एक दुपहरी

२०१२ नवंबर की एक दोपहर मैं अकेला बैठा था वृक्षमंदिर मे। गुलाबी धूप और साफ़ हवा, पेड़ों के पत्तियों की सरसराहट, पक्षियों की चहचहाहट से जुड़ा मन न जाने कहाँ वर्तमान से भूत और भविष्य को ले कर भटका और मैंने कुछ पंक्तियाँ लिख डाली थी। लिखा पन्ना खो गया था। बहुत दिन बाद मिला। प्रस्तुत है !


आज के घर की क्या होगी कल पहचान ?
गाँव से बाहर ऊसर धरती पर जो थी बंजर लगाया, संजोया गाँव से बाहर  पिता ने  वृक्ष मंदिर !

होते थे वहाँ तब तीन महुआ  और एक जामुन के पेड़  एक कुआँ भी था, पानी भी हाँ साफ़ पानी था  तीन चार फ़ुट ज़मीन के नीचे 

पीते थे पानी, जहाँ प्यासे चरवाहे और खेल खेलते घुमंतू बच्चे  हम तो बस खडिया बीनने जाते थे दीये  की कालिख से पुती  अम्माँ की चूड़ी से चमकाई काली पट्टी पर  नरकंडे की क़लम से लिखने क ख ग घ ।

पिता के पहले शायद उनके पिता के समय के वह पेड  मूक अपने स्थान से देखते रहे होंगे सब कुछ  नि:स्पृह, नितांत, एकांत  कैसा लगता होगा उन्हे यह बदलाव ?

गाँव से बाहर ऊसर बंजर धरती पर बना वृक्ष मंदिर, आया था यहाँ मिटाने थकान, वहां जहाँ कोई न हो बस पक्षियो के झुंडो का कलरव, कोयल की कूक,  पेड़ों की डालियों से बोलती सरसराती बयार, उमड़ते घुमडते बादल,  गरज कर बचपन की याद दिलाते हैं,हँसाते हैं, डराते हैं ।

चमकती हैं बिजलियाँ , कौंध जाती हैं यादें  बचपन की उस  तृप्ति का अहसास  जो बचपन बाद जब कभी भी लौटी तो कभी सावन के छींटे सी कभी मूसलाधार ।

अजनबी और अनजान धुँधली  यादों की शांति मे दीखने लगते  हैं चलचित्र से चेहरे  बहुत से  कुछ पुराने, कुछ जाने पहचाने  अब तो कुछ नये भी लगते हैं अपने से अपनो से ही तो होती है अपनी पहचान ।

जब अपने बदलते हैं और नये अपने आ जाते है  जीवन मे होता है बदलाव अपनी पहचान मे भी चेहरे जो अब झाँकते नही, मुझ मे दूसरों की तरह, बस होते हैं जैसे होता हूँ मै, अपने मे, अपने से अनजान  होते हैं बस पेड़, पक्षी, धरती , बयार और आसमान ।

अकेलेपन से मिलता है अब सुख,  वही अकेलापन जो देता था घर से बिछुड़ने का दुख  पर तब थी ज़रूरत अनजान दुनिया मे बनाने का अपनी पहचान  क्या ऐसा ही होना है इस  वृक्ष मंदिर  का  आख़िर यह जो है मेरी काया जिसने पाई है एक से ज़्यादा पहचान  आज का घर कल का श्मशान ! 


Loading

Published by

%d bloggers like this: