मैं गोरखपुर के एक गाँव से हूं । रघुपति सहाय ‘फ़िराक़ गोरखपुरी’ भी गोरखपुर के एक गाँव से थे।
मैं तो अभी भी “हूं”। मैं भी कभी न कभी “हूं” से “था” तो हो ही जाऊँगा पर “था” हो जाने के बाद परिवार और कुछ स्नेही जनों को छोड़ शायद ही मेरे बारे में कोई चर्चा करे !
आज के दिन कहा जायेगा कि फ़िराक़ गोरखपुरी “थे” । पर “थे” स्थिति प्राप्त कर लेने के बावजूद फ़िराक़ हमारे बीच अब भी “हैं” । यह नहीं कह जायेगा कि फ़िराक़ ने कहा था “आये थे मयखाने में हंसते खेलते फ़िराक़, जब पी चुके तो संजीदा हो गये” बल्कि कहा जायेगा फ़िराक़ कहते हैं “आये थे मयखाने में हंसते खेलते फ़िराक़ जब पी चुके तो संजीदा हो गये”! या फ़िराक़ कहते हैं “कह दिया तूने जो मासूम तो हम मासूम है, कह दिया हम गुनहगार तो हैं हम गुनहगार”
फ़िराक़ कहते हैं “आगे आने वाली नस्लें फ़ख़्र करेंगी तुम पर हम-असरो जब भी उनको ध्यान आयेगा तुमने फ़िराक़ को देखा है”
बहुत सी सच, झूठ और भ्रांत धारणायें
ख़ैर हमने फ़िराक़ को देखा तो न था पर उनके बारे में सुना ज़रूर था। पर ज़्यादा कुछ नहीं।
जब मैं गाँव में था तब कुछ सुनी सुनाई बातों से मुझे एक तरह से विश्वास हो गया था कि रघुपति सहाय का ननिहाल हमारे गांव से लगे ठठउर गांव में था। बड़ा हुआ तो पता चला कि यह बात सही नहीं है । हो सकता है मैंने ही ग़लत सुना हो । ठीक है ठठउर कायस्थों का गाँव है पर ठठउर मे फ़िराक़ का ननिहाल नहीं था। अभी तक मै पता नहीं कर पाया कि फ़िराक़ का ननिहाल और ससुराल गोरखपुर में कहाँ था और थी ।
एक बात पक्की है गोरखपुर के गोला बाज़ार ब्लाक के बनवारपार गांव में रघुपति सहाय का जन्म हुआ था । पिता गोरख प्रसाद पेशे से वकील थे। शायरी भी करते थे । रघुपति सहाय का बचपन गाँव में फिर गोरखपुर शहर स्थित लक्ष्मी निवास में बीता । पिता की मृत्यु उपरांत सन १९३४ में आर्थिक कठिनाइयों के चलते यह कोठी बेचनी पड़ी। एक बहन की शादी भी करनी थी। आज कल इस जगह सरस्वती शिशु मंदिर है । यह तब की बात है जब फ़िराक़ ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ाना शुरू नहीं किया था ।
दशकों तक, यह भवन लेखकों, कवियों और स्वतंत्रता सेनानियों के लिए एक बैठक बिंदु बना रहा, जिनके लिए फिराक एक प्रेरणा थे। मोती लाल नेहरू, पूर्व पीएम जवाहर लाल नेहरू और रफी अहमद किदवई सहित अन्य लोग फिराक और उनके पिता के यहां आते थे ।
Hindustan Tines, 28 August 2019 ( By Abdul Jadid, Hindustan Times Gorakhpur)
फ़िराक़ के बारे में सच झूठ और भ्रांत धारणायें पहले भी थी, हैं और शायद आगे भी रहेंगी।
फ़िराक़ साहब की ज़िंदगी दौरां का वह जमाना और ही रहा होगा। मेरे ख़याल से मेरे बाबा जब फ़िराक़ के बारे में बात करते थे तब उसी दौर की बात करते होंगे। बताते थे कि जवाहर लाल नेहरू के साथ फ़िराक़ मंच पर जन सभा को संबोधित करते थे । पर आगे और जोड़ देते थे कि “पिये लगल ते बरबाद हो गइल” ! और कुछ ज़्यादा बात नहीं होती थी ।
कालेज में आया तो कुछ सांकेतिक भाषा में भी यौन संबंधो की बातें होती थी पूरी / पराठा और एसी / डीसी । आपसी बातचीत अगर खुल कर गाली वाली हो रही हो तब तो सब चलता था। तब भी फ़िराक़ के बारे में ज़्यादा कुछ मालूम न था । शंका तो थी ।
बड़ा हुआ, पढाई की फिर जैसा जमाने का दस्तूर था हम भी अपने और अपनों के लिये कुछ “पाने” और दूसरों के लिये कुछ “कर पाने” के लिये दुनिया में निकल पड़े । कुछ मेहनत और कुछ भाग्य ने साथ दिया और एम एस सी करने के लगभग एक साल बाद हमें भी एक अदद नौकरी मिल ही गई।
पहले तो जब भी मैं अपने परिचय में “गोरखपुर से हूँ” कहता था यार दोस्त मज़ाक़ में अक्सर कह देते थे “अच्छा फ़िराक़ गोरखपुरी वाले गोरखपुर से ! “ समझ भी जाता था क्या और क्यों कहा जा रहा है। पर उनके बारे ज़्यादा खोजबीन भी न की ।
हम फ़िराक़ के हम -असर तो न हैं , पर फ़िराक़ के बारे में और जानने की इच्छा हमेशा से ही रही। फ़िराक़ तख़ल्लुस क्यों रखा होगा रघुपति सहाय ने ? फ़िराक़ का मतलब है “वियोग, जुदाई, सोच, चिंता (जैसे—नौकरी के फ़िराक़ में इधर–उधर घूमना)। किसके वियोग या जुदाई की बाद वह सोचते होंगे? या फ़िराक़ का मन किस “फ़िराक़” में इधर उधर घूमता होगा?
हम गोरखपुर में दीना बाबू के घर पर कम से कम एक रात गुज़ारने के बाद ही गाँव जाते हैं।दीना बाबू के घर जाते समय फ़िराक़ की मूर्ति वाले चौराहे से गुजरना पड़ता है । चौराहा भीड़भाड़ से भरा रहता है। गाड़ी, रिक्शा पैदल , सायकिल वालों का हुजूम दिन चढ़ते से ही चलता ही रहता है ।
यदि फ़िराक़ की मूर्ति को सोचने और बोलने की शक्ति कहीं से मिल जाय तो क्या देर रात एकांत में जब सारा ट्राफ़िक थम गया हो फ़िराक़ की मूर्ति क्या सोचती या कहती ?
नौकरी से रुखसत मिली तो मनमानी करने के लिये समय ही समय था। कुछ छानबीन की बहुत सी सामग्री मिली पर पढ़ने में मन न लगा।
कुछ वर्ष पहले “तद्भव” के एक अंक में श्री विश्वनाथ त्रिपाठी का लेख पढ़ने को मिला।तब से फ़िराक़ के बारे में और जानने की इच्छा जगी। पढ़ा हुआ भूल जाता हूँ। फिर कुछ दिन पहले वही लेख हिंदी समय पर पढ़ने को मिला तब सोचा कि क्यों न लिख डालूँ? पर क्या लिखूं?
अज़ीम अजीबोग़रीब शख्शियत
मन बना कुछ लिखूँ इस अज़ीम अजीबोग़रीब शख्शियत के बारे में। कुछ और संदर्भ ढूँढे। इस ब्लाग के अंत में उन संदर्भों की कड़ियाँ संकलित हैं। एक तरह से यह लेख पूरा नहीं है । वर्क इन प्राग्रेस है।
पर अब तक जितना मैंने पढ़ा फ़िराक़ के बारे में श्री विश्वनाथ त्रिपाठी का लेख मुझे सबसे ज़्यादा पसंद आया। बहुत ही विस्तृत और साफ़गोई से लिखा यह संस्मरण अत्यंत पठनीय हैं ।
श्री विश्वनाथ त्रिपाठी अपने संस्मरण में लिखते हैं
“ एक दिन मैंने सतीश से कहा कि मैं फिराक साहब से मिलना चाहता हूँ। उस समय हम लोगों की उम्र उन्नीस बीस साल की थी। तो सतीश मुझे देख कर मुस्कुराए और कहा कि जैसे ही तुम वहाँ जाकर किसी से फिराक साहब का घर पूछोगे तो वह तुम्हें देख कर हँसेगा क्योंकि फिराक साहब की ख्याति कुछ इस तरह की है।”
तो साहब फ़िराक़ की ख्याति ही कुछ इसी प्रकार की थी ।
फ़िराक़ एक अज़ीम शायर थे ही पर उनकी शख़्सियत भी अजीबोग़रीब थी
फिराक साहब परस्पर विरोध के पुंज थे
श्री विश्वनाथ त्रिपाठी के संस्मराणात्मक लेख के कुछ अंश फ़िराक़ साहब के पारिवारिक संबंधों के बारे में काफ़ी कुछ बयां कर जाती हैं।
“अहमद साहब फिराक साहब के बहुत नजदीक थे। वे उनके व्यक्तित्व के इस आयाम के आलोचक भी हैं। उन्होंने बताया कि फिराक साहब की बीवी अच्छी थीं। देखने सुनने में और वे कभी कभी फिराक साहब को कोसती भी थीं। फिराक साहब उन पर कभी कभी जुल्म भी करते थे। जैसे, एक बार वे गोरखपुर से आईं। आते ही जैसे ही सामान नीचे रखा तो फिराक साहब ने पूछा कि मरिचा का अचार लाई हो? वे लाना भूल गईं थीं। तो फिराक साहब ने उसी वक्त उनको लौटा दिया और कहा कि जाओ मरिचा का अचार लेकर तब आओ गोरखपुर से, भूल कैसे गई तुम? और कभी कभी जब वे गुस्से में आती थीं तो कहती थी कि तुम पहले अपना थोबड़ा तो देख लो कैसे हो? वे दबती नहीं थीं। कहने का मतलब ये है कि कल्पना में कोई रूपसी चाहते रहे होंगे फिराक साहब जो उनको नहीं मिली। एक बार सबके बीच में फिराक साहब ने बड़े जोर से कहा कि – I am not a born homosexual, it is my wife, who has made me homosexual. तो मुझे लगता है कि अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए वे अपनी पत्नी को बलि का बकरा बनाते थे। उनकी बीवी तो सबके सामने आकर बातें कह नहीं सकती थीं। इसलिए फिराक साहब अपने सारे दोषों के लिए अपनी बीवी को जिम्मेदार ठहराते थे।” ….
मैंने यह लेख लिखने का मन श्री विश्वनाथ त्रिपाठी के लेख को दो बार पढ़ने के बाद बनाया। त्रिपाठी जी के शब्दों में फ़िराक़ “ परस्पर विरोध का पुंज” रहे होगें पर होते हुये भी असीम प्रतिभा के धनी थे ।
“फिराक साहब परस्पर विरोध के पुंज थे। मैंने तो उनकी पत्नी को नहीं देखा लेकिन फिराक साहब अपनी कई कविताओं में और बातचीत में भी अपनी पत्नी की बड़ी निंदा करते थे। इस ढंग से करते थे जो उनको नहीं करना चाहिए था।” …….
आख़िर कौन सी चीज़ रही होगी जो फ़िराक़ साहब को “सामान्य” और “लीक” पर चलने वाला बनाने से रोके रखती थी।
त्रिपाठी जी लिखते हैं “जिस तरीके से फिराक साहब की बातों से विकर्षण पैदा होता था उसी तरह से साथ साथ एक आकर्षण भी पैदा होता था कि ये एक अजीब किस्म का आदमी है जो सबको गाली देता है और इतना बड़ा शायर कहा जाता है। ये अपनी पी.सी.एस. की या कुछ लोग तो कहते हैं कि आई.सी.एस. की नौकरी छोड़ कर स्वाधीनता आंदोलन में जेल गया था। जवाहरलाल नेहरू के साथ रहा है। मोतीलाल नेहरू का सेक्रेटरी था।”
यूपी प्राविंशियल सर्विस और आइ सी एस दोनों में सफल होने के बावजूद फ़िराक़ ने दोनों सेवाओं को तिलांजलि दे गांधी जी के आंदोलनों से जुड़े , अठारह महीने जेल भी गये और फिर इलाहाबाद बाद विश्वविद्यालय में लेक्चरर बने।
आइ सी एस में सफल होने की बात मैंने नीचे हिंहुस्तान टाइम्स में छपे लेख में पढ़ी थी । पर त्रिपाठी जी ने इस बात पर शंका ज़ाहिर की है । “ये अपनी पी.सी.एस. की या कुछ लोग तो कहते हैं कि आई.सी.एस. की नौकरी छोड़ कर स्वाधीनता आंदोलन में जेल गया था।”
उर्दू साहित्य की धुरंधर हस्तियों साहिर लुधियानवी, इक़बाल, कैफी, और फ़ैज़ के समकालीन फिराक लगभग ने लगभग ४०००० शेर लिखे । उनकी तुलना ग़ालिब के बाद के महत्वपूर्ण उर्दू शायरों में की जाती है।
फ़िराक़ और हिंदी
हरिवंश राय बच्चन और फ़िराक़ दोनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी विभाग में लेक्चरर थे पर फ़िराक़ उर्दू में लिखते थे और बच्चन हिंदी में ।
हिंदी के बारे में फ़िराक़ की राय ख़राब थी। यह तो मैंने बचपन में भी सुना था। ग़लत या सही यह भी सुना था कि फ़िराक़ कहते थे “हिंदी कविता पढें तो लगता है जैसे हाथी मूत रहा हो” । पर गोस्वामी तुलती दास के बारे में फ़िराक़ राय इसके पूर्णतः विपरीत थी ।
“खड़ी बोली हिंदी से पहले की कविता – अवधी की, ब्रजभाषा की विशेष रूप से भक्ति कविता, खासतौर पर तुलसीदास और कबीर की कविता के फिराक साहब बड़े प्रशंसक थे। फिराक साहब गोरखपुर के थे। उन्होंने तुलसीदास के बारे में बात करते हुए बताया कि जब मैं बहुत छोटा था तभी से गीता प्रेस गोरखपुर से रामायण छपती थी, जिसकी कीमत दुअन्नी थी। तो मैं एक दिन रामचरितमानस खरीद लाया। उसे मैंने पढ़ा तो लगा कि संसार में जितना भी भौतिक सौंदर्य है उसे तुलसीदास ने देख लिया था। उसका अनुभव कर लिया था, तुलसीदास इतने ऊँचे और विशाल मेहराब हैं जिनके नीचे से सिर झुका कर ही जाना चाहिए यदि कोई कविता करना चाहता है तो। अगर वो तुलसीदास बनना चाहेगा तो वो पागल हो जाएगा, कविता कभी नहीं कर सकता। इसलिए तुलसीदास को प्रणाम करके ही कवि बनने की कामना करनी चाहिए। तुलसीदास के विषय में फिराक साहब के विचार निराला से मिलते थे। फिराक साहब तुलसीदास की इस अर्द्धाली को पढ़ कर उसका अर्थ और महत्व बताते थे –
सियाराममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुगपानी।
फिराक साहब कहते थे कि ये एक पूरा वाक्य है सियाराममय सब जग जानी में ‘जानी’ पूर्वकालिक है यानी सारे जगत को सियाराममय जान करके दोनों हाथ जोड़ के मैं प्रणाम करता हूँ ।
निराला जी और फ़िराक़ साहब की दोस्ती भी अजीब थी । प्रेम था, लिहाज़ था यारी थी हम पियाला भी थे पर झगड़ते बहुत थे ।
नीचे कुछ संदर्भ लेखों की कड़ियाँ दी गई है जिन पर फ़िराक़ के बारे में लिखा गया है। फ़िराक़ साहब ने बहुत लिख, बहुत अच्छा लिखा ऐसा लिखा कि लोग उनके लिखे को दूसरों को सुनाते हुये आज भी कहते हैं कि फ़िराक़ कहते हैं तो उनके बारे में भी बहुत लिखा गया है ।
परस्पर विरोध के पुंज फिराक साहब की कुछ रचनायें
आए थे हँसते खेलते मय-ख़ाने में 'फ़िराक़'
जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए
शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास
दिल को कई कहानियाँ याद सी आ के रह गईं
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
मौत का भी इलाज हो शायद
ज़िंदगी का कोई इलाज नहीं
तुम मुख़ातिब भी हो क़रीब भी हो
तुम को देखें कि तुम से बात करें
बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मा'लूम
जो तेरे हिज्र ( वियोग) में गुज़री वो रात रात हुई
ये माना ज़िंदगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी
खुदा को पा गया वाईज़, मगर है
जरुरत आदमी को आदमी की
मिला हूं मुस्कुरा कर उस से हर बार
मगर आंखों में भी थी कुछ नमी सी
मोहब्बत में कहें क्या हाल दिल का
खुशी ही काम आती है ना गम ही
भरी महफ़िल में हर इक से बचा कर
तेरी आंखों ने मुझसे बात कर ली
लडकपन की अदा है जानलेवा
गजब की छोकरी है हाथ भर की
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम
जिन जिन को था ये इश्क़ का आज़ार (बीमारी) मर गए
अक्सर हमारे साथ के सब बीमार मर गये
संदर्भ
https://www.hindisamay.com/content/5016/1/लेखक-विश्वनाथ-त्रिपाठी-की-संस्मरण-फिराक-वार्ता.cspx
https://hindi.thequint.com/lifestyle/firaq-gorakhpuri-famous-sher
https://www.bbc.com/hindi/india-41066850
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