
अपने छात्र जीवन की “एक” कारस्तानी का बयान कर रहे हैं।
यह कहानी नहीं, सत्य घटना है।

मैं कृषि स्नातक की पढ़ाई कर रहा था। बीएससी ( कृषि) का दूसरा वर्ष था और समेस्टेर सिस्टम लागू होने से पहले, वार्षिक परीक्षा वाले सिस्टम का आख़िरी वर्ष। हमारे सभी शिक्षक दिल से चाहते थे की हम सब मन लगा कर पढ़ाईं करें और अच्छे अंकों से परीक्षा पास करें।
मेरी कक्षा में हम ४० छात्र थे। २-३ को छोड़ बाक़ी सभी, वर्ष के आख़िरी महीने में पढ़ते कम पर चिन्ता ज़्यादा करते की पास कैसे होंगे। सारा साल तो मटरगस्ती और शैतानी में निकाल जाता। हम में से कुछ ज़्यादा ही मुँहफट और नालायक क़िस्म के थे। न आज का डर, ना कल की फ़िकर। मेरी गिनती भी इस श्रेणी में होती थी।
हमारे अधिकतर शिक्षक गम्भीर क़िस्म के थे । और हमसे ज़्यादा हमारे भविष्य की फ़िक्र उन्हें होती थी। वह सभी अपनी पूरी कोशिश करते की विषय को किसी तरह रसप्रद बनाया जाय, पर कृषि ज़ैसे रूखे विषय में कौन कितना मसाला डाल सकता है। कक्षा में हमारे चेहरे देख ऐसा लगता था, जैसे किसी ने हमें संजय लीला भंसाली की ‘राम-लीला’ दिखाने का न्योता देकर हिमांशु राय की ‘देवदास’ गले मढ़ दी हो और वो भी थियेटर के दरवाज़े पर बाहर से ताला लगा कर।
उन्हीं गम्भीर शिक्षकों में से एक थे खत्री साहब। शान्त स्वभाव के गुजराती और अपने ज़िम्मेदारी के प्रति अत्यंत सजग़। गुजराती थे लिहाज़ा हिन्दी शब्दों के उच्चारण में थोड़ा गुजराती तड़का स्वतः ही लग जाता।
मसलन, गेहूँ ‘घउँ’; दाना ‘दाणा’ और भूसा ‘भूँसा’। उनके इस उच्चारण को सुन हम हिन्दी भाषी मन ही मन मुस्कुराते और मज़े लेते। खत्री साहब हमारी इस हरकत से वाक़िफ़ थे पर हमें कभी डाँटते-फटकारते नहीं थे, खुद भी बस मुस्कुरा देते।
वार्षिक परीक्षा निकट आ रही थी, और हम सब, जैसे के तैसे। मन में कोई हलचल, उथल-पुथल नहीं। सारे के सारे क्लास में मुँह लटका कर ऐसे बैठते जैसे किसी शोकसभा में आये हों।
एक दिन खत्री साहब से हमारे लटके हुए मुँह नहीं देखे गये। वे दुःखी हो गए और हमारा मनोबल बढ़ाने के लिये उन्होंने बात कुछ इस तरह शुरू की, “देखो, तुम सब ऐग्रिकल्चर के स्टूडेंट हो और अपन एग्रोनामी की क्लास में पढ़ रहे हैं। तुम सब जानते हो की जब घउँ का पाक काटते हे, तो फिर दाणा और भूँसा अलग अलग करते हे। बाज़ार में दोनो वस्तु अलग-अलग बेचें तो ज़्यादा भाव किसका? दाणा का होता हे ने। बरोबर हे ने?”
”एकदम सही सर”, सारी क्लास ने एक स्वर में उत्तर दिया। हमारे सामूहिक उत्तर से प्रसन्न और उत्साहित होकर उन्होंने अगला प्रश्न किया, “अब बताओ, तुम्हें भूँसा बनने का हे की दाणा?
”सारी क्लास चुप, कोई एक मिनट के लिये सन्नाटा छा गया। उन्होंने जैसे हमारे ज़मीर को झंझोड दिया हो। उनके प्रश्न का उत्तर देने एक भी हाथ नहीं उठा।
मैं उस दिन अपनी सामान्य- सबसे पीछे वाली पंक्ति छोड़ सबसे आगे वाली पंक्ति में दरवाज़े के पास बैठा था। मुझे शरारत सूझी और चुप्पी तोड़ने के लिये मैंने हाथ उठाया।
“हाँ, बोलो नागर, दाणा बनना हे ना”, उन्होंने खुश होकर पूछा।
“नहीं सर, भूसा बनना है”। खत्री साहब अवाक रह गये।
उन्हें ख़ास कर मुझ से ऐसे उत्तर की उम्मीद नहीं थी क्योंकि वे मेरे पिताजी के अच्छे परिचितों में से थे, नागर साहब के लड़के से ऐसा उत्तर!
फिर पूछा, “अच्छा बताओ भूँसा क्यों बनना हे?”
मेरा प्रत्युत्तर था, “सर, जब परीक्षा की हवा आयेगी, तो भूसा हल्का होने से उड़ के अगली क्लास में जायेगा, दाना भारी होने से इसी क्लास में रह जाएगा”। सारी क्लास ठहाकों से गूंज उठी। खत्री साहब थोड़ा मेरे नज़दीक आए, मुस्कुराए और मेरे कानों में एक शब्द गूंजा,
नालायक
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