
देश का लाडला विकास आजकल कहाँ है?
“विकास” स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पुनर्जन्म ले कर देश में आया। कहते हैं शैशव काल में गांधी बाबा और कांग्रेसियों ने पाल पोस कर बड़ा किया। फिर दुर्गावतार इंदिरा जी का जमाना आया। विकास बड़े कदम उठाने लगा। इमरजेंसी आई विकसवा अचानक जवान हो गया। फिर एक दो साल जय प्रकाशियों ने देखभाल की। बड़ा खुश था विकास । फिर तो कभी इधर कभी उधर विकास आता रहा जाता रहा।पर कभी भी देश में जम कर न रहा। पहले बाजपेयीजी फिर बाद में मनमोहन जी ने सोनिया जी के निर्देशानुशार विकसवा का जवानी में ख्याल रखा। 2014 तक विकास जवानी पार कर अधेड़ हो गया।
गांधी बाबा, नेहरू जी, शास्त्री जी, इंदिरा जी, राजीव जी, नरसिंह राव जी, बीच वाले “आये जी गये जी”, वाजपेयी जी ,मनमोहन जी सबका योगदान रहा । पर आज कल चर्चा विशेष कर मनमोहन जी और वाजपेयी जी की ही होती है। नरसिंह राव जी का नाम भी मनमोहन जी के नाते आ जाता है। ।
जब मोदी जी आये तब तक विकास अधेड़ हो चुका था।
उसे अपने देश के “यथार्थ” को झेलने मे अफनाहट और घबराहट होने लगी थी।
क्योंकि विकास को अचानक लगने लगा कि वह एक मानवी “सोच” या “सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति” नहीं वरन वह खुद ही “मनुष्य” है। मंझोली हैसियत का मनुष्य ।
विकास को समझ आ गई कि उसका जन्म, शैशव, जवानी सब उसके जैसे मंझोली हैसियत के मनुष्यों के नाते हुआ।
मंझोली हैसियत के लोग जिन्हे रोब की भाषा अंग्रेज़ी में मिडिल क्लास कहा जाता है अज़ीम जीवट के लोग होते हैं। उनमे आकांक्षा तो बड़ा बनने की होती है और बड़ा बनने के चक्कर में जीवन भर मेहनत करते रहते हैं, पिसते रहते हैं।
बहुत मुखर भी होते हैं मंझोली हैसियत वाले । अब तो बोलने की आज़ादी का जमाना है। इसके बावजूद बहुत से मंझोली हैसियत वाले ऐसे भी हैं जिन्हें लगता है वह इंदिरा जी वाली तो नहीं पर मोदी जी की नई अघोषित इमरजेंसी में जी रहे हैं। इस लिये वह बोलते तो बहुत है पर बार बार याद दिलाते हैं कि वह बोल नहीं पा रहे हैं। जेल भी जाते हैं न्यायालय से छूट जाते हैं पर अपनी आदत से बाज नहीं आते। उन्हें नये विकास की खोज है। पुरातन मान्यताओं को छोड़ने में उन्हें दिक़्क़त होती है। नया अपनाने पर उन्हें अडबड सा लगता है।
उनमें से कुछ ही बड़े बन पाते हैं ।
जो हिंदुस्तानी न तो मंझली हैसियत के है न बड़े वह भी खुश हैं। उनके पास खुश रहने के अलावा और कोई चारा ही क्या है। वे गरीब हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं। रोकड़ा नहीं है या कम है तो उनके पास वोट तो है। नेता पचहत्तर साल से ग़रीबी हटा कर विकास लाने के लिये अथक प्रयत्न कर रहे हैं। पर विकसवा ऐसा है कि
हिंदुस्तानी “बड़ों” की हैसियत कुछ सालों में बहुत बड़ी हो गई। मंझोली हैसियत वाले कुछ बुद्धिजीवी उनपर टीका करते हैं। बड़े अपनी चाल चलते रहते हैं। कुछ बुद्धिजीवियों को अपने यहाँ नौकरी भी दे देते हैं। कुछ की एन जाओ को गुप्त दान भी। हिंदुस्तानी बड़े बुद्धिजीवियों से परेशान नहीं होते उन्हे फ़ेस्टिवल आयोजन करने में भी सहायता करते रहते हैं
विकास की सोच अब अपनी थी । विकास को समझ आ गई कि उसकी सारी ज़िंदगी मे उसके जैसे मंझोली हैसियत के लोगों ने ही मदद की ।
ऐसा सुना जाता है कि “रागदरबारी” मे श्रीलाल शुक्ल लिखित “पलायन संगीत” पढ़ने के बाद बहुत विचार कर उसने घर छोड़ने का मन बना लिया !
लोग पूछ रहे हैं देश का लाडला विकास आजकल कहाँ है?
मंझोली हैसियत वालों की तरह अब वह पलायन मे है और इधर उधर भटक रहा है।
अपने पूर्ववर्ती विकासों की तरह !

पलायन संगीत
तुम मँझोली हैसियत के मनुष्य हो और मनुष्यता के कीचड़ में फँस गए हो। तुम्हारे चारों ओर कीचड़–ही–कीचड़ है। कीचड़ की चापलूसी मत करो। इस मुग़ालते में न रहो कि कीचड़ से कमल पैदा होता है। कीचड़ में कीचड़ ही पनपता है। वही फैलता है, वही उछलता है। कीचड़ से बचो। यह जगह छोड़ो। यहाँ से पलायन करो। वहाँ, जहाँ की रंगीन तसवीरें तुमने ‘लुक’ और ‘लाइफ़’ में खोजकर देखी हैं; जहाँ के फूलों के मुकुट, गिटार और लड़कियाँ तुम्हारी आत्मा को हमेशा नये अन्वेषणों के लिए ललकारती हैं; जहाँ की हवा सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर है, जहाँ रविशंकर–छाप संगीत और महर्षि-योगी-छाप अध्यात्म की चिरन्तन स्वप्निलता है…। जाकर कहीं छिप जाओ। यहाँ से पलायन करो। यह जगह छोड़ो। नौजवान डॉक्टरों की तरह, इंजीनियरों, वैज्ञानिकों, अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के लिए हुड़कनेवाले मनीषियों की तरह, जिनका चौबीस घण्टे यही रोना है कि वहाँ सबने मिलकर उन्हें सुखी नहीं बनाया, पलायन करो। यहाँ के झंझटों में मत फँसो।
अगर तुम्हारी किस्मत ही फूटी हो, और तुम्हें यहीं रहना पड़े तो अलग से अपनी एक हवाई दुनिया बना लो। उस दुनिया में रहो जिसमें बहुत–से बुद्धिजीवी आँख मूँदकर पड़े हैं। होटलों और क्लबों में। शराबखानों और कहवाघरों में, चण्डीगढ़–भोपाल–बंगलौर के नवनिर्मित भवनों में, पहाड़ी आरामगाहों में, जहाँ कभी न खत्म होनेवाले सेमिनार चल रहे हैं। विदेशी मदद से बने हुए नये–नये शोध–संस्थानों में, जिनमें भारतीय प्रतिभा का निर्माण हो रहा है। चुरुट के धुएँ, चमकीली जैकेटवाली किताब और ग़लत, किन्तु अनिवार्य अंग्रेज़ी की धुन्धवाले विश्वविद्यालयों में। वहीं कहीं जाकर जम जाओ, फिर वहीं जमे रहो। यह न कर सको तो अतीत में जाकर छिप जाओ। कणाद, पतंजलि, गौतम में, अजन्ता, एलोरा, ऐलिफ़ेंटा में, कोणार्क और खजुराहो में, शाल–भजिका–सुर–सुन्दरी–अलसकन्या के स्तनों में, जप-तप-मन्त्र में, सन्त-समागम-ज्योतिष-सामुद्रिक में–जहाँ भी जगह मिले, जाकर छिप रहो।
भागो, भागो, भागो। यथार्थ तुम्हारा पीछा कर रहा है।
~ राग दरबारी , श्रीलाल शुक्ल
सुना है विकास की माताश्री फिर गर्भ से है। जल्द ही २०२४ के के चुनाव बाद एक नया विकास जन्म लेगा ।
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