

विगत स्मृतियाँ उभरती बनती बिगड़ती रहती हैं विस्मृत हो फिर उभरती बनती हैं
जब कोई “अपना” या अपने सा” मिलता है सुनाता हूँ, वह सुने या अनसुना कर दे सुखद दुखद सपाट संवेदनहीन उतार चढ़ाव सब बतियाता हूँ सुनाता हूँ, उन क़िस्सों को जिनमें थे अंश प्रतिबद्धता, ईमानदारी, निष्ठा, और वफ़ादारी के।
क्या उसे बिन पूछे बताता सा लगता हूँगा मैं सुनाता अपनी “कहाँ गये वह दिन, कहाँ गये वह लोग” वाली बतकहियाँ ?
दुहराता हूँ कई बार शायद वही पहले के सुना दिये गये क़िस्से बहुत अच्छा लगता है कोई सुन ले, सुन कर हंस दे, हामी भरे या कुछ कहे सुनने वाला कान और आँख दोनों से सुने तो सुनाने में सुकून मिलता है पर जब उसकी नज़रें हों बहरी और कान अंधे, अचानक बहुत बूढ़ा होने का अहसास हो जाता है। चुप हो खो जाता हूँ स्मृतियों के घने जंगलों में अनजान अजीब सा बियाबान लगता है समय हो सहज लौट आने वर्तमान में
- Dr HB Joshi shares his views on the why, what and how of Vrikshamandir
- Meeting of former NDDB employees at Anand on 21/22 January 2023
- ईशोपनिषद
- खलबली
- पृथ्वी सौंदर्य – पृथ्वी प्रकोप