव्य पथ पर चलने के लिये सहायक बन सकती है। पर कैसे ?
संवाद को आगे बढ़ाने के लिये तब बातचीत, बहस, बकवास, बकैती, बड़बोली, बदगुमानी, बतफरेबी, बतफरोशी, बकचोदी में से किसी भी एक और एक से अधिक विधाओं का उपयोग किया जा सकता है।
जैसे दादा जी ने कहा था यह तभी संभव है जब हम आशा और चिंता को नौकरानी समझें और उनसे उसी तरह का व्यवहार करें । घरवाली जैसा नहीं । पर यह बहुत कठिन कार्य है ।
अपनी बात करूँ , और सच में कहूँ तो विशेषकर बुढ़ापे में बातें छुपाने का या अगम बगडम बोल निकल जाने का कोई फायदा तो होता नही, इसलिये जो कुछ कहूँगा कोशिश रहेगी कि जो कहा वह बतर्ज खर्री खेल फरुख्खाबादी ही हो । पर हूँ तो आदमी ही इसलिये गलती भी हो सकती है।
पहले जब मै जवान था लगता था जो दिन हैं ज़िंदगी के बहुत हैं । मैं जवानी में बुढ़ापे के बारे में ज़्यादा नहीं सोचता था। समय भी नहीं होता। बहुत सी आर्थिक और पारिवारिक समस्याओं से निपटना होता था। काम पर भी बहुत सी कठिनाइयों से जूझना होता था।
पहले लगता था ज़िंदगी बड़ी लंबी है। पर अब तो लगने लगा है कि कुछ ही दिन, महीने या साल बचे हैं इस जीवन के।
प्रभु जाने !
2020-2022 के दौरान कोविड का भारत से दूर लंबा प्रवास, हृदय रोग और कैंसर से उत्पन्न परिस्थितियों से जूझ कर निकल आने पर यह अहसास भी है ही कि जितने भी दिन बचे हैं वही हैं और बहुत है।
बहुत से परिवार के, मित्र और सहकर्मी मुझे छोड़ कर अपनी अनंत अनजान यात्राओं पर चले गये । जब उनकी याद आती है तब तो मन में अक्सर प्रश्न उठता है करता है कि मैं क्यों रह गया ।
मुद्दे की बात यह है।
उम्र खिसकती रही, बचपना मरता गया, जवानी चढ़ती गई फिर ढल भी गई। बुढ़ापा आ गया। अब वृद्धावस्था का इंतज़ार है।
पर अब भी “मर गये” बचपन और “ढल गई” जवानी की यादें अक्सर उभर आती है अचानक बिन पूछे बिन बताये! ग़ज़ब !
यही हाल “चिंता” का है । चिंता का उत्पात ख़त्म ही नहीं होता। ग़नीमत है मेरे साथ साथ मेरी “चिंता” भी बुढा गई है अतः अब उतनी तेज तर्रार नहीं है ।
“आशा” का भी वही हाल है । वैसे शेष जीवन तो अब केवल बिताना ही है । जो करना था कर चुके । जो होना था हो चुका। जो है सो है।
अब बुढ़ापे में चिंता और आशा से जब भी बात होती है तो दोनों कहती है दादा जी के प्रवचनों के बाद आप ने कोशिशें तो बहुत की पर हम से पीछा न छुड़ा सके । ऊपर से आपने एक और “मित्र” ममता जो पाल रखी है। आपकी जो “ममता” है न उसी के नाते तुम्हें यह सब हुआ, हो रहा है, और आगे भी होता रहेगा।
ममता, सुधि पाठकों आपको बता दूँ मेरी कुछ पूर्ण और बहुत सी अपूर्ण इच्छायें हैं । उन्हें अब भी मै भुला नहीं पाता। चिंता और आशा अब ममता को अच्छी तरह से जानने लगी हैं।
उम्र खिसकती रही, बचपना मरता गया, जवानी चढ़ती गई फिर ढल भी गई। बुढ़ापा आ गया। अब वृद्धावस्था का इंतज़ार है। पर अब भी “मर गये” बचपन और “ढल गई” जवानी की यादें अक्सर उभर आती है अचानक बिन पूछे बिन बताये! ग़ज़ब !
मैंने गाँव छोड़ दिया पर गाँव ने मुझे अब तक न छोड़ा। मैंने एनडीडीबी छोड़ दी पर मेरी “पुरानी” एनडीडीबी ने मुझे अब तक न छोड़ा।
ममता और मूर्खता दोनों शब्द म से शुरू होते हैं। लगता है कि ममता, ममत्व और मूर्खता में घनिष्ठ आपसी संबंध है।
मेरा गाँव मेरे बचपन का गाँव न रहा , मेरा परिवार प्रतिष्ठित था, दूर दराज तक “एका” के लिये जाना जाता था अब पहले जैसा न रहा।
पुरानी एनडीडीबी और आज की एनडीडीबी में कोई साम्यता नहीं है ।
समय बदला, बदलते समय में संदर्भ और सत्ता के साथ समीकरण बदले । बहुत कुछ वह हुआ जो न होना चाहिये था, पर शायद होना था इसलिए हुआ।
पर फिर भी दिल है कि मानता नहीं । यह वस्तुस्थिति को न मानना और चिपके रहना ही तो ममता है और नहीं तो ममता और क्या है ?
फिर भी, आज भी मुझे गाँव, गाँव के परिवार और पुरानी एनडीडीबी से उतना ही लगाव है जितना पहले था।
एनडीडीबी छोड़ने के बाद गुड़गाँव में ग्रोटैलेंट कंपनी में कार्यरत हुआ। कंपनी के बोर्ड का मेंबर और कर्मचारी नंबर दो बना। मेरे मित्र और भाई समान श्री अनिल सचदेव तथा बोर्ड के सभी सदस्यों और कर्मचारियों सभी से सम्मान मिला। जीवन एक नई डगर पर चल पड़ा। एनडीडीबी का कर्मचारी नंबर पंद्रह जिसने वघासिया बिल्डिंग वाले आफिस के किचन से मई 1968 से नौकरी शुरू की थी उसने सन 2000 अगस्त से अनिल के घर के बेसमेंट को अपना आफिस बना नया काम शुरू किया। ग्रोटैलेंट और SOIL से जुड़ा हूँ अब भी। लगाव भी उतना ही है ।
मेरी घरवाली को मेरी इन दो नौकरानियों मेरी चिंता और आशा से शुरू से ही तकलीफ़ रही है । आख़िर उसकी भी तो वही नौकरानियाँ है । चिंता, और आशा । साथ मे ममता भी है !
आप की भी अपनी चिंता, आशा और ममता होंगी 😃🙏।
क्या ख़याल है ? ब्लाग लिखेंगे आप या अपने कमेंट्स से इसे और आगे बढ़ाने में मदद करोगे ?
आवाहन है जुड़िये , संवाद को आगे बढ़ाइये । सुनील शुक्ल ने कहा कभी कभी बात अड़ जाती है।
संवाद को आगे बढ़ाने के लिये तब बातचीत, बहस, बकवास, बकैती, बड़बोली, बदगुमानी, बतफरेबी, बतफरोशी, बकचोदी में से किसी भी एक और एक से अधिक विधाओं भी का उपयोग किया जा सकता है।
मैंने ये कहानी उनसे पहली बार उस समय सुनी थी, जब मैं कोई पाँच साल का था। उसके बाद ये सिलसिला कोई चार-पाँच वर्ष और चला होगा। पर इस कहानी के बारे में विशेषता ये है, की मैंने ये कहानी हर बार गहरी नींद में सुनी और आज ७० वर्षों बाद भी ठीक वैसे ही याद है, जैसे पूरे होशो-हवाश में अभी अभी सुनी हो।
मेरी माँ ये कहानी, वर्ष में सिर्फ़ एक बार, महालक्ष्मी व्रत की रात को कहती थी। क्योंकि इस व्रत की पूजा मध्य रात्रि को होती थी, घर के सभी सदस्य गहरी नींद में होते थे। लिहाज़ा ये पूजा वो अकेले ही करती थी। इसका साथ सिर्फ़ में देता, माँ के आस पास गहरी कुंभकर्णी नींद में। मेरा इस रात माँ के पास सोने का एकमात्र कारण, एक विशेष गुजराती व्यंजन “दहितरा” था, जो कोई दस अन्य व्यंजनों के साथ, माँ भोग के लिये बनाती थी। माँ पूजा समाप्त होने पर, भोग की थाली वाला दहितरा, मुझे नींद से उठा कर खिलाती। जैसे ही दहितरा पेट में जाता, मैं वापस अपनी कुंभकर्णी नींद की भेंट चढ़ जाता।
दरअसल इस कहानी को ‘व्रतकथा’ कहना अधिक उचित होगा। गुजराती भाषा में इस कथा को वह अपनी एक विशिष्ट शैली में कहा करती थी जिसमें कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग होता था जिन्हें सामान्य तौर पर प्रयोग में नहीं देखा-सुना जाता है, उदाहरण “शाप्टा-शोप्टे’, यानी चौपड़का खेल।
मैं इस मूल गुजराती व्रतकथा को हिन्दी में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ। व्रतकथा है तो थोड़ी लम्बी अवश्य होगी। थोड़ा धीरज रख कर पढ़ें।
हर कथा का एक मुख्य पात्र होता है और क्योंकि ये कथा व्रत-पूजा से सम्बंधित है, इसका मुख्य पात्र सिर्फ़ एक ब्राह्मण ही हो सकता है। और जब ब्राह्मण है, तो दरिद्र तो होगा ही। विवाहित भी होगा, और क्योंकि कथा उस समय की है जब परिवार सीमित नहीं हुआ करते थे, घर में कमाने वाला एक और खाने वाले अनेक। लिहाज़ा पति-पत्नी में रोज़ की नोंकझोंक होती और पत्नी का हर रात्रि कटाक्ष हमारे मुख्य पात्र को असहनीय दुःख में ढकेल देता। क्रोध से भरा दुःखी ब्राह्मण रोज़ सुबह, नहा-धो कर, ललाट पर तिलक लगा, भिक्षा के लिये पहले अपने मध्यम आबादी के गाँव में, कुछ गिने चुने यजमानों के घर चक्कर लगाता, फिर आस पास के दो एक गाँवों में भटकता और सायंकाल जब थकाहारा घर लौटता तो भिक्षा की झोली में अपर्याप्त सामग्री पा, होने वाले घमासान की आशंका से भयभीत घर में प्रवेश करता। अक्सर आधे पेट और कभी कभी तो भूखे पेट ही चिन्तामग्न सोने का नाटक करता।
पर ये सब कितने दिन चलता। एक रात पत्नी ने ताना दिया, कहा, “कब तक आस पास के गाँवों में निरर्थक भटकते रहोगे? क्यों कुछ दूरी के गाँवों में नहीं जाते? हो सकता है कोई समृद्ध यजमान मिल जाये और हमारी दरिद्रता मिट जाये? कुछ प्रयास तो करो। विद्वान हो, क्यों निठल्ले से बने बैठे हो?
ब्राह्मण कुछ बोला नहीं परन्तु पत्नी का ताना मन में चुभ गया। सुबह मुँह अँधेरे उठा, नहा-धो, ललाट पे कुमकुम-चन्दन का तिलक लगा, धोती दुशाला धारण कर झटपट तैयार हो, मुँह फुलाए घर से निकल पड़ा। पत्नी जागी हुई तो थी, पर नींद का बहाना कर लेटी हुई देख रही थी की पति का मुँह फूला हुआ है।
मैं इस मूल गुजराती व्रतकथा को हिन्दी में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ। व्रतकथा है तो थोड़ी लम्बी अवश्य होगी। थोड़ा धीरज रख कर पढ़ें।
ब्राह्मण ने राह बदली और निकल पड़ा गाँव की सीमा के बाहर। एक गाँव पार करता, दूसरे में कुछ विश्राम करता, अनमना घने वन को पार करता एक सुरम्य सरोवर के किनारे जा पहुँचा। सरोवर के किनारे एक सुन्दर स्वर्ण-रत्न जड़ित भवन को देखा। कोई द्वारपाल नहीं देखा सो सीधा भवन के बीचों बीच प्रांगण जा पहुँचा।
वहाँ देखा कि प्रांगण के मध्य एक चबूतरे पर आसान जमाये नारायण और लक्ष्मी चौपड़ खेल रहे हैं। ब्राह्मण को देखते ही लक्ष्मीजी ने पूछा, “बताइये ब्राह्मण देवता, आज कौन विजयी होगा?” “आप माते”, ब्राह्मण ने उत्तर दिया।
लक्ष्मीजी विजयी हुईं और उन्होंने पुरस्कार स्वरूप ब्राह्मण को अपने हाथ का स्वर्ण कंगन दे दिया। ब्राह्मण प्रसन्नमन लक्ष्मी और नारायण से विदा लेकर वापस घर की तरफ़ लौट चला। ‘अब मेरी दरिद्रता के दिन दूर हुए’, ऐसा सोच अपने भाग्य पर इतराता जा रहा था, तभी उसे एक विचार आया; “क्यों ना इस सरोवर में स्नान कर थोड़ी थकान मिटा लूँ?” अपना झोला- अँगोछा किनारे रखा और पानी में उतर गया। पर दृष्टि झोले और उसने रखे कंगन पर थी। अचानक ब्राह्मण की साँस थम गयी, कंगन झोले से फिसल सरोवर में पहुँच गया। ढूँढने के अथक निरर्थक प्रयास से क्षुब्ध ब्राह्मण ख़ाली हाथ घर लौट गया। सारी रात सो ना सका। पत्नी से आँख भी नहीं मिलाई।
अगले दिन फिर मुँह अँधेरे उठा, नहा-धो, कुमकुम-चन्दन का तिलक धारण कर तैयार हो, पत्नी की नज़र बचा पहले दिन की राह चल दिया। ‘इस बार पुरस्कार संभाल कर ले जाऊँगा’ इसी सोच में, एक से दूसरे गाँव पार करता, घने वन से गुजरता पता नहीं कब चौपड़ का खेल खेलते लक्ष्मी और नारायण के सम्मुख जा पहुँचा। कानों में “आज कौन विजयी होगा” की ध्वनि पड़ी, तो जैसे गहरी तन्द्रा से बाहर आया और अनायास बोल पड़ा, “लक्ष्मी जी”। और लक्ष्मी जी विजयी हुईं। प्रसन्न होकर इस बार लक्ष्मी जी ने अपने गले से रत्नजड़ित हार निकाला और ब्राह्मण के हाथों पर रख दिया।
लक्ष्मी-नारायण से श्रद्धापूर्वक विदा लेकर ब्राह्मण पुलकित मन से घर लौट चला। इस बार भी रास्ते में रुक कर सरोवर में स्नान करने उतरा पर अपने झोले को, जिसमें हार था, तालाब के किनारे से दूर एक पेड़ के नीचे रख दिया। अभी तालाब में उतरा ही था की हार थोड़ा सा झोले के बाहर सरक गया और तभी एक चील झपट्टा मार, हार को अपने पंजों में ले उड़ी और आँखों से ओझल हो गयी।
ये क्या हो गया? अचंभित ब्राह्मण की तो जैसे जान ही निकल गई। रुआँसा, मुँह लटकाए दुःखी ब्राह्मण वापस घर की राह चल पड़ा। घर पहुँचा पर पत्नी से आँखें चार करने का साहस ना करपाया। दुबारा ऐसी गलती नहीं करने का संकल्प कर ब्राह्मण लेट गया और जैसे तैसे आधी अधूरी नींद सो गया।
अगली सुबह फिर जल्दी उठा, नित्य कर्म, स्नान, तिलक और वस्त्र धारण कर, अपना पोथी-झोला उठा घर से निकल पड़ा। एक गाँव छोड़ता, दूसरे में कुछ देर विश्राम करता, घने वन को पार करता, सीधा सुरम्य सरोवर किनारे स्थित स्वर्ण भवन के प्रांगण में जा पहुँचा।
पिछले दिनों की तरह आज भी लक्ष्मी और नारायण चौपड़ के खेल में व्यस्त थे। ब्राह्मण को वहाँ देख, लक्ष्मी जी में पूछा, “बताइए ब्राह्मण देवता, आज कौन विजयी होगा?”
कुछ पल सोचने के बाद ब्राह्मण बोला, “आप माते”। और लक्ष्मी जी पुनः विजयी हुईं। प्रसन्न हो उन्होंने निकट रखा एक पिटारा खोला, दोनों हाथों में आभूषण भरे और ब्राह्मण की झोली भर दी। निकट बैठे नारायण ये दृष्य देख मंद मंद मुस्कुरा रहे थे।
ब्राह्मण ने लक्ष्मी-नारायण से विदा ली और तेज कदमों से सीधा घर की और चल पड़ा। इस बार सरोवर में स्नान करने नहीं रुका। प्रफुल्ल मन से हाँफते हाँफते घर पहुँचा, पत्नी को पुकारा और आभूषणों से भरी झोली पत्नी को थमा दी।
पत्नी ने झोली खोली तो आग-बबूला हो गई। “तुम मेरे पति हो या दुश्मन। हमें मार डालने आये हो, या श्राप देने आये हो? धधकते अंगारे लाये हो? ऊपर से इतने खुश हो रहे हो?”
ब्राह्मण ने झोली में झांका तो, आभूषणों के स्थान पर धधकते अंगारे दिखे। आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। छूने को हाथ बढ़ाया तो जलते अंगारों की गर्मी से भयभीत हो हाथ खींच लिया। साँस जैसे रुक सी गई। सर पकड़ नीचे बैठ गया। क्रोधित पत्नी ने जलते अंगारे चूल्हे के हवाले कर दिये और बड़बड़ाती घर के अन्दर चली गई।
तभी पड़ोसन आई और ब्राह्मणी को सम्बोधित कर बोली, “बहन, मुझे चूल्हा जलाने के लिए आग चाहिये। क्या आप के चूल्हे से मिलेगी?”
ब्राह्मणी बोली, “खुद चूल्हे में देख लो। अगर मिले तो ले लो”। पड़ोसन ने चूल्हे में देखा तो स्वर्ण-रत्नों वाले आभूषण। मन डोल गया उसका। तुरन्त सारे आभूषण साड़ी के पल्लू में छिपाये, ब्राह्मणी को धन्यवाद दे अपने घर लौट गई।
अचंभित ब्राह्मण को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये सब क्या और कैसे हो गया। लक्ष्मी जी ने तो आभूषण दिये थे, अंगारे कैसे हो गये? इसी सोच में थका हारा ब्राह्मण, भूखे पेट ही सो गया। रात भर करवटें बदलता रहा, सुबह मुँह अँधेरे उठा, नहा-धो, कुमकुम-चन्दन का तिलक लगा तैयार हुआ और पिछले दिनों की तरह, वापस लक्ष्मी नारायण के समक्ष जा पहुँचा। वे दोनों चौपड़ के खेल में मग्न थे।
नारायण ने ब्राह्मण को देखा, मुस्कुराये और पूछा, “आज विजय किस की होगी?” “लक्ष्मी जी की”, ब्राह्मण ने उत्तर दिया।
“अरे ब्राह्मण, तूने ये क्या बोल दिया? धन-धान्य तो लक्ष्मी के पास होता है। वो जब जब तुम्हारी भविष्यवाणी से विजयी हुई, उसने तुम्हें पुरस्कार में कुछ ना कुछ दिया। परन्तु मेरे पास तो तुम्हें देने के लिये कुछ भी नहीं है।“
इस बार विजयी लक्ष्मी जी ने प्रसन्न होकर, ब्राह्मण के हाथ भण्डारे की चाबियाँ थमा दीं और कहा, “जो चाहे, जितना चाहे ले जाओ”। लक्ष्मी जी की कृपा से गदगद ब्राह्मण भण्डारा खोल रत्न, आभूषण और अन्य द्रव्य की गाँठे बनाने व्यस्त हो गया। जब मन भर गया तो देखा कि उसने प्रचुर मात्रा में धन-धान्य एकत्रित कर लिया है, दौड़ कर भवन के बाहर गया तो वहाँ एक गाड़ीवान को खड़ा पाया। अपने घर तक सामान लेजाने के लिये भाड़ा तय किया, गाड़ी में माल लादा, लक्ष्मी जी को भण्डारे की चाबियाँ लौटाई और उनसे विदा ले कूद कर गाड़ी में बैठा।गाड़ीवान को तेज़ी से घर पहुँचाने का निर्देश देकर सुस्ताने लगा और गहरी नींद सो गया।
गाड़ी जैसे ही जंगल के पार हुई, अचानक एक भीषण बवण्डर ने गाड़ी को मार्ग से भटका दिया। ब्राह्मण उछल कर गाड़ी से दूर जा गिरा, चारों तरफ़ सिर्फ़ घनी धूल, कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। काफ़ी देर बाद जब बवण्डर थमा, तो ब्राह्मण उठा और गाड़ीवान को पुकारा पर कोई उत्तर नहीं मिला। इधर-उधर ढूँढा, पर गाड़ी और गाड़ीवान का नामोंनिशान नहीं था। ब्राह्मण ये सोच कर कि मुझे आसपास ना पाकर शायद गाड़ीवान मेरे घर की और चल पड़ा हो, वो तेज कदमों से, क़रीब क़रीब भागते भागते अपने घर की ओर चल पड़ा।
हाँफते हाँफते गला सूख गया था। घर के बाहर पत्नी को देखते ही पूछा, क्या यहाँ कोई गाड़ीवान आया था? क्या कोई सामान उतार गया?
पहली बार पत्नी क्रोधित नहीं हुई अपितु चिंतित हुई, पति को शान्त होने को कहा, घर के भीतर ले जाकर बिठाया, पानी पिलाया और प्यार से पूछा, “तुम रोज़ सवेरे तैयार होकर मुँह अँधेरे ही घर से, मुझे बिना कुछ बताये, मुँह फुला कर निकल जाते हो। मुझे ज्ञात है कि बहुत चिन्तित हो, पर तुम्हारी पत्नी हूँ, रोज़ कहाँ जाते हो, क्या करते हो, कुछ तो बताओ।
रुआंसे गले से ब्राह्मण ने सारी बात पत्नी को विस्तार से बता दी। ब्राह्मणी बोली, “कोई बात नहीं, जो होना था सो हो गया। इस बार जाओ तो कहना, नारायण जी जीतेंगे”। “अब कुछ खाओ और सो जाओ”।
अगले दिन सवेरे, अन्य दिनों की तरह ब्राह्मण नहा-धो, तिलक वस्त्र धारण कर चला और जा पहुँचा चौपड़ खेलते लक्ष्मी-नारायण के समक्ष। इस बार नारायण ने फिर पूछा, “बताइए ब्राह्मण देव, इस बार कौन विजयी होगा?”
“भगवन, आप”, ब्राह्मण ने पत्नी की बात मान उत्तर दिया। हालाँकि उसका मन लक्ष्मी जी को विजयी कहने को हो रहा था।
नारायण विजयी हुए ज़ोर से खिलखिला कर हँसे और ब्राह्मण की ओर उन्मुख होकर बोले, “अरे ब्राह्मण, तूने ये क्या बोल दिया? धन-धान्य तो लक्ष्मी के पास होता है। वो जब जब तुम्हारी भविष्यवाणी से विजयी हुई, उसने तुम्हें पुरस्कार में कुछ ना कुछ दिया। परन्तु मेरे पास तो तुम्हें देने के लिये कुछ भी नहीं है। अगर कहते की लक्ष्मी विजयी होंगी, तो वे निश्चय ही विजयी होतीं और आज भी तुम्हें पुरस्कार मिलता। तुम्हें तो आज ख़ाली हाथ ही लौटना होगा। इस पर लक्ष्मी बोलीं, “नहीं, ब्राह्मण का अनुग्रह है जिसने तुम्हें विजय दिलाई। तुम्हें उसे कुछ ना कुछ देकर पुरस्कृत तो करना ही होगा”।
लक्ष्मी की बात सुन नारायण उठे, पास के एक कक्ष के भीतर गये, ताम्बे का एक पुराना पात्र और एक पुरानी चादर लाये और ब्राह्मण को देते हुए बोले, “मेरे पास तो बस इतना ही है पुरस्कार में देने के लिये”।
ब्राह्मण ने खिन्न मन से पुरस्कार स्वीकार किया, मन ही मन अपने भाग्य को कोसा और विदा लेने को हाथ जोड़े। तभी नारायण बोले, “इस ताम्बे के पात्र से रास्ते में जो पहली खाने की वस्तु मिले, ख़रीद लेना और घर ले जाना, रास्ते में फेंक मत देना”।
“जैसी आपकी आज्ञा” कह कर ब्राह्मण ने विदा ली। दुःखी मन से घर जा रहा था, कि कानों ने आवाज़ पड़ी, “मछली लो, मछली लो, ताजी मछली लो”।
‘अरे बाप रे, ये क्या, पहली खाने की वस्तु, वह भी मछली? नारायण का आदेश ना मानूँ तो देव अवज्ञा का पाप लगेगा, मानूँ तो पत्नी का क्रोध। क्या करूँ?’ बड़े असमंजस में पड़ गया। अंत में साहस जुटा कर मछली ख़रीद ली। मछली वाला बोला, “भाई आपका धन्यवाद। आज जाल में एक ही मछली आई थी, बहुत बड़ी है, और मुझे भय था कि इतनी बड़ी मछली ख़रीदेगा कौन। पर आपने मेरी चिन्ता दूर कर दी”।
ब्राह्मण ने मछली को चादर में लपेटा और डरता डरता घर पहुँचा। उसके बच्चे घर के बाहर खेल रहे थे। पिता के काँधे पर कोई भारी सी पोटली देख ख़ुशी से चिल्लाए और बोले, “माँ, माँ, देखो। आज तो पिताजी कोई अच्छी सी खाने की सामग्री लाये हैं”।
इस कथा का सार यह है कि ख़ुशी (लक्ष्मी) वहीं है जहाँ ईशकृपा (नारायण) हों।
ब्राह्मण ने डरते डरते पोटली पत्नी के हाथ थमाई, प्रसन्न मन से जैसे ही उसने पोटली खोली, उसकी आँखों से चिनगारियाँ बरसने लगीं। “तू पति है या शत्रु? भूल गया कि हम कौन हैं? घर में मछली ले आया? गाँव में किसी ने देख लिया होता तो गाँव ही छोड़ना पड़ता”। ब्राह्मणी ने तुरंत चादर सहित मछली को उठाया और आँगन के पीछे की दीवार के पार फेंकने हाथ ऊपर किये ही थे कि मछली का मुँह खुला और उसने कोई चीज़ आँगन में गिरी।
“सोने का कंगन!”, चकित ब्राह्मणी बोल पड़ी। ब्राह्मण दौड़ा हुआ आया, कंगन को देखा और उसकी चीख निकल गयी, “अरे, ये तो वही कंगन है जो लक्ष्मीजी ने मुझे पुरस्कार में दिया था”। पति-पत्नी अवाक, एक दूसरे को देख, भगवान का धन्यवाद देने दोनों ने एक साथ हाथ जोड़ आकाश की ओर देखा की अचानक आँगन में फिर कुछ गिरा। देखा तो लक्ष्मीजी का हार और आकाश में उड़ती हुई चील।
अभी मन सम्भाल ही नहीं पाये थे कि बाहर दरवाज़े पर दस्तक हुई। देखा तो ग्लानि से भरी पड़ोसन; बोली, “बहन, उस दिन चूल्हे में आग लेने आई थी, वहाँ ये आभूषण मिले, मन डोल गया सो उठा ले गई। ये तो तुम्हारे हैं, मेरे किस काम के”, कह कर सारे आभूषण लौटा गई।
पति-पत्नी अचम्भित, उनका मुँह खुला का खुला रह गया, शब्द नहीं निकल रहे थे। अचानक इतना सारा धन! ये तो एक स्वप्न सा लगने लगा, तभी दरवाज़े पर एक और दस्तक हुई। दरवाज़ा खोला तो सामने गाड़ीवान खड़ा था। हाथ जोड़ करके बोला, “आपका सामान लाने में जो विलम्ब हुआ, उसके लिये क्षमा चाहता हूँ। क्या सारा सामान यहीं दालान में रख दूँ”।
देखते ही देखते सारा घर धन-धान्य से भर गया, ब्राह्मण की दरिद्रता का अंत हुआ। पति-पत्नी की अश्रुधारायें रुकने का नाम नहीं ले रही थी और ज़बान लक्ष्मी-नारायण का धन्यवाद करते।
आख़िर कैसे ना होता? लक्ष्मी और नारायण एक दूसरे के पूरक हैं, और जहाँ नारायण नहीं, वहाँ लक्ष्मी अकेले निवास नहीं करती। वो ताम्र पात्र ब्राह्मण के घर नारायण के आगमन का सूचक था। वे आये और साथ ही ब्राह्मण से रूठ कर चली गई लक्ष्मी को साथ ले आये।
इस कथा का सार यह है कि ख़ुशी (लक्ष्मी) वहीं है जहाँ ईशकृपा (नारायण) हों।
मेरी माँ को हमने बचपन से इसी नाम से जाना। १९११ में जन्म और २००८ में देवलोक के बीच की भूलोक की उनकी यात्रा ने संघर्ष ही अधिक देखे। ईश्वर में असीमित आस्था और अपने गुरु- जिन्हें उसने ८-९ वर्ष की उम्र के बाद कभी नहीं देखा, की कृपा में अटूट विश्वास ने उन्हें आध्यात्मिकता के उस आयाम तक पहुँचाया जो कभी समाप्त ना होने वाली भौतिक जीवन की संघर्ष यात्रा में फँसे किसी भी सामान्य व्यक्ति के लिये असंभव प्रतीत होती है। उनके असामान्य व्यक्तित्व से जुड़ी एक घटना साझा करना चाहता हूँ।
मेरी माँ के जन्म होते ही, मेरे नाना और उनके छोटे भाई ने (जो निस्संतान थे और जिन्होंने मेरी माँ को छोटी उम्र में ही गोद ले लिया था) व्रत लिया की घर में राधा (मेरी माँ का नाम) के नाम से घर के पूजा कक्ष में एक अखण्ड दीपक प्रज्वलित किया जाएगा। १९११ में प्रज्वलित वह दीप कोई ९० वर्ष तक अनवरत जलता रहा।मेरे मामा ने, जो मेरी माँ के इकलौते और १६ वर्ष छोटे भाई थे, जीवन पर्यन्त अपने पिता और चाचा के लिये व्रत का पूरी निष्ठा से सम्मान किया।
मामाजी के निधन के बाद अखण्ड दीप को मेरे ममेरे भाइयों ने कोई ७-८ वर्ष तक प्रज्वलित रखा, परन्तु बाद में इस परम्परा निभाए रखने में समस्या हो गई क्योंकि मेरे दोनों ममेरे भाई नौकरी के रहते बाँसवाड़ा के पैतृक निवास में हमेशा उपस्थित नहीं रह सकते थे। लिहाज़ा एक निर्णय लिया गया की मेरी माँ के नाम से प्रज्वलित दीप, जिसे में अब “राधादीप” से सम्बोधित करूँगा, का स्थानीय अम्बा माता के मन्दिर के अखण्ड दीप में विलय कर दिया जाये।
मन्दिर के पुजारी ने इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया, इस पुण्य कार्य की तिथि निश्चित हुई, और पुजारी के आग्रहपूर्ण निमन्त्रण को स्वीकार कर जीजी ने, अस्वस्थ और क्षीण अवस्था के रहते हुए भी, कोई चार घण्टे की सड़क यात्रा कर इस समारोह में उपस्थिति देने का वचन दे दिया। उसे आभास था की उसकी ये यात्रा उसकी जन्मस्थली की अन्तिम यात्रा होगी। मन्दिर के पुजारी ने जीजी के विश्राम की उत्तम और पूर्ण व्यवस्था मन्दिर के प्रांगण में पीछे स्थित अपने निजी कक्ष में कर दी।
निश्चित दिन जीजी के बाँसवाड़ा पहुँचने और थोड़े विश्राम के बाद समारोह आरम्भ हुआ। जब “राधादीप” को मन्दिर के अखण्ड दीप में विलय करने का समय आया, तो पुजारी ने समारोह में उपस्थित सभी भक्तों को कहा कि “राधादीप” मन्दिर के अखण्ड दीप से कोई बीस वर्ष पहले प्रज्वलित हुआ था, विधान की मर्यादा के अनुसार, (उम्र में) छोटे दीप का विलय बड़े दीप (“राधादीप”) में होगा।
मेरे दोनों भाई-भाभी और सभी उपस्थित दर्शनार्थी अवाक् से रह गये। किसी को भी इस विधान का कोई ज्ञान नहीं था। ख़ैर, समारोह सम्पन्न हुआ, जीजी बहुत थकी हुई थी सो विश्राम के लिये कक्ष में लौट गयी। कोई आधे घण्टे के विश्राम के बाद, जब वापस उदयपुर लौटने का समय हुआ, तो पुजारी ने बताया की कुछ उपस्थित लोग जीजी के “दर्शन” करने को इच्छुक है।
मना करना उचित नहीं था अतः लोग कक्ष में आने लगे। प्रारंभ में लगता था की आधे-पौने घण्टे में “दर्शन” की प्रक्रिया समाप्त हो जाएगी परन्तु ऐसा नहीं हुआ। क़रीब दो घण्टे गुजरने के बाद, मेरे बड़े भाई ने पुजारी से पूछा, “ये इतने लोग कहाँ से आ रहे हैं? समारोह में उपस्थित लोग तो लगभग निकल चुके हैं।”
पुजारी का उत्तर और भी चौंकाने वाला था। वह बोला, “अम्बे माँ की प्रतिमा के दर्शन तो नित्य होते हैं। आज जब माँ स्वयं साक्षात सशरीर मन्दिर में उपस्थित हों, तो मैं भला कैसे किसी को उनके दर्शन का लाभ लेने से वंचित कर सकता हूँ। मैंने किसी को बुलाया नहीं है, लोग स्वप्रेरित हो कर आ रहे हैं। कई तो अपने नवजात शिशुओं को लेकर आ रहे हैं”।
दर्शन के अभिलाषियों का कारवाँ कोई आठ घण्टे चला।
उस दिन मुझे पता चला कि मेरा सबसे बड़ा सौभाग्य “जीजी” का पुत्र होना है।