
यह ब्लाग लिखना तो शुरू हुआ था एक कहानी “अँधेरी रात के तारे” के बारे में जो “जिप्सीनी आँखों थी” नामक पुस्तक से है।“जिप्सीनी आंखो थी“ पूरी पुस्तक यहां इंटरनेट आर्काइव से यहाँ पर उपलब्ध है । पर यहाँ मै “जिप्सीनी आँखों थी” से केवल एक कथा “अंधेरी रात के तारे” के बारे में लिख रहा हूँ ।
“सार्थक संवाद” नामक वेब साइट पर मैंने यह कथा सबसे पहले पढ़ी । कैसे मैं इस अंतर्जाल की वेब साइट पर पहुँच गया, मुझे ठीक से याद नहीं। पर शायद मैं खोज रहा था एक भारतीय की जिसकी रग रग में भारतीयता परिलक्षित होती थी। गुरू जी रवींद्र शर्मा की। जिनसे मैं जीवन केवल एक बार मिला ।
पर लिखते समय याद आ गई दो व्यक्तियों से जिनकी सोच और काम दोनों से मै बहुत प्रभावित हुआ। दो व्यक्ति जिन की मुलाक़ातों ने अमिट छाप छोड़ी वह थे , बाबा दीपक सुचदे जिनके बारे में मैंने एक ब्लाग लिखा था। दूसरे थे गुरू जी रवींद्र शर्मा । विधि का विधान है अब दोनों नहीं रहे दोनों अंधेरी रात के तारे !
हैं नहीं, पर अब भी कहीं दूर से टिमटिमा रहे हैं । बुला रहे हैं मुझे । इस जीवन काल में तो नहीं पर शायद अगर फिर जन्म मिला तो शायद उनका साथ मिले ।
कैसे मिलना हुआ ? संयोग था डेवलपमेंट मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट पटना का वार्षिक समारोह । इंस्टिट्यूट के तत्कालीन डायरेक्टर प्रोफ़ेसर के वी राजू के आमंत्रण पर मैं वहाँ गया और बहुत से विशिष्ट व्यक्तित्व के धनी और अपने क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान करने वाले लोगो से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ।
उन दिनों की रह गईं उनकी यादों में दोनों की यादें प्रमुख हैं ।गुरू रवींद्र शर्मा जी ने भारतीय परंपरा और संस्कृति प्रेरित विकास की अवधारणा को विस्तार से समझाया था। मैंने आदिलाबाद जा कर उनके साथ कुछ समय बिताने का मन भी बनाया पर यह हो न सका । गुरू जी रवींद्र शर्मा के बारे में जब सोचता हूँ, उनकी एक बात अब भी मेरे कानों में गूंज उठती है । “मै सायकिल उठा कर निकल जाता था “देखने”, कुछ देखने नहीं । अगर हम कुछ देखने निकलेंगे तब हम वही देखेंगे जो देखने के लिये निकले थे और कुछ नहीं देख पायेंगें। अगर “केवल” देखने निकलेंगे तब हम बहुत कुछ देख सकेंगे।”
सार्थक संवाद वेब साइट पर ब्लाग लिखने वालों में से हैं श्री आशीष कुमार गुप्ता । वह इरमा (Institute of Rural Management Anand ) के छात्र रहे हैं। सार्थक संवाद वेब साइट पर आशीष जी का परिचय कुछ इस प्रकार से दिया गया है “ आशीष कुमार गुप्ता ने जबलपुर के निकट इंद्राना गांव में जीविका आश्रम और अध्ययन केंद्र की स्थापना की है। IRMA से अध्ययन करने के बाद, आशीष कुमार गुप्ता ने आदिलाबाद में श्री रवींद्र शर्मा जी के साथ वर्षों बिताए, जिन्हें प्यार से गुरुजी के रूप में जाना जाता था । आशीष कुमार गुप्ता कई सामाजिक कारणों से जुड़े हुए हैं, उनका मुख्य ध्यान गुरुजी के कार्यों को प्रकाशित करने पर है और उसी से प्रेरित हो कर , वह भारतीय समाज को अपनी छवि को सही करने के लिए पुन: उन्मुख करने पर भी ध्यान केंद्रित करते हैं ।”
गुरू जी रवींद्र शर्मा जी के कुछ विडियो यहां पर उपलब्ध हैं ।
बाबा दीपक सुचदे ने न केवल कृषि की अनोखी परिभाषा “वे अक्सर कहते थे “ कृषि सूक्ष्मजीव से महाजीव ( मनुष्य) की यात्रा है। सूक्ष्मजीव ( किटाणु, परजीवी आदि) अपना जीवन दान करते हैं अन्य जीवों और मानव के लिये भोज्य पदार्थों की संरचना के लिये । सूक्ष्मजीवों की मोक्ष यात्रा का प्रारंभ इसी जीवन त्याग से होता है” । बाबा ने कृषि को एक आध्यात्मिक आयाम से देखने की दृष्टि ही नहीं दी पर इस अवधारणा को कार्यरूप में ज़मीनी स्तर पर भी सफलतापूर्वक कर भी दिखाया । मै कई बार देवास ज़िले के बजवाडा गाँव मे मे स्थित उनके कृषितीर्थ पर भी गया । पर उन्हें अपने वृक्षमंदिर पर बुलाने में असफल रहा । किन कारणों से ? इसका वर्णन मेरे ब्लाग बाबा दीपक सुचदे न रहे पर विस्तार से उपलब्ध है ।
बाबा दीपक सुचदे के कुछ विडियो
सार्थक संवाद वेब साइट पर प्रकाशित यह कहानी “ अंधेरी रात के तारे” मुझे बहुत पसंद आई। आशा है स्नेही पाठकों को भी यह कथा पसंद आयेगी । पढ़ें सोचे समझें गिने धुनें !
किशनसिंह चावडा बीसवीं शताब्दी के गुजरात के ख्यातनाम लेखक रहे हैं, जिन्होंने कई सारे वृतांत लिखे हैं। इनमें से अधिकांश प्रसिद्ध गुजराती कवि श्री उमाशंकर जोशी जी की पत्रिका संस्कृति में १९४७ के कुछ समय बाद से “जिप्सीनी आंखोथी” (जिप्सी की आंखो से) शीर्षक से प्रकाशित होते रहे हैं। इन सभी लेखों का संकलन करके “अमासना तारा” (अमावस्या के तारे) नाम से एक गुजराती पुस्तिका प्रकाशित की गई थी, जिसका हिन्दी अनुवाद कृष्णगोपाल अग्रवालजी के द्वारा अंधेरी रात के तारे शीर्षक से किया गया और उसे सोमैया पब्लिकेशन लिमिटेड के द्वारा प्रकाशित किया गया था। प्रस्तुत लेख उसी पुस्तक से लिया गया है और ऐसी और भी रोचक एवं बोधक कथाएँ हम आपके समक्ष प्रस्तुत करते रहेंगे। इस घटना का कालखंड उन्नीसवीं शताब्दी का अंतभाग अथवा बीसवीं शताब्दी का प्रारंभ होगा।
पिताजी जब कभी बाहर जाते, तब माँ बहुत उदास हो जाती थी। इस वजह से ही या न जाने और किसी वजह से, पिताजी जब तक अनिवार्य कारण न हो, तब तक दूर की यात्रा क्वचित् ही करते थे। एक दिन सूरत के गुरूद्वारे से तार आया। पिताजी को तुरंत सूरत आने की गुरू महाराज ने तार से सूचना दी थी। उन दिनों किसी के यहाँ तार आना बड़ा महत्वपूर्ण प्रसंग माना जाता था। अकसर कोई बुरी खबर हो, तो ही किसी के यहाँ तार आता था। पूरे मुहल्ले में बात फैल गयी कि हमारे यहाँ तार आया है। धीरे-धीरे लोग पूछताछ को आने लगे। तार में कोई बुरा समाचार तो था नहीं। अतः चिंता का स्थान कुतूहल और उत्साह ने ले लिया।
बीसवीं शताब्दी के आरंभ का जमाना। साधारण लोगों के लिए सूरत-अहमदाबाद जाने का प्रसंग भी दो-चार साल में एकाध बार ही आता था। और, बम्बई – कलकत्ता जाना तो सुदूर विदेशयात्रा के समान कठिन और विरल माना जाता था।
पिताजी के सफर की तैयारी होने लगी। माँ की सहायता के लिए बड़ी मौसी और मामी आ पहुंची। पार्वती बुआ एक पीतल के चमकदार डब्बे में चार मगस के लड्डू ले आयी। पिताजी के पाथेय का प्रश्न इससे आधा हल हो गया। बिस्तर के लिए मामा अपनी नयी दरी लेते आये थे। लल्लू काका धोबी चार दिन बाद मिलने वाले पिताजी के कपड़े उसी रोज इस्त्री करके दे गये। शाम को भजन हुआ। रात को भोजन के बाद पुरूषोत्तम काका ने लालटेन की रोशनी में पिताजी की हजामत बना दी। पिताजी मध्यरात्रि की लोकल से जाने वाले थे। इतनी रात गये सवारी मिलना मुश्किल होता था। अतः दस बजे ही घर से निकल जाने की बात तय हुई। साढ़े नौ बजे तांगा लाने के लिए मामा लहरीपुरा गये। हमारे परिचित मुस्लिम स्वजन मलंग काका का तांगा चौराहे पर ही खड़ा था। मामा के कहते ही वे आ गये। उन्होंने रात को ग्यारह बजे तक गपशप कर के पिताजी के बिछोह का विशाद कुछ हद तक हलका कर दिया। लेकिन तांगा जाते ही कठिनाई से रोके हुए माँ के आँसू बरस पड़े। मौसी, मामी और बुआ माँ को ढाढ़स बाँधती रही और आधी रात बीते घर गयी। हम भी लेट गये।
माँ जब भी मुझे अधिक लाड-प्यार करती, मैं समझ जाता कि वह अत्यधिक दुःखी और अस्वस्थ है। आज भी वैसा ही प्यार करने लगी। मेरा शरीर सहलाती जाती थी और हिचकियाँ लिये जाती थी। उसे सांत्वना देने के लिए मैं भी उसे सहलाने लगा। लेकिन इसका परिणाम उलटा हुआ। माँ रो पड़ी। मेरी उम्र उस समय कोई बारह वर्ष की रही होगी। माँ मुझे अत्यधिक प्रिय थी। पिताजी के प्रति आदर-भाव था, लेकिन उनसे कभी-कभी डर भी लगता था, जब कि माँ से तो निर्भयता का वरदान मिल चुका था। मैं माँ के पास ही लेट गया और उसके पल्ले से उसके आँसू पोंछने लगा, लेकिन जैसे-जैसे पोछता गया वैसे -वैसे अश्रुधारा अधिकाधिक बहने लगी। मेरा भी जी भर आया। उसके अविरत आँसू देख कर मेरी आखें भी छलक पडी। लेकिन मुझे रोते देख कर माँ के आँसू अनायास रूक गये। मुझे और पास खींच कर उसने आँचल से मेरी आँखें पोंछी। इस दरमियान वह एक शब्द भी नहीं बोली थी। मैं बोलने की हालत में था ही नहीं।
आखिर माँ ही बोली। उसकी आवाज रूलाई से नम हो रही थी। कहने लगी, “बैटा, मैं तुझे बहुत अच्छी लगती हूँ ना?” इसका जवाब क्या देता! आँसूभरी आंखों से एकटक उसे देखता रहा। आँखो का उत्तर पढ़ कर वह फिर बोली, “तेरे बापू मुझे उतने ही अच्छे लगते हैं। वे जब कभी बाहर जाते हैं, मैं विहव्ल हो जाती हूँ। इस बार तो मेरी बेचैनी और भी बढ़ गयी। गुरू महाराज ने तार भेजकर न जाने क्यों बुलाया है। … न मालूम रामजी की क्या मरजी है। … चल अब सो जा।” इस प्रकार बातें करते हुए हम एक-दूसरे का आश्वासन बन कर सो गये।
पाँचवे दिन शाम को पिताजी लौट आये। माँ तब तक उदास ही रही, परंतु पिताजी को देखते ही उसकी आँखों में जीवन उमड़ आया। गमगीनी पर आनंद की लहरें छा गयीं। मैं भी पुलकित हो उठा। वायुवेग से समाचार फैल गया। स्वजनों का आना शुरू हुआ। घर में जहाँ कुछ समय पहले शून्यता छायी थी, वहाँ जिंदगी की हिना महक उठी। सबको विदा कर के हमने एक साथ भोजन किया। मैं हमेशा पिताजी के पास ही, पर अलग बिस्तर पर सोता था। हमारे बिस्तर के सामने ही माँ सोती थी। रात को प्रार्थना कर के हम सो गये।
बहुत रात बीते हिचकियों की आवाज से मैं जाग गया। देखा, कि माँ और पिताजी आमने सामने बैठे हुए बातें कर रहे थे और माँ की हिचकी बंधी हुई थी। मैं धीरे से उठा और माँ की गोद में जा छिपा। पिताजी को इतना व्याकुल मैंने शायद ही कभी देखा था। माँ की गोद से उठ कर मैं उनकी गोद में जा बैठा। वे मेरे सिर पर हाथ फेरते रहे। उनके स्वर मैं अस्वस्थता थी। माँ को संबोधित कर के वे कहने लगे, “तुम हाँ कहो, तभी मैं सूरत की गद्दी का स्वीकार कर सकता हूँ। गुरू महाराज ने स्पष्ट कहा है, कि तुम्हारी सम्मति हो, तभी मेरा संन्यास सार्थक हो सकता है।”
“आपको गद्दी देने की गुरू महाराज की इच्छा है, इसकी शंका तो वे पिछली बार जब यहाँ आये थे, तभी मुझे हो गयी थी। नारायणदास ने मुझसे कहा, तो मैंने समझा कि मजाक कर रहे होंगे। इसीलिए मैंने आपसे स्पष्ट पूछा भी था। आपने उस समय तो ना कह दी थी, लेकिन आपके मन की कशमकश में उस समय भी भाँप गयी थी। फिर सूरत की गद्दी जयरामदास को देने की बात चली और मैंने मन को मना लिया। अब की बार तार आया, तब से तो मैं कुशंका से पागल हो रही हूँ….!!” माँ की हिचकियाँ चलती रहीं।
“लेकिन देखो न नर्मदा,” पिताजी की वाणी में व्याकुलता थी, “जयरामदास को गद्दी देने को अब गुरूजी की इच्छा नहीं है। उनका कहना है, कि हमारे कुल का त्याग उच्च कोटि का है। पिताजी के दान की शोभा बढ़ानी हो, मंदिर की प्रतिष्ठा संभालनी हो और निरांत संप्रदाय को जीवित रखना हो, तो मुझे गद्दी स्वीकार करनी ही चाहिए।” सहसा माँ की हिचकियाँ रूक गयी। आँसू आँखों में ही रूक गये। आवाज कुछ अजीब सी मालूम हुई। बोली, “देखिए, आपके आत्मकल्याण के मार्ग में आकर मैं अपने धर्म से विचलित होना नहीं चाहती, लेकिन यह हमारे लिए बड़े कलंक की बात होगी।”
“दीक्षा लेने में कलंक है, यह तुम से किसने कहा? मैं कुछ दुःख, निराशा या जिम्मेदारियों से भाग कर तो संन्यास ले नहीं रहा। संसार का सामना न कर सकने की कायरता के कारण संन्यास लिया जाए, तो उसे कलंक कहा जा सकता है। जब कि मैं तो सब प्रकार से सुखी जीव हूँ और फिर, मैं तो तुम्हारी सम्मति के बाद ही यह कदम उठाना चाहता हूँ। तुम्हारी रज़ामंदी न हो, तो मुझे गद्दी नहीं चाहिए।!” पिताजी की आवाज़ में कंपन था। वे अभी स्वस्थ नहीं हुए थे।
“मैं जिस कलंक की बात कह रही हूँ, उसका कारण बिलकुल अलग है,” माँ ने कहा। “मेरे कहने का मतलब यह है, कि लोग कहेंगे कि बाप-दादा की संपत्ति सीधी तरह से विरासत में नहीं मिली, तो साधु बन कर हथिया ली। पिता ने उदार मन से जो संपत्ति मठ के लिए दान कर दी थी, उसे बेटे ने महंत बन कर भोगा। हमारी तो संपत्ति भी गयी और इज्जत भी गयी। आपके संबंध में कोई इस प्रकार का संशय व्यक्त करे, तो मेरे लिए तो वह मर जाने जैसा होगा।”
पिताजी गंभीर हो गये। मेरे सिर पर उनका हाथ फिरता रहा। लालटेन की रोशनी उन्होंने कुछ तेज की। कमरे में प्रकाश छा गया। माँ की आंखे पिताजी की आंखों की गहराई में उतर कर कुछ खोज रही थी। वे अपने स्वाभाविक धीर-गंभीर स्वर में बोले, “तुम बिलकुल ठीक कह रही हो, नर्मदा। यह मुझे पहले ही सूझना चाहिए था। न जाने कैसे यह बात मेरे ध्यान में ही नहीं आयी। मेरे मन में एक ही लगन थी कि गुरू महाराज की आज्ञा का पालन करना चाहिए। लेकिन अब तुम्हारी बात समझ में आती है। कल सुबह ही तार कर के गुरूजी के चरणों में अस्वीकृति भेज दूंगा।”
मेरी उपस्थिति से बेखबर होकर माँ ने पिताजी के पाँव छू लिये।
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